उत्तराखंड की जलवायु |
धरातलीय विविधता का जलवायु पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है. यहाँ की जलवायु भी इससे अछूती नहीं है. जलवायु की दृष्टि से यह प्रदेश पश्चिमी हिमाचल प्रदेश की अपेक्षा अधिक आर्द्र तथा गर्म रहता है. ग्रीष्मकाल में यहाँ निम्म प्रदेश व घाटियों में गर्म नम उष्ण जलवायु मिलती है, जबकि घाटियों से कुछ सौ किलोमीटर दूर अनेक ऐसे पर्वतीय क्षेत्र मिलते हैं, जो हमेशा हिम से ढके रहते हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी तथा देहरादून आदि जिलों की जलवायु अति आर्द्र एवं शीत है. शीत ऋतु में तो राज्य के अनेकानेक स्थानों का तापमान शून्य तक तथा कभी-कभी शून्य से नीचे भी चला जाता है. ग्रीष्म ऋतु में तापमान 16° से 21° सेन्टीग्रेड तक पहुँच जाता ऋतु है. ऊँचाई के अनुसार तापमान में अन्तर पाया जाता है. वर्ष भर के औसत मौसम से जलवायु का निर्धारण होता है. राज्य की जलवायु का अध्ययन ऋतुओं के आधार पर किया जा सकता है. उत्तराखण्ड में धरातलीय रचना के ही जलवायुवीय दशाएँ पाई जाती हैं जो अधोलिखित हैं-
ग्रीष्म ऋतु
ग्रीष्मकाल को स्थानीय भाषा में 'रुरी' (Ruri) कहा जाता है. यह मार्च से शुरू होकर मध्य जून तक रहती है ग्रीष्मकाल में घाटियों में उष्टकटिबन्धीय दशाएँ पाई जाती हैं. मार्च से तापमान में वृद्धि आरम्भ हो जाती है. जलवायु उष्णकटिबन्धीय रहती है, जबकि ऊँचे पर्वत हिमाच्छादित रहते हैं. नैनीताल का ग्रीष्मकालीन तापमान अधिकतम 24-7 एवं न्यूनतम 7-8 सेण्टीग्रेड रहता है. सम्पूर्ण प्रदेश में ग्रीष्मकालीन तापक्रम 12 से 160 सेण्टीग्रेड रहता है.
शीत ऋतु
शीत ऋतु का प्रारम्भ नवम्बर माह से प्रारम्भ हो जाता है, दिसम्बर, जनवरी, फरवरी माह में तापमान बहुत कम रहता है. जनवरी माह सबसे अधिक ठण्डा रहता है उच्च हिमालयी क्षेत्र में साधारणतया हिमपात होता रहता है, पर्वतीय शिखर सदैव हिमाच्छादित रहते हैं. 10,000 फीट से अधिक ऊँचाई वाले भागों में शीतकालीन क्वथनांक बिन्दु से कम रहता है. शीत ऋतु में वर्षा पश्चिमी चक्रवातों से होती है. चक्रवातों के साथ आंलों की वर्षा होती है पर्वतीय क्षेत्र के गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, अल्मोड़ा एवं देहरादून जिलों में शीत ऋतु में सबसे अधिक वर्षा होती है जिसकी मात्रा 12:5 सेमी से कुछ अधिक है.
वर्षा ऋतु
जून मास के मध्य से ही वर्षा ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है. बंगाल की खाड़ी व अरब सागर से मानसूनी हवाएँ उठकर राज्य में पहुँचती हैं तथा वर्षा करती हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में इन हवाओं के टकराने से अधिक वर्षा होती है. जुलाई-अगस्त माह में वर्षा अनुमानतः अधिक होती है जिसके कारण पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन एवं तेज जल प्रवाह से मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाता है तथा यातायात अवरुद्ध हो जाता है. प्रदेश में सिंचाई के साधन कम होने व पर्वतीय सीढ़ीदार खेती होने के कारण वर्षा ही सिंचाई का प्रमुख सरोत है.
शिवालिक क्षेत्र की जलवायु
इस क्षेत्र की जलवायु कुमाऊँ पर्वतीय प्रदेश की अपेक्षा-कृत गर्म एवं आर्द्र है. ग्रीष्मकालीन तापमान 29-4° से 32-80°C रहता है निचली घाटियों में तापमान 43-3° सेण्टी- ग्रेड तक पहुँच जाता है. शीतंकऋतु का तापमान 4-4° से 7-2° सेण्टीग्रेड रहता है. वार्षिक वर्षा की मात्रा 200 से 250 सेमी है.
सामान्यतया गर्मियाँ शीतल होती हैं यहाँ के मसूरी, चकराता, रानीखेत व नैनीताल आदि नगरों में मैदानी भागों से सहस्रों की संख्या में लोग आकर गर्मियों में शीतलता का आनन्द उठाते हैं. इसके अलावा कौशिक ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर उत्तरांचल को 7 प्रमुख जलवायु कटिबन्धों में बाँटा है जो मुख्यतया ऊँचाई पर आधारित है जिसका उल्लेख अधोलिखित इस प्रकार है-
जलवायु कटिबन्ध | ऊँचाई (मीटर) | औसत | बार्षिक | औसत | जून | औसत | जनवरी |
उष्ण कटिबन्ध | 300-900 | 18.9 | 21.1 | 27.2 | 29.4 | 11.1 | 13.3 |
उष्ण उपोष्ण कटिबन्ध | 900-1800 | 13.9 | 18.9 | 21.1 | 27.2 | 6.1 | 11.1 |
शीत शीतोष्ण कटिबन्ध | 1800-2400 | 10.3 | 13.6 | 17.2 | 21.1 | 2.8 | 6.1 |
शीत कटिबन्ध | 2400-3000 | 4.5 | 10.3 | 13.3 | 17.2 | 1.7 | 2.8 |
अल्पाइन कटिबन्ध | 3000-4000 | 3.0 | 4.5 | 5.6 | 13.3 | शून्य | शून्य से कम (वर्ष में 6 मास) |
हिमाच्छादित कटिवन्ध निरन्तर हिमाच्छादित कटिबन्ध | 4000-4800 4800 से अधिक | (वर्ष में 10 माह शून्य से कम) शीत मरुस्थल वनस्पति रहित |
वर्षाकाल जून के अन्त में प्रारम्भ होकर मध्य सितम्बरतक रहता है. वर्षा की मात्रा पर पर्वत के फैलाव की दिशा
का प्रभाव पड़ता है. शिवालिक से महान हिमालय श्रेणी तक वर्षा की मात्रा बढ़ती जाती है. प्रदेश के सुदूर उत्तरी भाग में वर्षा की मात्रा घट जाती है. टेहरी में वर्षा 80 सेमी., कर्णप्रयाग में 136 सेमी., जोशीमठ में 180 सेमी. होती है. इसी प्रकार वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घट जाती है. नैनीताल में 270 सेमी., तो देहरादून में 212 सेमी. वर्षा
होती है. इन सब विशेषताओं के साथ यह बात दृष्टिगोचर होती है कि वर्षा की मात्रा पर धरातलीय विशेषता का भाव
पड़ता है. नरेन्द्र नगर जो 1080 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, 318 सेमी. वर्षा प्राप्त करता है. इसके पास में स्थित टेहरी, जो 778 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है केवल 80 सेमी. वर्षा प्राप्त करता है. सबसे अधिक वृष्टि का क्षेत्र (ग्रीष्म व शीत दोनों काल को मिलाकर) 1200 से 2100 मीटर के बीच पड़ता है. 2400 मीटर से अधिक ऊँचाई का क्षेत्र ग्रीष्म वर्षा कम प्राप्त करता है. उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी भागों में तापमान काफी गिर जाता है, जो हिमांक से भी नीचे चला जाता है. शीतकालीन चक्रवात नवम्बर से मई महीनों के बीच तीन से पाँच मीटर तक हिमपात करने में सक्षम होते हैं.
उत्तराखण्ड में औसतन वार्षिक वर्षा
200 से 400 सेण्टीमीटर-उत्तराखण्ड राज्य में सबसे अधिक वर्षा शिवालिक पहाड़ियों एवं तराई क्षेत्र में होती है.
120 से 200 सेण्टीमीटर-उत्तराखण्ड राज्य में यह लघु हिमालयी नदी घाटियों में अधिक होती है.
80 से 120 सेण्टीमीटर-लघु हिमालयी नदी घाटियों के उत्तर में स्थित उच्च नदी घाटियों में 80-120 सेण्टीमीटर के मध्य वर्षा होती है.
40 से 80 सेण्टीमीटर-उच्च हिमालय क्षेत्र में उत्तराखण्ड राज्य की सबसे कम वर्षा होती है.
तापक्रम
धरातलीय विषमताओं के कारण तापक्रम में वितरण सम्बन्धी विविधताएँ पाई जाती हैं. हिम क्षेत्रों का अपना विशेष प्रभाव है. इस क्षेत्र की जलवायु की दशाओं को जानने के लिए पर्वतीय क्षेत्र का ऊर्ध्ववत् प्रसार जानना भी आवश्यक है, जो स्वतः ही तापक्रम का ऊर्ध्ववत् विचरण भी प्रस्तुत करता है. प्रत्येक 1000 मीटर की ऊँचाई पर औसत तापक्रम लगभग 6° सेण्टीग्रेड तक घट जाता है. ऊँचाई बढ़ने के साथ ही साथ तापमान में विविधताएँ भी बढ़ जाती हैं. सामान्यतः हिमालय क्षेत्र में अप्रैल-मई के महीनों में दैनिक तापान्तर सबसे अधिक होता है. विभिन्न ऊँचाइयों पर ताप-क्रम घटने की दर ऋतु के अनुसार भी अलग-अलग होती है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि जलवायु उत्तराखण्ड के मानवीय सांस्कृतिक तत्वों को प्रभावित करती है. यहाँ की जलवायु वनस्पति को भी प्रभावित करती है.
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