उत्तराखण्ड की खूबसूरत पर्वतीय अंचल की सामाजिक रचना में जहाँ-वहाँ की विशिष्ट राजनीतिक गतिविधियों ने यथेष्ट प्रभाव डाला, वहीं उस क्षेत्र की जनजातियों का भी महत्वपूर्ण योगदान है. यह जनजातियाँ समय समय पर इस प्रदेश-में प्रवेश करती गईं तथा अपनी विशिष्ट परिस्थितियों, वंश परम्परा और उपयोगिता के आधार पर भावर-तराई की पट्टी से लेकर भोटांतिक (12000 फीट से ऊँचे)छेत्रों तक छा गई. इन जातियों की अपनी-अपनी वेशभूषा, रीति-रिवाज तथा धार्मिक परम्पराएँ हैं. उत्तराखण्ड की प्रमुख जनजातियों में भोटिया, बुक्सा, जीनसारी, राजी तथा थारु आदि हैं. उत्तराखण्ड के गठन के पूर्व 1967 ई. तक उत्तर प्रदेश में कोई अनुसूचित जाति नहीं थी, लेकिन पहली वार जून 1967 में पाँच जनजातियों को-भोटिया, भोक्सा (बुक्सा), जौनसारी,राजी तथा थारू को अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया. इन प्रमुख जनजातियों के विषय में अलग-अलग अध्ययन समीचीन प्रतीत होता है-
भोटिया
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में स्थित 'भोट प्रदेश' में निवास करने वाले लोगों को 'भोटिया' कहा जाता है. भोट प्रदेश उत्तर पर्वतीय क्षेत्र में तिब्बत एवं नेपाल के सीमावर्ती भाग को कहते हैं, भोटिया जनजाति उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा, चमोली, पिथौरागढ़ तथा उत्तरकाशी क्षेत्र में फैली हुई हैं.
भोटिया जनजाति के लोग मंगोल प्रजाति के वंशज हैं. भोटिया जनजाति की जीविका का एकमात्र साधन पशुपालन है, कभी-कभी ये घर बनाकर भी रहते हैं, वास्तव में कहने के लिए इनका कोई घर नहीं होता है, घुमक्कड़पन ही इनका जीवन है, जहाँ भेड़ों के लिए चारा मिलता है, वहीं चल देते हैं. ऊन, हींग, जीरा तथा सुहागा बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं. भेड़ों का भी व्यवसाय करते हैं. परन्तु सर्दियों के जिस महीनों में यहाँ बर्फ के तूफान चलते हैं. ये लोग अपनी भेड़-बकरियों के साथ नीचे के स्थानों में चले आते हैं. ग्रीष्म ऋतु में पुनः अपने स्थान को लौट जाते हैं, भोटिया लोग गौर वर्ण के होते हैं. वे लोग हिमालय के तिब्वती वरमन परिवार से सम्बन्धित बोलियाँ वोलते हैं.
रहन-सहन
भोटिया लोग देखने में तिब्वती मालूम पड़ते हैं. पहनावा यहाँ का होते हुए भी उस पर तिब्वती वेशभूषा का प्रभाव है. पुरुष घुटनों तक लम्बे चौंगे पहनते हैं. सिर पर तिब्बती ढंग की टोपी अथवा एक प्रकार की पगड़ी बाँधते हैं. स्त्रियों की वेशभूषा में ऊँची वाँह वाला कोट है, जिसे चुंग कहते हैं. यह चुंग टखनों तक का होता है. सिर को ढकने के लिए स्त्रियाँ चादर का प्रयोग करती हैं. कुछ स्त्रियाँ वालों को ढकने के लिए रुमाल भी बाँधती हैं. ये कानों में वालियाँ, हाथों में चृड़ियाँ तथा गले में कण्टीमाला पहनती हैं.
विवाह
भोटिया लोगों में विवाह करने के लिए लड़के अथवा लड़की पर किसी प्रकार का कोई प्रतिवन्ध नहीं है, उन्हें पूरी स्वतन्त्रता होती है. फिर भी, माता-पिता की अनुमति लेना आवश्यक समझा जाता है. जब लड़का तथा लड़की एक-दूसरे को पसन्द कर लेते हैं तथा विवाह करके एकसूत्र में बँधने को तैयार हो जाते हैं, तव लड़का अपने किसी मित्र के द्वारा कुछ रुपए एक रुमाल में बाँधकर लड़की के माता-पिता के पास भिजवाता है. लड़की के माता-पिता इस वात पर ध्यान से विचार करते हैं, क्योंकि कई बार सन्तान अनुभवहीन होने के कारण चयन करने में धोखा खा जाते हैं. सामान्य रूप से माता-पिता विवाह में कभी बाधा नहीं उत्पन्न करते हैं. माता-पिता वर को स्वीकृति भेज देते हैं. किसी शुभ दिन पर लड़का वारात लेकर लड़की के घर आता है. बिना किसी संस्कार के ही लड़की को डोली में विठाकर ले जाता है. जब लड़का, लड़की को लेकर जाने लगता है उस समय लड़की वाले रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं एवं बनावटी युद्ध होता है, जिसमें लड़की वाले को हारना पड़ता है, फिर लड़का, लड़की को अपने घर ले जाता है. इसके बाद लड़की का पिता अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ लड़के के घर जाता है तथा वहाँ पहुँचने पर रीति अनुसार विवाह सम्पन्न किया जाता है.
रांग बाग कुड़ी
भोटिया लोगों के प्रत्येक गाँवों में चौपालें लगाई जाती हैं, जिन्हें 'रांग बाग कुड़ी' कहते हैं. शाम के समय सभी युवक युवतियाँ यहाँ एकत्रित होते हैं. यहीं पर अविवाहित लड़के लड़कियाँ अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं. यहाँ मनोरंजन भी होता है. एकत्रित लोग वारी-वारी से नृत्य करते हैं, अतिथियों को 'रांग वाग कुड़ी' में ही ठहराया जाता है अन्यत्र ठहराने पर मेहमान अपना अपमान समझता है. परिवार में अपने मेहमान को ठहराना ये लोग उचित नहीं समझते हैं.
धार्मिक विश्वास
इन लोगों में शिव तथा शेषनाग की पूजा का बहुत महत्व है. सभी शुभ अवसरों पर इन देवताओं की पूजा होती है.
चारित्रिक विशेषताएँ
भोटिया लोग चरित्र के बड़े ऊँचे होते हैं. ये लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते हैं. यहाँ आज भी ऐसे लोग हैं, जो ताले के प्रयोग से अपरिचित हैं, कोई भी वस्तु वह कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो, कोई हाथ नहीं लगाता है.
संगीत
भोटिया लोगों में तीन प्रकार के गायन प्रचलित हैं-तुबेरा, वाज्यू तथा तिमली. तुवेरा राग उत्तर प्रदेश के गाँवों में चलने वाले 'रसिया' गानों की तरह शृंगार रस से परिपूर्ण होते हैं. ये गीत भोटिया भाषा में होते हैं. 'बाज्यू' गीत वीर रस से भरा होता है. 'तिमली' गीत साधारण सामाजिक तथा प्रकृति के विषयों को लेकर लिखे गए होते हैं.
मृतक संस्कार
इनका मृतक संस्कार वहुत सादा होता है. मृतक के श्राद्ध करने की रीति सरल एवं विचित्र है. जिस दिन मृतक का दाह संस्कार किया गया हो, उसी दिन किसी झरने या पोखर के किनारे ये लोग एक पौधा वो देते हैं तथा उसे दस दिन तक प्रतिदिन जाकर पानी दिया करते हैं, इनके समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चारों वर्ण के लोग पाए जाते हैं. तथापि अधिकांश लोग वैश्य एवं शुद्र जाति के है. इस जनजाति के सांस्कृतिक सम्बन्ध तिब्बत से रहे हैं, अतः आज भी इनमें श्रेष्ठ ब्राह्मण का कार्य करने वाले 'लामा' ही है. यर्तमान समय में ये लोग वौद्ध संस्कृति को भूलते जा रहे हैं और हिन्दू संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं.
विवाह
इस जनजाति में गन्धर्व विवाह की प्रथा प्रचलित है. लड़की को पसन्द कर लेने के पश्चात् लड़का उसे रात्रि में भगाकर अपने घर ले जाता है. दूसरे दिन लड़की के घर वाले अपने कुछ लोगों के साथ लड़के के घर जाते हैं जहाँ लड़के को डंडों से पीटते हैं. इसके पश्चात् लड़का और लड़की को घर लाकर दूल्हा के दाहिने माथे और दुल्हन के बाएँ माथे पर घी का टीका लगाकर उनको विवाह बन्धन में वाँध दिया जाता है. दोनों पक्ष वैठकर 'छांग' जोकि एक प्रकार की शराब है पीकर आनन्द मनाते हैं. इनमें पुनर्विवाह, बहुपति विवाह एवं बहुपत्नी विवाह की प्रथाएँ प्रचलित हैं. युवक- युवतियों में विवाह से पूर्व शारीरिक सम्बन्ध होना एक सामान्य घटना मानी जाती है.
कलात्मक अभिरुचि
इनमें कलात्मक अभिरुचि विशेष रूप से पाई जाती है. इनकी भवन निर्माण कला, चित्रकारी आदि के उत्कृष्ट नमूने इनके मूल ग्रामों बगोरी, नेलंग आदि में देखे जा सकते हैं. आर्थिक जीवन जाड़ स्त्रियाँ सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं. इनकी स्त्रियाँ घरेलू उद्योग-धन्धों और व्यापार में पुरुषों की तरह कार्य करती हैं. ये स्त्रियाँ बहुत मेहनती होती हैं. ये स्त्रियाँ ऊनी वस्त्र जैसे पट्टु, 'थुलमा', 'टूमकर', 'पंखी', 'चुटका', 'कम्बल', फाँचा', 'आंगड़ा' आदि अत्यंत कलात्मक ढंग से बनाती हैं.
त्यौहार
इस जनजाति के लोग वर्ष में मुख्य रूप से दो ही त्यौहार मनाते हैं. इन दोनों त्यौहारों का इनके जीवन में विशिष्ट स्थान है, 'लौह सर' का त्यौहार वसन्त पंचमी के दिन मनाया जाता है. इसे इनके वर्ष का पहला दिन माना जाता है. इस दिन भगवान बुद्ध को प्रसन्न रखने के लिए प्रत्येक घर में झंडा लगाया जाता है, जिसमें पाँच विभिन्न रंगों के कपड़ों के टुकड़े बाँधे जाते हैं. इनका दूसरा प्रमुख त्यौहार 'शूरगैन' है. जो भाद्र माह के बीसवें दिन से प्रारम्भ होता है इस समय तीन दिनों तक देवता के समक्ष भेड़-बकरियों की पूजा की जाती है तथा उसके बाद सम्मिलित रूप से उनकी ऊन उतारी जाती है.
भाषा
इनकी भाषा को 'रोग्वा' कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ 'निम्न भागों में रहने वाला' है. उच्च घाटियों में निवास करने वाले जाड़ भागीरथी घाटी में रहने वाले गढ़वाली को 'गंगाडी' कहकर पुकारते हैं. रोग्बा भाषा गढ़वाली भाषा की अपेक्षा तिब्बती भाषा के अधिक निकट है.
जाड़ जनजाति
भोटिया जनजाति को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग नामों से जाना जाता है. चमोली में इन्हें 'मारछा' तथा 'तोलछा' के नाम से सम्बोधित किया जाता है. इसी क्रम में उत्तरकाशी जिले में भागीरथी की ऊपरी घाटी में रहने वाली भोटिया
जनजाति को 'जाड़' कहा जाता है. एटकिन्सन ने इन्हें तिब्बत के हुणिया जाति से सम्बन्धित माना है. जाड़ जनजाति का निवास क्षेत्र उत्तरकाशी जनपद की उत्तरी सीमा पर जाह्वी नदी की घाटी है. इनका मूल गाँव भारत-तिब्बत सीमावर्ती गांव जादुंग है. इनके मूलग्राम जादुंग के समीप ही जनक ताल स्थित है, जो एक प्राचीन पूजा स्थल
है. ये लोग अपने को राजा जनक के वंशज मानते हैं.
बेशभूषा
जाड़ जनजाति के पुरुष घुटनों से थोड़ा ऊँचा गर्म चोंगा पहनते हैं. जिसे 'वपकन' कहा जाता है. नीचे ऊनी धारीदार एवं चूड़ीदार पायजामा पहनते हैं. सिर पर हिमाचली टोपी तथा पैरों में खाल से निर्मित जूता पहनते हैं, जिसे 'पैन्तुराण' कहा जाता है. जाड़ स्त्रियाँ पैरों तक लम्बा चोगा पहनती हैं। जिसे 'कौलक' कहते हैं. इस 'कौलक' के चारों ओर किनारों में प्राकृतिक रंगों द्वारा चित्रकारी की जाती है. कमर में एक कपड़ा लपेटती हैं जिसे केरक कहा जाता है. इसके साथ ही हिमाचली टोपी व पैरों में पैन्तुराण पहनती हैं.
समाज
जाड़ जनजातीय समाज में आधुनिकता का कम प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. इनमें 'विधटित परिवार व्यवस्था' पाई जाती है, जिनमें पुत्रों के वयस्क हो जाने पर इन्हें परिवार से अलग कर दिया जाता है. पिता की सम्पत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों का समान अधिकार होता है.
बुक्सा
बुक्सा (भोक्सा) उत्तराखण्ड की प्रमुख अनुसूचित जन- जातियों में से एक है. यह जनजाति तराई-भाभर स्थित बाजपुर, गदरपुर, रामनगर, दुगड्डा व देहरादून जनपद के डोईवाला, विकास नगर, सहसपुर विकास खण्डों में निवास करते हैं. सन् 2001 की जनगणना के अनुसार बुक्सा जनजाति की कुल जनसंख्या 46,771 है, जिसका 60 प्रतिशत भाग नैनीताल जिले के विभिन्न विकास खण्डों में निवास करता है. जिन क्षेत्रों में यह जनजाति बसी है, उसे 'भोक्सार' कहते हैं.
शारीरिक गठन
शारीरिक गठन की दृष्टि से यह जनजाति कद में छोटी और मध्यम, चौड़ी मुखाकृति तथा समतल चपटी नासिका वाली होती है. सामान्य रूप से पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक सुन्दर होती हैं, स्त्रियों में गोल चेहरा, गेहुँआ रंग मंगोल नाक-नव्श स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. शारीरिक लक्षणों की दृष्टि से इस जनजाति में प्रजातीय मिश्रण हुआ प्रतीत होता है.
भाषा
भोक्सा जनजाति की भाषा हिन्दी एवं कुमाऊँनी का सम्मिश्रण है, परन्तु जो लोग लिखना जानते हैं, वे देवनागरी
लिपि का ही प्रयोग करते हैं.
बंशज
विलियम क्रुक ने बुक्सा की उत्पत्ति के विषय में कहा है कि ये लोग अपने को राजपूतों का वंशज मानते हैं. कुछ लोगों का मत है कि वे उज्जैन के धारा नगरी नामक स्थान से आए. कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि भारत पर
मुगलों के आक्रमण के समय चित्तीड़ की राजपूत जातियों की अनेक स्त्रियाँ निम्न वर्ग के अनुचरों के साथ भाग आई और तराई के क्षेत्र में शरण ली. यह भोक्सा जनजाति इन्हीं की संतति है. सम्भवतः इसी कारण भोक्सा जनजाति की पारिवारिक योजना में स्त्रियों की प्रधानता है. बुक्सा सबसे पहले तराई में 'बनवसा' नामक स्थान (उत्तराखण्ड का वर्तमान चम्पावत जिला) में आकर वसे. जो वनों से ढका था,
बैबाहिक पद्धति
बुक्सा जनजाति में क्रय-विवाह पद्धति आज भी प्रचलित है. वधू प्राप्त करने के लिए वधू मूल्य देय है, क्योंकि बुक्सा पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या काफी कम है. विवाह के पश्चात् कन्या पक्ष कन्या के सहयोग से प्राप्त लाभ से वंचित हो जाता है. अतः इसी क्षतिपूर्ति के रूप में कन्या का पिता कन्या मूल्य प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है, यह राशि विवाह के पूर्व वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष को दी जाती है, जो'मालगति' कहलाती है. भोक्सा जनजाति में विवाह की उम्र कन्या के लिए 18-20 तथा वर की 20-24 वर्ष उपयुक्त मानी गई है. इनमें 'अन्तर्जातीय-वहिर्गंत्रिय विवाह प्रथा प्रचलित है. पत्नी द्वारा विवाह विच्छेद करने पर पूर्व पति, पिता अथवा नवीन पति से क्षतिपूर्ति की माँग करता है. पत्नी यदि पति को छोड़ दे, तो पिता द्वारा 'मालगति' वापस करनी पड़ती है.
पंचायत व्यवस्था
भोक्सा जनजाति में शादी, तलाक, आपसी झगड़े अपनी विरादरी की पंचायत द्वारा तय होते हैं. इनके पंचायती प्रशासन में सबसे बड़ा आदमी 'तख्त' काहलाता है. 'तख्त' के अधीन 'दरीगा', 'मुंसिफ' तथा 'सिपाही होते हैं. 'तख्त' का कार्य सभा की तारीख निश्चित करना होता था तथा फैसला करना होता था, मुंसिफ का काम छानवीन करना होता है. दरोगा का काम दण्डित करना तथा सिपाही का कार्य ग्राम प्रधानों को सूचना पहुँचाना है. दस से बीस गाँवों के बीच इस प्रकार की विरादरी पंचायत होती है, परन्तु अब इस प्रकार पंचायत का महत्व कम हो रहा है, इनके स्थान पर नैनीताल जिले में तराई क्षेत्र के अन्तर्गत पंचायती राज की स्थापना की गई तथा 'भुक्सा परिषद्' की स्थापना हुई है.
घार्मिक विश्वास
भुक्सा जनजाति में धर्म का पारम्परिक रूप हिन्दू धर्म का ही प्रतिरूप है. ईश्यर में इनकी आस्था है, जिसकी पूजा
कई देवी-देवताओं के रूप में की जाती है. शंकर (महादेव), काली-माई, दुर्गा, लक्ष्मी, राम एवं कृष्ण की पूजा की जाती है. काशीपुर की चामुण्डा देवी सबसे बड़ी देवी मानी जाती है.
त्योहार
भुक्सा जनजाति में व्रत एवं त्यौहार भी हिन्दुओं के समान हैं. होली, दीपावली, दशहरा, जनमाप्टमी इनके प्रमुख त्यीहार हैं. 25 दिसम्बर को ईसाइयों के समान वड़ा दिन भी मनाते हैं. भोक्सा जनजाति में जादू-टोना तथा अनेक प्रकार का अन्धविश्वास प्रचलित है. रोग के प्रति सामान्यतः इनकी यह धारणा है कि झाड़ फँंक करने से टीक हो जाता है. वैद्य या चिकित्सक से परामर्श करने से पूर्व रोगी को स्याने (जिसे यहाँ 'भण्डारे' कहते हैं), को दिखाया जाता है. देवी देवताओं को प्रसन्न करने हेतु "स्याने' के आदेश से मुगा या वकरे की भेंट' या 'बलि' चढ़ाई जाती है.
आर्थिक जीवन
प्रारम्भ में भीवसा जनजाति तराई के यने जंगलों में रहते थे तया जंगलों से प्राप्त लकड़ी, शहद, कन्दमूल फल, जानवरों के शिकार आदि तथा पास के तालाबों में मछली पकड़कर जीवन निर्वाह करते थे. धीरे-धीरे जंगलों के कट जाने के कारण भोक्सा, जिनके जीवन की अर्थव्यवस्था जंगलों पर निर्भर थी, कठिनाई का जीवनयापन करने लगे. अथ वे केवल खेती तथा खेतों में मजदूरी करते हैं, इनके अन्दर नशे की लत भी होती है. चावल और मछली इनका प्रिय भोजन है. इसके अतिरिक्त दालें, रोटी और सब्जी का प्रयोग अपने भोजन में से करते हैं, पुरुष देशी मदिरा और कच्ची ताड़ी एवं जंगली प्रचुरता सुल्फे का प्रयोग अधिक मात्रा में करते हैं. मादक पदार्थों एवं द्रव्यों में ह्रुक्का, वीड़ी, सुल्फा एवं शराब का चलन है,
थारू
थारू जनजाति उत्तराखण्ड में ऊधमसिंह नगर जिले में निवास करते हैं. उत्तर प्रदेश में लखीमपुरखीरी, गोंडा, बहराइच, गोरखपुर आदि जिलों में तथा बिहार के चम्पारन और दरभंगा जिलों में एवं भारत के पूर्व में जलपाइगुड़ी (असम) से पश्चिम में कुमाऊँ (गढ़वाल) तक तथा नेपाल में, पूर्त में 'भैंची' से पश्चिम में 'महाकाली' के अंचल तक व्याप्त है. उत्तर भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार थारू जनजाति की जनसंख्या 85665 है.
इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार थारू लोगों का पुराना देश राजस्थान है. ये किरात वंशज हैं और कई जातियों तथा उपजातियों में विभाजित हैं. ये लोग कद के छोटे, पीतवर्ण, चीड़ी मुखाकृति तथा समतल नासिका वाले होते हैं, जो
मंगोल प्रजाति के लक्षण हैं. इसलिए कुछ इतिहासकारों ने इनका उद्गम मध्य एशिया के मूल निवासी मंगोलों से वताया है. कुछ लोग इन्हें भारत-नेपाल के आदिम निवासी सिद्ध करते हैं.
रहन-सहन
इन लोगों का रहन-सहन वहुत सादा है. मकान बनाने के लिए लकड़ी, लट्टे और नरकुल आदि का प्रयोग करते हैं.
इनके मकान उत्तर-दक्षिण और द्वार हमेशा पूर्व की ओर होता है. इनमें एक उपजाति होती है, जिसे 'उल्टहवा' कहते हैं. इनके मकान अन्य थारुओं की तरह ही उत्तर-दक्षिण की ओर होते हैं, परन्तु प्रवेश द्वार दक्षिण के बजाय उत्तर की ओर होता है. इसी उल्टी प्रथा के कारण यह जाति 'उल्टहवा' कहलाती है. इनका पहनावा वड़ा अनोखा है. वैसे ये लोग केवल एक लंगोटी ही पहने रहते हैं, परन्तु शरद् ऋतु में एक बड़ा-सा कोट पहन लेते हैं. सिर पर ऊनी कपड़े की काली टोपी तथा कन्धे पर कम्बल इनके साथ हर समय रहता है. स्त्रियाँ कुर्ता तथा काले रंग के घाघरे का उपयोग करती हैं. बाल को ढकने के लिए काले रंग के रुमाल का प्रयोग करती हैं. गहने पहनने का इन्हें बहुत शौक है.
सामाजिक जीवन
सभी विवाहित पुरुषों को स्त्रियों के अधीन रहना पड़ता है. पत्नी का आदेश मानना पुरुष का धर्म समझा जाता है,
स्त्रियाँ अपने आपको रानी समझती हैं. पुरुष अपने आपको दास राजपूत सिपाडी समझते हैं. इसका अभिप्राय यह नहीं कि पत्नियाँ अपने पति का निरादर करती हैं, वल्कि यथासम्भव उनकी सेवा करती हैं. पति को ही अपना सर्वस्व समझती हैं. यह केवल एक रीति है.
विवाह पद्धति
थारुओं में विवाह की प्रथा वड़ी विचित्र है. विवाह करने के पहले इनमें सगाई होती है, कन्या तया वर पक्ष जब एक- दूसरे को परिणय सूत्र में बाँधने का निश्चय कर लेते हैं, तब वर पक्ष की ओर से कन्या को मिटाई तथा वस्त्र भेजे जाते हैं. इसके बाद लड़की और लड़के के पिता अपनी प्यालियाँ एक-दूसरे से वदलकर मद्यपान करते हैं. सगाई में अन्तिम रीति 'उचावल' की होती है. इसमें कन्या की माता वर के पिता के पास आकर उसके पाँव छूती है तथा 'उचावल' के लिए प्रार्थना करती है. इसका अर्थ यह है कि वह लड़की के श्रृंगार के लिए लड़के वाले से रुपया माँगती है. लड़के का पिता सामर्थ्यानुसार कुछ नकद रुपए लकड़ी की माँ के आँचल में डाल देता है. पुनः एक निश्चित दिन विवाह होता है.
थारुओं में पहले बदला अर्थात् बहनों के आदान-प्रदान की प्रथा थी, लेकिन अब यह कम होती जा रही है. अब
इनमें "तीन टिकठी' प्रथा जोर पकड़ रही है, जिसके अनुसार एक-दूसरे की बहन से विवाह न करके उसी परिवार के किसी निकटतम लड़की से करते हैं. बहुपत्नी विवाह भी इनमें हो सकता है.
न्याय पंचायत
थारुओं में अपनी समस्याओं को निपटारे के लिए अपनी विरादरी की पंचायतें होती हैं. यह इनकी ग्रामीण अदालतें होती हैं. इस प्रसंग में यह जनजाति भी वड़ी कट्टरपंथी है, 'मद्यप पंचगण मदिरा' के घूँट के साथ तर्क- वितर्क करते हैं. इस प्रकार न्याय में भी मदिरा की प्रमुख भूमिका होती है. 'वाद' की विभिन्न धाराओं पर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है, पराजित पक्ष को शारीरिक और आर्थिक दण्ड सहना पड़ता है. विरादरी के निर्णय की अपील कहीं अन्यत्र कोर्ट में असम्भव है,
धार्मिक विश्वास
थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं. हिन्दुओं की तरह इनके भी अनेक देवी देवता हैं. ये लोग तन्त्र मन्त्र, भूत प्रेत आदि में
भी विश्वास रखते हैं. देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए सूअर और वकरी की वलि देते हैं, किन्तु जगन्नाथी देवता पर
केवल दूध चढ़ाते हैं, इनके देवी देवताओं की संख्या लगभग छत्तीस है.
त्यौहार
थारुओं के दशहरा, होली, माघ की खिचड़ी, कन्हैया अष्टमी और वजहर इनके प्रमुख त्यौहार हैं. इसके अतिरिक्त
ये मकर संक्रान्ति, गुड़िया आदि त्यौहार भी उत्साह के साथ मनाते हैं. वजहर नामक त्यौहार वरसात के दिनों में होता है. उस दिन गाँव की समस्त स्त्रियों गाँव छोड़कर खाना बनाने के आवश्यक सामान के साथ निकट के किसी ऐसे स्थान पर चली जाती हैं, जहाँ पीपल का पेड़ होता है,
व्यवसाय
थारुओं का प्रमुख व्यवसाय व आय का ग्रोत कृषि है. इसके अतिरिक्त माछली का शिकार एक आवश्यक कार्य है, जो भोज्य पदार्थ के रूप में प्रयोग करते हैं. वे लोग जंगलों में चीतलपाड़ा, सूअर व जंगली जानवरों का शिकार करते हैं.
अन्त्येष्टि क्रिया
थारु लोग मुर्दों को दफनाते हैं तथा दरावाँ, तेरहवीं इत्यादि करते हैं. जब वे मिट्टी देकर लीटते हैं, तो चौराहे पर
एक छोटी सी पुलिया बनाते हैं. उनका विश्वास है कि इसके सहारे मृतात्मा संकटों को पार कर लेगी.
खस
खस प्रदेश उत्तराखण्ड के उत्तर-पश्चिम में स्थित पहाड़ी प्रदेश का नाम है. इसमें देहरादून, मसूरी के आसपास के पर्वतों का भाग भी शामिल है. यह वहुत ही रमणीय प्रदेश है, इसे प्राकृतिक सौन्दर्य का भण्डार कहा जा सकता है. जलवायु भी बहुत अच्छी है, इस प्रदेश में अधिक जनसंख्या खस जाति तथा पहाड़ी राजपूतों की पाई जाती है, ब्राह्मण तथा कोल्टेड्रम (कोहली वंश के लोगों के अछूत लोग) भी यहाँ पाए जाते हैं. कोल्टेडूम अधिकतर खस लोगों के सेवक होते हैं. आदिकाल से ये लोग खस लोगों की सेवा का व्यवसाय अपनाए हुए हैं, परआजकल सरकार इनको पाठशालाओं में पढ़ाने पर बल दे रही है.
सम्पूर्ण प्रदेश पहाड़ी है, जहाँ जाड़ों में बर्फ जम जाती है, कालसी इस प्रदेश का ऐतिहासिक स्थान है. अशोक के
काल के अनेक शिलालेख यहाँ मिलते हैं. 'चतरशाला' का अर्थ चित्रशाल
ब्यवसाय
यहाँ की मुख्य जीविका खेती और पशुपालन है, परन्तु खेती आदिम अवस्या में ही है, क्योंकि पहाड़ों पर खेती
करना कठिन है, ये खेत छोटे छोटे और सीड़ीनुमा होते हैं. यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति को मांस बहुत पसन्द है चाहे पह खस हो अथया ब्राह्मण, स्त्रियों को तम्बाकू तथा सिंगरेट पीने का बहुत शीक है. समाज में इसे बुरा नहीं माना जाता है.
रहन-सहन
इन लोगों का कपड़ा बहुत सादा होता है. गर्मियों में केवल एक लंगोटी पहनकर ही समय विता देते हैं, परन्तु जाड़ों में ऊनी चुस्त पायजामा, लम्बा कपड़ा तथा गोल टोप पहनते हैं. स्त्रियाँ अपने वालों को ढकने के लिए एक
काले रंग के रुमाल का प्रयोग करती हैं, जिसे 'टुयांटू' कहते हैं. स्त्रियों को आभूषण का बहुत शौक है. नये-नये
आभूषणों के लिए वे लालायित रहती हैं. इनके आभूषण बहुत सुन्दर नहीं होते हैं. नाक में लौंग भी पहनती हैं, कानों में बालियो, हाथों में चूड़ियाँ तथा माला पहनती हैं.
रीति-रिवाज
इनके यहाँ विचित्र रीति-रिवाज है, इनमें जाति का कोई भेदभाव नहीं समझा जाता है, व्राह्मण तथा राजपूतों में सरलता से विवाह सम्बन्ध होते हैं. एक समय एक स्त्री अनेक पुरुषों की पत्नी बनकर रह सकती है. एक भाई का विवाह हो जाने पर अन्य भाई विवाह नहीं करते हैं. एक ही स्त्री अन्य भाइयों की भी स्त्री समझी जाती है. इस प्रकार के सम्बन्ध को इन लोगों में बुरा नहीं माना जाता है. इसे ये लोग शुभ समझते हैं. इनका ऐसा विश्वास है कि यदि घर के सभी भाई विवाह कर लें, तो घर का नाश हो जाता है. इसका कारण यह है कि पहाड़ पर कृषि योग्य जमीन की
कमी होती है तथा प्रत्येक परिवार के पास थोड़ी सी ही जमीन होती है, जिस पर सभी गृहस्थी का भार होता है.
भाई विवाह करने लगे, तो थोड़ी सी भूमि पर अधिक भार पड़ेगा और आर्थिक व्यवस्था विगड़ जाएगी.
सामाजिक जीवन
इस प्रदेश की स्त्रियों शराब भी पीती हैं. शराब पीने में इन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होता है. ये बहुत परिश्रमी
होती हैं. प्रत्येक कार्य में पुरुषों की सहायता करती हैं. वृक्षों पर चढ़ना तथा पहाड़ी नदियों को पार करना इनके लिए बहुत सरल होता है. ये लोग अतिथि सत्कार में बड़े कुश्ल होते हैं. घर पर मेहमान के आने पर धर की लड़की अथवा अन्य स्त्री बड़े आदर से उसके हाथ-पाँव धुलाती है. जब खाने के लिए सब प्रकार की वस्तुएँ परोस दी जाती हैं, तो उनमें से सभी प्रकार का भोजन थोड़ा-योड़ा निकालकर पहले घर की स्त्रियों खाती हैं. इसके बाद अतिथि को खाने के लिए कहा जाता है, यह केवल यह दिखलाने के लिए किया जाता है कि खाने में किसी प्रकार का दोष या विष नहीं है, अगर हो तो पहले वे अपनी जान दे देती हैं.
धार्मिक विश्वास
इनके अनेक देवी देवता हैं, लेकिन प्रमुख रूप से शिव की पूजा की जाती है. अन्य देवी देवताओं पर वकरे की बलि चढ़ाई जाती है.
त्यौहार
इनके यहाँ हरियाली का त्यौहार वहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. किसी निश्चित स्थान में मेले में सम्मिलित
होने के लिए लोग दूर दूर से आते हैं. देवी देवताओं के मंदिर में वलि चढ़ाई जाती है. स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाचते हैं. हरियाली का त्यौहार वर्षा के आगमन के साथ होता है. यही सबसे प्रमुख त्यौहार है.
जौनसारी
जौनसारी जनजाति कालसी, चकराता, त्योणी, लाखा-मण्डल, जौनसार वाबार, जौनपुर आदि की ऊँची पहाड़ियों पर निवास करती है. जौनसारी जनजाति के लोग पांडवों को अपना पूर्वज मानते हैं. यह उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा जननातीय समुदाय है.
बेशभूषा
मौसम के अनुसार यहाँ के परिधान अलग-अलग हैं. पुरुष सर्दी में ऊनी कोट व ऊनी पाजामा पहनते हैं जिसे 'सोन्तणु' कहते हैं इसके साथ ऊनी टोपी 'सिकोली' पहनते हैं. स्त्रियाँ सर्दी में ऊनी कुर्ता, ऊनी घाघरा, घाटू एवं गर्मियों में सूती घाघरा, कुर्ती कमीज जिसे 'झग्गा' कहते हैं, पहनती हैं. शीतकाल में औरतें कुर्ते के बाहर ऊनी चोली 'चोल्टी' पहनती हैं. आधुनिकता के इस समय में पैंट-कोट तथा साड़ी ब्लाउज का प्रचलन बढ़ गया है.
परिवार
जौनसार भावर के परिवार पितृसत्तात्मक है. परिवार का मुखिया सबसे बड़ा पुरुष सदस्य होता है, जो परिवार की
सम्पत्ति की देखभाल करता है. इनमें संयुक्त परिवार की प्रथा है, लेकिन वर्तमान समय में संयुक्त परिवार क्षीण होते जा रहे हैं, सामाजिक विभाजन के अनुसार ये लोग प्रायः राजपूत ब्राह्मण, सुनार, लौहार, बाड़ी, वाजगी, कोल्टा एवं हरिजन जातियों में विभक्त हैं जिनकी अपनी अपनी मान्यताएँ हैं- इस जनजाति में बहुपति प्रथा व बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है. यहाँ महिलाओं की स्थिति भी महत्वपूर्ण है. यहाँ पर दहेज प्रथा का प्रचलन नहीं है. विवाह-विच्छेद के लिए पति-पत्नी दोनों को ही समान रूप से अधिकार प्राप्त है.
धार्मिक विश्वास
इस जनजाति का भूत-प्रेतों की पूजा पर विश्वास है. ये लोग डाकिनियों एवं परियों पर अटूट विश्वास करते हैं, ये
लोग धर्मभीरुता व अन्धविश्वास की व्यापक मान्यताओं को लिए हुए है. इस जनजाति का एक महत्वपूर्ण सर्वमान्य देवता 'महासू' है जिसे महाशिव का रूप माना जाता है, इन लोगों की संस्कृति काफी प्राचीन है. जौनसारी जनजाति के लोग अपने को पाण्डवों का वंशज मानते है. ये पाँच पाण्डवों को अपना प्रमुख देवता तथा कुन्ती को अपनी देवी मानकर उनकी पूजा करते हैं.
प्रमुख त्यौहार
इस जनजाति के लोगों का विस्सु, पाचोई, दिवाली, वैशाखी व माघ मेला प्रमुख त्यौहार हैं.
नृत्य व संगीत
इस जनजाति के लोगों का प्रमुख नृत्य गीत ठुमकिया, बराडी गाण्डिया, रास रासो, धुमसु पौवई, पाण्डववला तथा
झेला हैं, जौनसारियों के गीतों में मांगल, हारुल, छोड़े, शिलोंगु, केदारछाया, गोडवड़ा, रणारात, विरसू् आदि प्रमुख हैं.
राजनीतिक संस्था
इस जनजाति में 'सयाणा' एक प्रमुख राजनीतिक संस्था रही है, वर्षों तक यहाँ का शासन 'सयाणा' एवं 'खुमरी' व्यवस्था द्वारा संचालित रहा है. पूरे जौनसार क्षेत्र को 'खतों' में बाँटा गया था. प्रत्येक खेत में एक सयाणा होता था. इसका कार्य विवादों का निर्णय, मालगुजारी एवं दीवाली वसूल करना होता था. सदर सयाणा पर अधिक जिम्मेदारी थी वह सभी खतों के मामले में सर्वोच्च नियंत्रक था. इसके अलावा 'खुमरी' भी सबसे अधिक पुरानी संस्था रही है. व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने के लिए इसकी सहायता ली जाती है. इसमें प्रत्येक परिवार का एक सदस्य सम्मिलित होता है. आवश्यकता पड़ने पर 'ग्राम सयाणा अर्थात् गाँव के मुखिया द्वारा 'खुमरी' की बैठक बुलाई जाती है. गाँव के झगड़े निपटाने के लिए 'खत खुमरी' की व्यवस्था होती है. खुमरी में कोई भी व्यक्ति अपना मामला दर्ज करवा सकता है. इसका शुल्क लिया जाता है जिसे 'नालस' कहते हैं.
व्यवसाय
इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय कृषि है. महिलाएँ कृषि कार्य में कुशल होती हैं. कारीगरी द्वारा भी ये लोग अपना
जीविकोपार्जन करते हैं.
शौका
यह जनजाति उत्तराखण्ड में कुमाऊँ मण्डल में पिथौरागढ़ के पूर्वी भाग तथा नेपाल एवं तिब्बत की सीमा के निकट निवास करती है. पिथौरागढ़ जिले की ऊँची पर्वतीय शृंखलाओं पर भी इसका निवास है.
बेशभूषा
पुरुष लोग गाउननुमा वस्त्र 'रहगा', 'खक्सखसी', चूड़ीदार पायजामा, चौबंदी तथा पगड़ी अथवा टोपी पहनते हैं. महिलाएँ चुंड (ऊनी वस्त्र), कमर में 'ज्यूज्यड' नामक कपड़ा भी वाँधती हैं. इन्हें आभूषण पहनने का विशेष शीक है.
व्यवसाय
आजीविका के लिए इन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ता है. उच्च हिमालयी क्षेत्र होने के कारण खेती-बाड़ी करना वहुत
कठिन होता है. शीका जनजाति भेड़पालन तथा ऊन का व्यवसाय करती है. तिव्वत के साथ व्यापार बन्द हो जाने के कारण इनकी आजीविका पर प्रभाव पड़ा है. शीका लोगों का जड़ी-बूटी वेचना भी परम्परागत व्यवसाय है. उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले की तिब्वत (चीन) और नेपाल की सीमा से सटी यह जनजाति ( शीका), धारचूला और मनुस्यारी तहसील आन्दोलन की लपेट में है. इस जनजाति के लोग नौकरियों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं.
राजी
'राजी' जनजाति भी उत्तराखण्ड की एक जनजाति है. इस जनजाति को 'बनरौत' के नाम से भी जाना जाता है. यह
जनजाति पिथौरागढ़ जिले के धारचूला एवं डीडीहाट विकास खण्डों के किमखोला, चिपलयड़ा, गानागाँव, चौरानी तथा जमतड़ी आदि गाँवों में निवास करती है.
बंशज
में गंगा पठार के पूर्व से मध्य नेपाल प्रागैतिहासिक तक का क्षेत्र आग्नेय वंशीय कोलविरात जातियों का है. इनके
वंशजों को आजकल 'राजी' कहा जाता है, राजी मुख्य रूप से जंगलों में रहना पसन्द करते हैं.
धार्मिक विश्वास
अशिक्षित होने के कारण राजी जनजाति के लोग अन्धविश्वासी हैं. जंगलों में रहने के कारण ये लोग जंगल के देवता की पूजा करते हैं. 'वाघनाथ' इनके प्रमुख देवता हैं. जादू-टोना, भूत प्रेत में इनका विश्वास है. ये हिन्दू धर्म को मानते हैं.
वेशभूषा
राजी जनजाति के लोग थारू पुरुष लंगोटी की तरह धोती तथा अंगरखा पहनते हैं. ये बड़ी-बड़ी चोटी भी रखते
हैं. महिलाएँ रंगीन लहँगा, चोली तथा ओढ़नी पहनती हैं. इन्हें गोदना गुदवाने का विशेष शौक है.
व्यवसाय
जंगलों में निवास करने के कारण जड़ी-बूटियों से परिचित हैं. ये लोग धान, दालें, तिलहन तथा सव्जियों की
खेती करके जीविकोपार्जन करते हैं. भेड़-वकरियाँ भी पालते हैं.
भाषा-बोली
राजी जनजाति के लोग घरों में बोलचाल में 'मुण्डा भाषा बोलते हैं. घर के बाहर ये लोग कुमाऊँनी भाषा वोलते हैं. इनकी भाषा में तिब्वती तथा संस्कृत भाषा की वहुलता रहती है. राजियों में वधू को क्रय करके विवाह किया जाता
है. महिलाओं को पुनर्विवाह का अधिकार होता है.
उत्तराखण्ड की अनुसूचित जातियाँ
(भाग-XXIV उत्तराखण्ड विधेयक) उत्तराखण्ड की अनुसूचित जातियों की संख्या 65 है. ये अनुसूचित जातियाँ इस प्रकार हैं-
1.अगरिया (Agariya)
2. वधिक (Badhik)
3. बादी (Badi)
4. बहेलिया (Baheliya)
5. बैगा (Baiga)
6. वैसवार (Baiswar)
7. बजनिया (Bajaniya)
৪. वाजगी (Bajgi)
9. वलहार (Balhar)
10. बलाई (Balai)
11. वाल्मीकि (Balmiki)
12. बंगाली (Bangali)
13. वनमानुस (Binmanus)
14. बॉँसफोर (Bansphor)
15. वरवार (Barwar)
16. वसोर (Basor)
17. बवरिया (Bawariya)
18. वेलदार (Bedar)
19. बेरिया (Beriya)
20, भाँटू (Bhantu)
21, भुविआ (Buiya)
22. भुविहार (Bhuyiar)
23. वोरिया (Boria)
24. चमार, धुसिया, झुरिया, जाटव
25. चेरो (Chero)
26. डवगार (Dabgar)
27. धनगार (Dhangar)
28. धानुक (Dhanuk)
29. धरकार (Dharkar)
30. धोवी (Dhobi)
31, डोम (Dom)
32. डोमार (Domar
33, दुसाध (Dusadh)
34. धरमी (Dharmi)
35. धरिया (Dhariya)
36. गोंड (Gond)
37. ग्वाल (Gwal)
38, हबुरा (Habura)
39. हरी (Hari)
40, हेला (Hela)
41. कलावाज (Kalabaz)
42. कंजर (Kanjar)
43. कपरिया (Kapariya)
44. करवाल (Karwal)
45. खरैता (Kharaita)
46. खरवार (Kharwar)
47. खटीक (Khatik)
48. खरोट (Kharot)
49. कोल (Kol)
50. कोरी (Kori)
51. कोरवा (Korwa)
52. लालवेगी (Lalbegi)
53. मझवार (Majhwar)
54. मज़हबी (Mazhabi)
55. मुसहर (Musahar)
56. नट (Nat)
57. पनखा (Pankha) (Exeluding Vanwasi)
58. vef (Parahiya)
59. पासी, टरमाली (Pasi, को भे Tarmali)
60. पटारी (Patari)
61. सहरिया (Sahariya)
62. सनीर्हिया (Sanaurhiya)
63. सनसिया (Sansiya)
64. शिल्पकार (Shilpkar)
65. तुरैहा (Turaiha)
अनुसूचित जनजातियों के लिए संवैधानिक संरक्षण
भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए कई प्रकार के संरक्षण प्रदत्त हैं. भारतीय संविधान के भाग III में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उनके संरक्षण के लिए कई प्रकार के प्रावधान किए गए हैं. अनुछ्छेद 38 में उल्लिखित है कि "राज्य यथासम्भव प्रभावी ढंग से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था गठित एवं विकसित करने का प्रयास करेगा, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की समस्त संस्थाओं का रूप धारण करेगा.'अनुछ्छेद 46 के अनुसार, "राज्य देश के कमजोर वर्गो, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को विशेष सावधानी से विकसितकरेगा तथा सामाजिक अभाव एवं समस्त प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा.
संविधान में प्रदत्त सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधान
अनुच्छेद 15 (4) द्वारा धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव का निषेध
किया गया है, इसी अनुच्छेद में खण्ड 4 में यह व्यवस्था है कि राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों एवं सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों की उन्नति एवं प्रगति के लिए कोई भी उपवन्ध बनाने का अधिकार दिया गया है.
अनुच्छेद 16 (4) में पदों और नीकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है. अनुच्छेद 19 (5) के अन्तर्गत सम्पत्ति क्रय के मामले में राज्य अनुसूचित जनजातियों के हितों के रक्षार्थ विशेष प्रतिवन्ध लगा सकता है. अनुच्छेद 23 में मानवीय व्यापार, वेगार और अन्य इसी प्रकार के बलात श्रम पर प्रतिबन्ध का प्रावधान किया गया है.
अनुच्छेद 29 (2) में इस बात का प्रावधान है कि किसी भी नागरिकों के लिए किसी ऐसी संस्था में प्रवेश की मनाही नहीं होगी, जो राज्य द्वारा रख-रखाव के अन्तर्गत हो या केवल धर्म, जाति, प्रजाति, भाषा का इनमें से किसी आधार पर राज्य निधियों से सहायता प्राप्त कर रही हो.
अनुछेद 164 विहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के राज्यों में जनजातियों के कल्याण के लिए भार-साथक मंत्री की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है.
अनुच्छेद 330, 312 और 334 में लोक सभा एवं विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है.
अनुछेद 339 (1) के अन्तर्गत राष्ट्रपति राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और अनुसूचित जनजातियों के
कल्याण के लिए आयोग की नियुक्ति कर सकता है.
संविधान में आर्थिक विकास सम्बन्धी प्रावधान
अनुच्छेद 275 और 339 में अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए प्रावधान किए गए हैं. अनुछेद 275 के अन्तर्गत संविधान के उपवन्धों की पूर्ति के लिए राज्यों को संघ से अनुदान मिलने की व्यवस्था है. अनुच्छेद 339 (2) के अन्तर्गत संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी ऐसे राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा, जो उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए निर्देश में आवश्यक वताई गई योजनाओं के बनाने एवं निष्पादन के सम्वन्ध में है.
संविधान के अनुच्छेद 371 (क) में नागालैण्ड, अनुछ्छेद 371 (ख) असम तथा 371 (ग) में मणिपुर राज्यों के अनु-सूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं.
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