उत्तराखंड के लोक संगीत, लोक निर्त्य,लोक कलाएं, ललित कलाएं |
संगीत भारतीय संस्कृति का अनादिकाल से महत्वपूर्ण अंग रहा है. भारत के प्रत्येक अंचल में विविध प्रकार के गीत-संगीत एवं लोकधुन की विशिष्ट परम्परा रही है, लेकिन सभी के स्वर गीत में मैत्री-भावना रही है मानव जब अपने लोक हृदय की भावनाएँ और लोकमानस की कल्पनाओं को स्वर के माध्यम से अभिव्यक्त करता है तो वह नैसर्गिक संगीत का रूप धारण कर लेता है. यही नैसर्गिक संगीत ही लोक संगीत है. विना वन्धन के भी लोक संगीत में एक स्वच्छन्द बंधता रहती है. अतएव लय, स्वर, ताल में जब ऐसा नैसर्गिक संगीत चलता है तो वह उसकी सहज ध्वनि होती है. लोक ध्वनि का उद्भव और विकास एक नैसर्गिक प्रक्रिया है.
शास्त्रीय संगीत के पण्डितों ने इन लोक धुनों को ही आधार मानकर संगीत शास्त्र का निर्माण किया. जिस प्रकार
मानव विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों को अनेकानेक प्रयोगों के बाद ग्रहण किया, ठीक उसी प्रकार संगीत के पण्डितों ने भी विविध रसों एवं स्वादों से युक्त लोकधुनों में से सं्वग्राही धुनों के परिशोधन तथा परिमार्जन के उपरान्त 'राग',संगीत का सृजन किया. कुछ रागों में झिझोरी राग, दुर्गा राग,' राग, तिलक कामोद राग, देश राग, पहाड़ी आदि प्रसिद्ध हैं. शास्त्रीय संगीत का 'झिझोरी राग' पूर्णतः पहाड़ी लोक-धुन पर आधारित है. इस राग की रागिनियाँ आज भी पर्वती अंचलों में सुनी जा सकती हैं, गढ़वाल का चौफुला, पाण्डव नृत्य, चाचरी और चैता गीत तथा कुमाऊँ की भूमि के न्योले, झोड़े तथा चांचरिया विख्यात हैं.
लोक संगीत के विविध प्रकार
लोक संगीत के विविध प्रकार हैं, जो विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं-
(1) मांगल (मंगल गीत)-प्रत्येक शुभ कार्य एवं विवाह आदि मंगल कार्यों में सौभाग्यवती स्त्रियाँ देवताओं से शुभ
कामना हेतु प्रार्थना करती हैं.
(i) आढ्वान गीत-देवताओं को जगाना, कार्य में मंगल करने के लिए निमन्त्रण देना.
(ii) पूजा गीत -निर्मन्त्रित देवताओं का आग्रह पूजन तथा फल प्राप्ति की विनम्र प्रार्थना.
(iii) विवाह गीत-वर ढूँढ़ना, वर का चुनाव, वाग्दान, निमन्त्रण, बारात की तैयारी, मंगल स्नान, लाजा होम,
सप्तपदी आदि अनेक अवसरों पर गीत गाये जाते हैं.
(2) जागर (जागरण-देवगाथाएँ)-जागर देवताओं के गीत होते हैं. विभिन्न सम्प्रदायों (नाथ, वज्रयानी, सिद्ध तथा बौद्ध) का प्रभाव भी जागरों में मिलता है. गढ़वाल में इन गीतों के गायन के साथ देवता नचाने की प्रथा है. अध्ययन की दृष्टि से जागरों के भी तीन भाग हैं-
(i) प्रवन्ध गीत रूप में राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, रुक्मिणी-चद्रावल, कृष्ण-रुक्मिणी तथा देवी के अनेक रूप.
(ii) चरित गीत रूप में विनसर (शिव), नागजा (कृष्ण), नरसिंह (विष्णु), भैरों (भैरवनाथ) तथा अंछरी (अप्सरा).
(iii) वार्ता रूप में पाण्डवों को देवता रूप में मानकर समस्त पाण्डवों की कथा को जागर के रूप में गाना. पर्वतीय
प्रदेश का 'पाण्डव नृत्य' विशेष आकर्षण का विषय है.
(3) पंवाड़े (बीर लोक-गाथाएँ)- पंवाड़े गढ़वाली लोक साहित्य के मौखिक महाकाव्य तथा खण्ड काव्य है. हिन्दी के
वीरगाथाकाल के नायक-नायिकाओं की तरह गढ़वाली पंवाड़ों के भी पात्र हैं. प्रायः गढ़वाल के ठाकुरी राजाओं में इसी प्रकार की लड़ाइयाँ होती रहती थीं. आज भी गढ़वाली जनजीवन में उनके पराक्रम की कहानियाँ गंगा और हिमालय पर्वत के अटूट सम्बन्ध के समान समायी हैं. गाथाएँ तीन रूप में मिलती हैं-
(i) ऐतिहासिक पंवाड़े-ऐसे वीर गीतों में इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों के अमर नायक-नायिकाओं के सम्पूर्ण कार्य-
कलाप वर्णित होते हैं; जैसे-राजा मानशाह, अजयपाल, मालूशाही और प्रीतमदेव आदि.
(ii) ऐतिहासिक एवं अनैतिहासिक पंबाड़े-ऐसे वीर गीत संख्या में बहुत हैं, परन्तु इन गीतों में वीरता का वर्णन और युद्ध कौशल का विवेचन बहुत होता है. कुछ प्रमुख मालों (पीरों) का नाम इस प्रकार है-सुरजू कुंअर, कफ्फू चौहान, कालू भण्डारी, गढ़ सुम्याल, काली हरपाल, हंसा हिंडवान, भानू भौपाल और गंगू रमोला आदि.
(iii) बीरांगनाओं के पंवाड़े-गढ़वाल में कई ऐसी वीरांगनाएँ हुई जिन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए. उनमें तीलू
कीनेली, जोतरमाला, पत्थरमाला, नौरंगी राजुला, ध्यानमाला और सरु कुमैण के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं.
(4) तंत्र-मंत्र के गीत-भूत-प्रेत एवं अनिष्टकारी आत्माओं से बचने के लिए ऐसे गीतों का उपयोग किया है. गारुड़ी
(भूत विद्या का विशेषज्ञ) गीत के साथ अन्य क्रियाओं को भी करता है.
(5) धड़या गीत-बसन्त पंचमी से लेकर विषुवत संक्रान्ति तक गढ़वाल के गाँव-गाँव में गायक तथा गायिकाएँ गोल घेरे में तीन कदम आगे तथा तीन कदम पीछे लौटकर-एक दूसरे के कमर में हाथ डालकर नाचती तथा गाती हैं. धड़या गीत नृत्य एवं गाथा प्रधान होते हैं. अर्जुन, लक्ष्मण, वासुदत्ता ( नाग कन्या) गीतों के मुख्य विषय होते हैं.
(6) चौफला-चौफला भी नृत्य गीत है. इस गीत को भी पर्वत-पुत्र एवं पर्वत-पुत्रियाँ गोल दायरे में घूमकर गाती हैं।
और साथ ही आगे-पीछे के साथी से गुणाकार होकर हाथ मिलाकर तालियाँ वजाती हैं. कभी-कभी डंडों का प्रयोग
किया जाता है. यह गुजरात के 'गरबा' नृत्य के समान है.
(7) खुदेड़ गीत-करुणतम शैली के गीत 'खुदेड़' है. खुदेड़ गीतों में आत्मिक क्षुधा का बाहुल्य होता है. माँ-बाप,
भाई-बहन, सखी-सहेली, वन-पर्वत, पशु-पक्षी, नदी- नाले, फल- फूलों तक स्मृति में आ जाना ऐसे गीतों के मुख्य विषय हैं, जिनमें स्मृति आ जाने पर सबसे मिलने की अटूट चाह होती है. झुमैलो, नगोली और नाग्वाली खुदेड़ों के अन्य रूप भी प्राप्त होते हैं, जिनमें दर्दीली भावना का गहरा सम्वन्ध होता है.
(৪) बारहमासा-वारहमासा बारह महीनों के रंग-रंगीले परिवर्तन के साथ नारी हृदय पर क्या प्रतिक्रिया होती है,
वारहमासा का वर्ण्य विषय होता है.
(9) चौमासा-(वर्षा ऋतु के गीत) हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल में वर्षा ऋतु का सौन्दर्य निराला होता है. नदी-नाले, पर्वत आदि का विषय वर्णन होता है.
(10) कुलाचार-गढ़वाल के ओजी (ढोल-दमाऊ के वादक) तथा भाट बंदी अपने-अपने ठाकुरों की वंश प्रशस्ति
गाते हैं. इन गीतों में प्राचीन समय का इतिहास, पराक्रमी वीरों की वंश गाथा एवं वंश उत्पत्ति का वर्णन होता है.
(11) चैती पसारा-पसाण चैत के महीने में औजी वादी मिरासी आदि जातियाँ दल बनाकर गाँवों में घर के सामने नाचती हैं.
(12) बसंती गीत-इन गीतों का मुख्य विषय लता, वृक्ष, फल, फूल एवं वन्य शोभा होती है.
(13) होरी गीत-होली के गीत नृत्यमय होते हैं जिसमें कृष्ण की लीलाओं का पुट स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है.
(14) बाजूबंद-प्रणय की मादक शैली बाजूवंद है.
(15) लामण-बाजूमंद की तरह लामण भी प्रेम गीत है. लामण में गीत का प्रेम से भरा कथानक होता है.
(16) छोपती-इसमें कई स्त्री-पुरुष मिलकर गोलाकार होकर प्रेम सम्बन्धी गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं. खाई- जौनसार में यह गीत शैली अधिक प्रचलित है.
(17) पटखाई में घूड़ा-घूड़ों में पर्याप्त जीवन दर्शन होता है. नीति गीत के रूप में भी इन गीतों को जाना जाता है.
(18) नौन्याली गीत-ये वच्चों के गीत होते हैं. बिविध लोक नृत्य गढ़वाल का प्रागैतिहासिक काल से भारतीय संस्कृति में अविस्मरणीय स्थान रहा है. यहाँ के जनजीवन में किसी-न- किसी रूप में सम्पूर्ण भारत के दर्शन सुलभ हैं. इस स्वस्थ भावना को जानने के लिए यहाँ के लोक नृत्य पवित्र साधन हैं. यहाँ के जनवासी अनेक अवसरों पर विविध प्रकार के लोक नृत्य का आनन्द उठाते हैं.
धार्मिक नृत्य
देवी-देवताओं से लेकर अंछरियों (अप्सराओं) और भूत- पिशाचों तक की पूजा धार्मिक नृत्यों के अभिनय द्वारा सम्पन्न की जाती है. इन नृत्यों में गीतों एवं वाद्य-यंत्रों के स्वरों द्वारा देवता विशेष पर अलौकिक कम्पन के रूप में होता है. कम्पन की चरमसीमा पर वह उठकर या वैठकर नृत्य करने लगता है, इसे देवता आना कहते हैं. जिस पर देवता आता है, वह 'पस्वा' कहलाता है. 'ढोल दभाऊँ ' के स्वरों में भी देवताओं का नृत्य किया जाता है. धार्मिक नृत्य की चार अवस्थाएँ हैं-
(i) विशुद्ध देवी-देवताओं के नृत्य-ऐसे नृत्यों में 'जागर' लगते हैं. उनमें प्रत्येक देवता का आह्वान, ूजन एवं नृत्य होता है. ऐसे नृत्य यहाँ 40 से ऊपर हैं, यथा-निरंकार (विष्णु), नरसिंह (डीड्या), नागर्जा ( नागराजा-कृष्ण ), विनसर
(शिव) आदि.
(ii) देवता रूप में पाण्डवों का पण्डीं नृत्य-पाण्डवों की सम्पूर्ण कथा को वार्तारूप में गाकर विभिन्न शैलियों में नृत्य होता है. सम्पूर्ण उत्तरी पर्वतीय शैलियों में पाण्डव नृत्य किया जाता है. कुछ शैलियाँ इस प्रकार हैं-(क) कुन्ती बाजा नृत्य, (ख) युधिष्ठिर बाजा नृत्य, (ग) भीम बाजा नृत्य, (घ) अर्जुन बाजा नृत्य, (ङ) द्रौपदी वाजा नृत्य, (च) सहदेव वाजा नृत्य, (छ) नकुल वाजा नृत्य. (iii) मृत अशान्त आत्मा नृत्य-मृतक की आत्मा को शान्त करने के लिए अत्यन्त कारुणिक गीत 'रांसो' का गायन होता है और डमरू तथा थाली के स्वरों में नृत्य का वाजा बजाया जाता है. इस प्रकार के छः नृत्य हैं-चर्याभूत नृत्य, हन्त्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और छल्या भूत नृत्य.
(iv) रणभूत देवता-युद्ध में मरे वीर-योद्धा भी देव रूप में पूजे तथा नचाए जाते हैं. वहुत पहले कैंत्यूरों और राणा वीरों का घमासान युद्ध हुआ था. आज भी उन वीरों की अशान्त आत्मा उनके वंशजों के सिर पर आ जाती है. भण्डारी जाति पर कैंत्यूर वीर और रावत जाति पर राणारौत वीर आता है. आज भी दोनों जातियों के नृत्य में रणकौशल देखने योग्य होता है. रौतेली, भंती, पोखिरिगाल, कुमयाँ भूत और सुरजू कुँवर ऐसे वीर नृत्य धार्मिक नृत्यों में आते हैं.
सामाजिक नृत्य
इस प्रकार के नृत्यों में मुद्राओं, नर्तन, अभिनय एवं रस का पूर्ण परिपाक मिलता है. ऐसे नृत्यों में गीतों का महत्व
अधिक होता है. इन नृत्यों में प्राचीन भारतीय नृत्यों, मध्यकालीन भारतीय नृत्यों एवं आधुनिक भारतीय नृत्यों का
सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है. कुछ नृत्य इस प्रकार हैं-
थड़िया नृत्य
संत पंचमी से लेकर विषुवत संक्रान्ति तक अनेक सामाजिक व देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में
गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किए गए लास्य कोटि के नृत्य हैं.
चौफुला नृत्य
थड़िया नृत्य की भाँति चौफुला नृत्य भी है, परन्तु इसमें तालियों की गड़गड़ाहट एवं चूड़ियों तथा पाजेबों की झनझनाहट का विशिष्ट स्थान होता है. गुजराती 'गरबा' या 'गरबी' नृत्य की छाप इस पर है.
मयूर नृत्य
पर्वत बेटियों का यह सावन की झड़ी का मनमोहक नृत्य है.
बसन्ती नृत्य
इस नृत्य में प्राचीन परम्परा के मदनोत्सव या वसन्तोत्सव की छाप है.
होली नृत्य
उल्लास एवं रसिकता का नृत्य है. मथुरा-वृन्दावन के रास की छाया इस नृत्य में होती है.
खुदेड़ नृत्य
यह आत्मिक क्षुधा में विह्वल, मायके स्मृति में इवी हई नायिकाओं का हृदय विदारक गतिमय नृत्य है.
पसिवारी नृत्य
पर्वत शृंखलाओं में घास काटती हुई समवयस्काओं का नत्य, जो गीतों के स्वरों और दाथी के 'छमणाट' में चलता है,
चांचरी नृत्य
यह गढ़वाल-अल्मोड़ा दोनों क्षेत्रों का समान चहेता नृत्य है. नर्तक एवं नर्तकियों का अर्द्धगोलाकार एवं गोलाकार
नृत्य, जिसमें हाथ कमर के इर्द-गिर्द होते हैं.
बौछड़ों
पंजाब के भांगड़ा की तरह यह नृत्य शिव-भक्ति के रूप में किया जाता है.
बी-सरेला
देवर-भाभी के प्रेम के आधार पर गीतमय नृत्य है.
छोपती नृत्य
लास्य कोटि एवं हिमाचली लावती-बगावली नृत्य के समान अत्यन्त आकर्षक नृत्य है.
छपेली नृत्य
प्रेम एवं आकर्षण का नृत्य है.
तलबार नृत्य
इस नृत्य को 'चौलिया' नृत्य भी कहते हैं. ढोल दमाऊँ के स्वरों में तलवार चलाने का स्त्री-पुरुषों का यह नृत्य वीर भावना से ओत-प्रोत है.
केदारा नृत्य
यह ढोल दमाऊँ के कठोर वादय स्वरों में विकट तलवार एवं लाटी संचालन का ताण्डव शैली का अद्भुत नृत्य है.
सरांव (सरी) नृत्य
युद्ध कौशल का अनोखा नृत्य है. पहले ठकुरी राजा दूसरे ठकुरी राजा की पुत्री का अपहरण करने जाते थे.
विवाह न होने पर युद्ध हो जाता था. इडियाकोट का क्षेत्र इस नृत्य के लिए प्रसिद्ध है.
पुपती नृत्य
ममता एवं दुःख विषयक यह नूत्य स्वच्छन्द वातावरण में स्त्रियों के द्वारा किया जाता है.
फौफटी नृत्य
पंजाब के 'कीकी' या 'कीक्ली' नृत्य के समान यह नृत्य गढ़वाली कुमारियों का गीति- प्रधान नृत्य है.
बनजारा नृत्य
मध्यकालीन विनोद नृत्य की तरह यह समवयस्का ननद- भाभी का चिढ़ाने वाली विनोदी नृत्य है.
जांत्रा नृत्य
पर्व विशेषों पर स्त्रियों द्वारा किया गया यह नृत्य है, जिसमें किसी पर्व या देवता का वर्णन मुख्य होता है. बंगाल
का 'जात्रा' नृत्य इसी के समान है.
झोंडा नृत्य
प्रेमासक्ति का नृत्य है.
बाजूबंद नृत्य
प्रेम-संवाद का गीतात्मक नृत्य है.
भेला नृत्य
दीपावली (बग्वाल) की रात में तथा हरिबोधिनी (इगास) की रात में गढ़वाल के गाँवों में यह नृत्योत्सव मनाया जाता है.
खुसौड़ा नृत्य
गति से मौज में किया गया यह नृत्य है. वाद्य स्वरों में कभी भी यह नृत्य किया जाता है.
चोलिया नृत्य
चोलिया नृत्य के साथ कोई भी गीत नहीं गाया जाता है.इसमें नर्तक राजपूत वीरों के लड़ाई के दृश्य हाथ में तलवार
एवं ढाल लेकर दर्शाते हैं.
कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों के नृत्य
उत्तरी गढ़वाल (अब चमोली जिला) कुछ मौजी जातियाँ (भाटिया गढ़वाली) जो हमेशा वर्फीले क्षेत्र में रहती हैं. अतः उनके नृत्यों में कुछ भौगोलिक एवं सामाजिक कारणों से मिन्नता आ गई है. इनके नृत्य लोक रक्षा, आनन्द, प्रेम तथा मित्रता के द्योतक हैं. इनके प्रमुख नृत्य-यड़िया, गनगना, पौणा, चंचरी और याक नृत्य हैं.
गद्दी एवं जाड जातियों के नृत्य
गढ़वाल में ऊँचाइयों पर रहने वाली इन जातियों का जीवन स्वच्छन्द होता है. इनके नृत्यों में भेड़-बकरियों का वही स्थान होता है जो मनुष्य का. इनके नृत्य इतने आकर्षक होते हैं जैसे प्रतीत होता है कि अप्सराएँ धरती पर उतर आई हों. भारत सरकार ने 1959 ई. में इन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित किया था. इनके नृत्य हैं-झंझोरी, वणजार,देखणी, तथा बाँसुरिया आदि.
कुमाऊंनी गोठिए (गोष्ठ वाले) के नृत्य
फुकन्या ये लोग जंगलों में गाय, भैंसों के साथ ही जंगल में छप्पर डालकर रहते हैं. ये लोग रात में नाच-गाकर अपना
समय व्यतीत करते हैं. इनके नृत्यों में सिहवा-विध्वा (कृष्ण के भाई), घटकरण तथा हरुचामू (गोठियों का देवता) के
आख्यान होते हैं. नृत्यों में अभिनय अधिक होता है.
किरात एवं किन्नर जातियों के नृत्य
पुष्प तोया मालिनी के तटों पर यह जातियाँ निवास करती हैं, जो अब पूर्णतः गढ़वाली जीवन में ढल चुकी हैं.फूयोंली, हिलांसी, कफ्फू आदि इनके नृत्य हैं.
उपर्युक्त नृत्यों के अतिरिक्त पशुचारक पह्दियों के झंझोटी, प्रेमजी, बणजारा आदि भी नृत्य दर्शकों को आकर्षित
करते हैं.
व्यावसायिक नृत्य
औजी, बद्दी, मिरासी, ठक्की एवं हुड़क्या व्यावसायिक जातियाँ अपने कला का प्रदर्शन करके अपनी आजीविका
कमाते हैं. औजी 'ढोल सागर' के ज्ञाता हैं. वड़ी जातियाँ नाच-गाकर ही अपना जीवन चलाती हैं, पहले गढ़वाल के
ठकुरी राजाओं का आश्रय प्राप्त था, लेकिन आजकल बदहाली की स्थिति में है. इनकी कला में भारत नाट्यम,
कुचिपुड़ी एवं मणिपुरी नृत्य शैलियों के दर्शन होते हैं.
गढ़वाल, कुमाऊँ में ये सभी जातियाँ उच्वकोटि के शिल्पकार हैं. इनके मुख्य नृत्य इस प्रकार हैं-
थाली नृत्य
वाद्दी ढोलक व सारंगी वजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है, उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है.
सरौं नृत्य
औजियो का यह नृत्य है.
चैती पसारा
चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने- अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं.
कुलाचार
कुल प्रशंसा गाते हुए 'हुड़क्का' स्वयं नृत्य भी करता है.
लांग नृत्य
मध्यकालीन लांग नृत्य के समान है. यह नृत्य वाददी करते हैं.
शिव-पार्वती नृत्य
बाद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि
अवस्थाओं का नृत्य करते हैं.
नट-नटी नृत्य
जन समाज मनोरंजनार्थ ये लोग नट -नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं. ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों
में अधिक होता है.
दीपक नृत्य
प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है. अन्त में दीये थाल में सजाकर नर्तकी नृत्य करती है.
सुई नृत्य
अनेक आंगिक अभिनय दिखाने के बाद नर्तकी अपने ओठों से सुई उठाकर अपना कमाल दिखाती है.
साँप नृत्य
साँप की तरह रेंगती हुई नर्तकी, सांप पर छछंदर का भावमय नृत्य प्रस्तुत करती है. उत्तराखण्ड का गढ़वाल परिक्षेत्र विविध लोक कलाओं, नृत्यों एवं गीतों से भरा पड़ा है. आश्रय न मिलने के कारण इनका लोप हो रहा है. आवश्यकता इस वात की है कि इसको जीवन्त रखा जाये, ताकि यह कला अक्षुण्ण रह सके.
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