Uttrakhand Map |
उत्तरांचल (अब उत्तराखण्ड) राज्य का गठन 9 नवम्बर 2000 को हुआ. उत्तरांचल गठन के पूर्व इसका नाम उत्तराखण्ड मिलता है. वैदिक साहित्य, जातक ग्रंथ, जैन और बौद्ध साहित्य और पौराणिक विवरणों में उत्तराखण्ड के विविध विषयों पर प्रकाश पड़ता है. शिलालेखीय विवरणों में, चौरव ताम्रपत्रों में उत्तराखण्ड के लिए 'पर्वबताकार-राज्य' शब्द का प्रयोग हुआ. पाणिनी और कौटिल्य ने ताम्रलिप्ति से पाटलिपुत्र और पाटलिपुत्र से वाह़ीक-कपिशा जाने वाले मार्ग को उत्तरापरथ नाम से सम्बोधित किया है. सम्भवतः वाद में उत्तर भारत के लिए उत्तरपथ या उत्तरापश्च नाम का प्रयोग होने लगा. पौराणिक साहित्य में हरिद्वार से लेकर महाहिमालय-तक तथा टोंस से वौद्धाचल तक के क्षेत्र को केदारखण्ड औरउससे पूर्व की और काली शारदा तक के क्षेत्र को मानखण्ड कहा गया है) इन विभिन्न नामों से कोई निश्चित निष्कर्ष तो नहीं निकाला जा सकता, परन्तु यह सम्भावना प्रकट की जा सकती है कि उत्तरापथ के पूर्वपद-'उत्तरा' तथा केदारखण्ड के अंतिम पद-'खण्ड' के संयोग से उत्तराखण्ड का जन्म हुआ.
उत्तराखण्ड की भौगोलिक सीमाएँ
भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी भावर से लेकर हिमाचल तक तथा टोंस-यमुना से लेकर काली शारदा तक विस्तृत क्षेत्र है. उत्तराखण्ड क्षेत्र में कुमाऊँ मण्डल के छुः जनपद यथा-नैनीताल, ऊधमसिंह नगर. वागेश्वर, पिथोरागढ़, चम्पावत, अल्मोड़ा तथा गढ़वाल मण्डल के जनपद यथा-देहरादून. पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, चमोली, रुद्रप्रयाग एवं उत्तरकाशी संम्मिलित है. सहारनपुर मण्डल का हरिद्वार जनपद भी उत्तराखण्ड में सम्मिलित किया गया है. गढ़वाल मण्डल हिमालय के केन्द्रीय संभाग में स्थित है. पहाड़ी की तलहटी में ऊधमसिंह नगर तथा देहरादून के तराई एवं.भावर क्षेत्र हैं
कुमाऊँ की दक्षिणी सीमा भावर-तराई प्रदेश तक फैली है तथा काली शारदा अति प्राचीनकाल से राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की सीमा रही है. पश्चिम की ओर गढ़वाल राज्य की सीमा पहले सभल और सहारनपुर के उत्तरी भाग तक विस्तृत थी. गढ़वाल राज्य की पश्चिमी सीमा टोंस यमुना की पश्चिमी घाटी तक तथा हिमाचल प्रदेश में सतलुज के पूर्वी तट तक एवं दक्षिण पश्चिम में दृश्यद्वती और सरस्वती के स्रोत प्रदेशों तक फैली है,
इस प्रकार उत्तराखण्ड की सीमाओं के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश का समस्त उत्तर पर्वतीय भाग, जो तराई-भावर की पट्टी से आरम्भ होकर भारत-तिब्बत सीमांत तक फैला हुआ है तथा यमुना टोंस की पश्चिमी घाटी से लेकर शारदा तक विस्तृत है,आता है,
स्थिति एवं विस्तार
उत्तराखण्ड का अक्षांशीय विस्तार 28°43' से 31°27' उत्तर तक एवं देशांतरीय विस्तार 77°34' से 81°02' पूर्वी देशांतर तक है. इसका सम्पूर्ण क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी है वर्ष 201। की जनगणना के अनुसार इस क्षेत्र की जनसंख्या 100,86,292 है जो देश का 20वों वड़ा राज्य है. प्रशासनिक दृष्टिकोण से इसके अन्तर्गत अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, देहरादून, गढ़वाल, चमोली, नैनीताल, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, ऊधमसिंह नगर, वागेश्वर, चम्पावत, रुद्रप्रयाग, हरिद्वार जिले आते हैं.
भूगर्भिक संरचना
इस पर्वतीय क्षेत्र के धरातलीय स्वरूप पर यहाँ की भूगर्भिक संरचना का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. इस क्षेत्र की भूगर्भिक चट्टानों का अध्ययन मिडिपल मिस ने 1887, ग्रीसवेक ने 1891, मेडलीकाट ने 1864 तथा आइन महोदय ने 1931 में किया है. आइन महोदय ने संरचना की दृष्टि से 5 पेटियों में विभक्त किया है. (1) स्वस्थानिक मेखला दून घाटी में 50 किमी. उत्तर तक फैली हुई है. इस भाग में चूना पत्थर तथा निपेक्षित अवसादों का जमाव पाया जाता है, इस भाग में वलन एवं ध्रंशन कम पाए जाते हैं. (2) क्राल नापे समस्थानिक मेखला का एक भाग है जो देहरादून की चकराता तहसील के पूरव में एक अभिनति केरूप में स्थित है. (3) गढ़वाल नापे, क्राल नापे पर निपेक्षित है. इसमें आग्नेय शैलों की प्रधानता है. (4) मुख्य हिमालय मेखला गढ़वाल नापे की आधारशिला है. इसमें नीस तथा आग्नेय शैलों का आधिक्य है. (5) मध्य समस्थानिक पेटी का निर्माण ग्रेनाइट शैलों से हुआ है, जिसमें नीस एवं शिष्ट शैलें पाई जाती हैं.
पर्वत श्रेणियाँ
उत्तराखण्ड के तराई-भावर के प्रदेश लगभग चौरस हैं जो 5 मील से लेकर 15 मील तक चौड़ी और सँकरी पट्टी के
रूप में फैले हुए हैं. इस प्रदेश को तथा दून घाटियों को छोड़कर समस्त प्रदेश पर्वत श्रेणियों से धिरा हुआ है. भावर- तराई की पट्टी उत्तर की ओर ऊँची उठकर शिवालिक श्रेणी तक समाप्त हो जाती है. उसके बाद क्रमशः मध्य हिमालय, महाहिमालय तथा भारत-तिब्बत सीमांत पर स्थित जंस्कर श्रेणियाँ आती हैं. महाभारत में इन श्रेणियों को उपगिरि, वाहिगिरि, अन्तर्गिरि तथा गन्धमादन अथवा कैलाश नाम से सम्बोधित किया गया है.
उपर्युक्त चारों पर्वत श्रेणियों ने पश्चिम-पूर्व में फैलकर उत्तराखण्ड को चार भागों में विभक्त कर दिया है जो माल (तराई-भावर), सलाण, राठ (पठार) और भोट कहलाते हैं. उत्तराखण्ड का धरातल 800 फीट की ऊँचाई से प्रारम्भ होकर 25661 फीट की ऊँचाई तक पहुँचता है, जंस्कर और महाहिमालय श्रेणियों से उतरने वाली यमुना, अलकनन्दा और काली नदियों ने उत्तर से दक्षिण की ओर वहकर इन श्रेणियों का विभाजन कर डाला है. पश्चिम और पूर्व की ओर इन नदियों की सहायक नदियों ने अपना प्रभाव बनाकर अगणित डांडों को जन्म दिया है. इनसे उपजी इन सँकरी घाटियों में अनेक छोटी-छोटी नदियाँ वहती हैं. इस प्रदेश के उच्चावच, ढाल एवं अन्य भौतिक स्वरूपों के आधार पर इन्हें चार भागों में बॉटा जा सकता है-
(i) शिवालिक या बाह्य हिमालय,
(ii) मध्य हिमालय श्रेणियाँ,
(ii) हिमाद्रि या महाहिमालय श्रेणियाँ,
(iv) जंस्कर श्रेणियाँ.
(i) शिवालिक श्रेणियाँ- शिवालिक की औसत ऊँचाई 750 से 1200 मीटर के मध्य है. यहाँ लगभग 40 इंच वर्षा होती है. इसकी चट्टानी संरचना अन्य भागों से भिन्न है. इसके ढाल दक्षिण में खड़े तथा उत्तर में दून घाटी की ओर साधारण है. दून घाटियाँ औसत मैदानों की अपेक्षा 350 मीटर ऊँची हैं. देहरादून. कोण्डीदून. चोखम्भा पट्टी कोटा आदि घाटियों में देहरादून (35 x 25 मीटर) वृहत्तम एवं सर्वाधिक घनी जनसंख्या से आबाद है. झीलों, छोटी नदी नालों (गद एवं गधेरा को छोड़कर) इस प्रदेश में गंगा, यमुना एवं काली की प्रमुख नदी प्रणालियाँ हैं. हिमोढ़ जमाव, अनेक झीलें, नदी तापीय चबूतरे आदि इस प्रदेश की विशेषताएँ हैं.
(ii) मध्य हिमालय श्रेणियाँ- मध्य हिमालय श्रेणियाँ 1500 से 2700 मीटर की ऊँचाई में लगभग 75 किमी. चौड़ाई में विस्तृत है एवं दून घाटी तथा शिवालिक श्रेणियों से बाउण्डरी प्रश (Boundry Thrust) द्वारा अलग होती है.
मध्य हिमालय की श्रेणियाँ विभिन्न डांडों के रूप में विभाजित हैं. बीच बीच में अनेक छोटे-बड़े पठार हैं. इन डांडों की साधारण ऊँचाई छः हजार फीट तक है, वैसे देववन नागटिब्वा, मूसा का कोठा तथा चीनी शिखर जैसी चोटियाँ दस सहस्र फीट तक हैं. उतराखण्ड के भौगोलिक परिवेश में मध्य हिमालय श्रेणी पश्चिम से पूर्व तक रीढ़ की हड्डी के समान फैली हुई है. इससे डांडे पसलियों की भाँति निकलकर नदी घाटियों की ओर उतरते हैं, जिनमें मसूरी-लंढौरा, चन्द्रवदनी घड़ियाल, सुककुंडा, मन्दरापल, हटकुणी, नागटिव्वा, धनपुर, अमोली, विनसर, राणीगढ़ खतली उतांइ, दीपा का डांडा, द्रोणागिरि, दानपुर गणनाथ, रानीखेत, अल्मोड़़ा तथा नैनीताल आदि के डांडे उल्लेखनीय हैं.
उत्तराखण्ड की पर्वत श्रेणियाँ
पर्वत शिखर | समुद्र सतह से ऊँचाई (मीटर) | जनपद |
1. नन्दा देवी | 7,816 | चमोली |
2. कामेत | 7,756 | चमोली |
3. नन्दा देवी पूर्वी | 7,434 | चमोली |
4. माणा | 7,273 | चमोली |
5. चौखम्बा | 7,138 | चमोली |
6. त्रिशूल | 7,120 | चमोली |
7. द्रोणागिरि | 7,066 | चमोली |
৪. पंचचूनी | 6,904 | पिथौरागढ़ |
9. नन्दाकोट | 6,861 | बागेश्वर |
10. बंदरपूँछ | 6,315 | उत्तरकाशी |
प्रायः ऊँचे डांडों पर अभ्रक, संयुक्त ग्रेनाइट चट्टानें मिलती हैं जिनके ऊपर की मिट्टी की परत उपजाऊ नहीं है फिर भी कहीं-कहीं वाजू, बुरांस, भौड़, खरसू, रागा तथा सुरई आदि के सुन्दर वन मिलते हैं. इन वनों में वृक्षों के नीचे विभिन्न प्रकार के हरे पीधे तथा झाड़ियाँ उग आती हैं, जो संसार के प्रमुख चराई क्षेत्रों में गिने जाते हैं. ऊँचे शिखरों पर प्रायः 120 इंच तक वर्षो होती है तथा छः हजार फीट तक की ऊँचाई तक 60 से 100 इंच तक वर्षा औसत होती है. ऊँचे डांडों पर शीतकाल में एक माह तक हिमपात होता है.
(ii) हिमाद्रि या महाहिमालय श्रेणियोँ - इसे सामान्यतया हो बर्गों में क्रमशः पर्वतीय सिलसिले एवं हिमाद्रि पाटियों में वर्गीकृत किया जा सकता है. हिमाद्रि पर्वत श्रेणियाँ लगभग किमी. चौड़ी हैं, जिनकी ऊँचाई 4800 से 9000 मीटर के बीच है. इनमें वंदरपूँछ (6315 मीटर), गंगोध्री (6614 मीटर), केदारनाथ (6940 मीटर), चौखम्भा (7138 मीटर) कामेट (7756 मीटर), नंदा देवी (7816 मीटर), द्रोणागिरि (7066 मीटर), त्रिशूल (7120 मीटर), नन्दाकोट (6861 मीटर) आदि वर्फाच्छादित ऊँचे शिखर हैं. इन शिखरों को भागीरथी, अलकनन्दा एवं धवली गंगा की ड्डनुमा नदी घाटियाँ अलग करती हैं. यह भाग रवेदार चट्टानों से निर्मित तथा पर्वत ।श्रृंखला गारनेट, क्वार्टजाइट था नीस से निर्मित है.
महाहिमालय श्रेणी के दक्षिणी ढालों पर 10 हजार परी की ऊँचाई तक चीड़, देवदारु, रागा, रॉसल, वाजू, बुरांस खरसू, भीडू तथा कहीं-कहीं भोजपत्र के सुन्दर वन हैं. ज्यों-ज्यों ऊँचाई वढ़ती जाती है, वृक्ष छोटे होने लगते हैं तथा 12 हजार फीट की ऊँचाई पर हिमालय की बुग्याल तथा अधिक ऊँचाई पर पयारे आरम्भ होती है जो हिमरेखा हे निकट समाप्त हो जाती है.
(iv) जंस्कर श्रेणियाँ- महाहिमालय की उत्तरी ढ़ालों से आगे भारत-तिब्बत सीमांत तक जंस्कर श्रेणियाँ फैली हैं. इनकी ऊँचाई 18 सहस्र फीट से लगभग अधिक है. इन श्रेणियों से भारत और तिब्बत की अनेक नदियाँ निकली हैं. इस श्रेणी के गिरिद्वार सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व-पूर्ण रहे हैं, जिनमें जेलूखगा, माणा, नीति, चौरहोती, दमजन, शलशल, कुंगरी बिंगरी, दारमा तथा लिपुलेख उल्लेखनीय हैं.उत्तराखण्ड की मुख्य हिमानियाँ गंगोत्री, केदारनाथ, रेकन्ना, कोसा, माणा, वामनि, नंदादेवी, पिण्डार और मिलाम मुख्य हैं,
उत्तराखण्ड के ग्लेशियर (हिमनद)
ग्लेशियर | ऊँचाई मी में | जनपद |
1. गंगोत्री | 4000-6902 | उत्तरकाशी |
2. मिलाम | 4242 | पिथौरागढ़ |
3. पोर्टिंग | 3650 | पियौरागढ़ |
4. नामिक | 4830 | पियौरागढ़ |
5. पिण्डारी | 3352-4625 | वागेश्वर |
6. सुन्दरढूंगा | 6053 | वागेश्वर |
7. कफनी | 3840 | बागेश्वर |
उत्तराखण्ड के प्रमुख दर्रा
दर्रे | विस्तार क्षेत्र / सम्पर्क क्षेत्र |
1,श्रृंग कण्ठ | उत्तरकाशी-हिमाचल प्रदेश |
2. थागा ला | उत्तरकाशी-तिव्वत |
3. मुलिंग ला (5669 मीटर) | उत्तरकाशी- तिब्बत |
4. माणा (चिरबटिया अथवा डुगरी) ला (5608 मीटर) | चमोली- तिब्बत |
5. नीति (5044 मीटर) | चमोली-तिब्बत |
6, बाराहोती | चमोली-पियौरागढ़ |
7. कुँगरी बिंगरी | चमोली-तिब्बत |
৪. दारमा | पिथौरागढ़-तिब्बत |
9. लिपुलेख | पिथौरागढ़-तिब्बत |
10. ट्रेलपास | बागेश्वर-पियौरागढ़ |
नदियाँ:- उत्तराखण्ड में गंगा, यमुना, अलकनंदा, काली गंगा तथा उनकी सहायक नदियों का जाल फैला हुआ है इन समस्त नदियों का जल अंत में गंगा में मिल जाता है.
यमुना का उद्गम बन्दरपूँछ हिमालय से निकलने वाली अनेक जलधाराओं के योग से हुआ है. इसकी मुख्य सहायक नदियाँ टोंस और गिरिनदी हैं.
गोमुख हिमानी से भागीरथी का जन्म हुआ है जो देवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है- इसकी सहायक नदियों में जाड़गंगा और मिल्ल गंगा प्रमुख हैं.
अलकनंदा की मूल स्रोत सरस्वती जंस्कर श्रेणी में स्थित देवताल से निकलती है. प्रारम्भ में यह विष्णुगंगा हलाती थी. इसकी सहायक नदियों में धवलगंगा, मन्दाकिनी, पिण्डार एवं भागीरथी नदी प्रमुख हैं.
पश्चिमी रामगंगा दूधातौली के पठार से निकलती है. गढ़वाल तथा कुमाऊँ के दक्षिणी भागों का जल लेकर कन्नौजके पास गंगा में मिल जाती है.
पूर्वी गंगा नंदकोट शिखर से निकलकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहती है. जकला और गोमती इसकी सहायक नदियाँ हैं.इनका जल लेकर यह सरयू बनती है और अंत में काली नदी में जा मिलती है.
गौरी गंगा जन्सकर हिमालय में ऊँटाधुरा के निकट से निकलकर ओसकोट के पास काली गंगा में मिलती है. भी उक्त केन्द्र से ही निकलकर खोला के निकट काली गंगा में मिल जाती है.
कुटीड्याती लड्प्या घाट के समीप जन्सकर से निकलकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई गव्यडि पहुँचतीहै. यहाँ इसका नेपाल से आने वाली काली नदी से संगम होता है. फिर यह काली गंगा बनकर नेपाल, पिथौरागढ़ तथा अल्मोड़ा की सीमा बनाती हुई वर्मदेव के पास भाबर में उतरती है और शारदा कहलाती है. इसकी मुख्य सहायक नदियाँ पूर्वी राम गंगा, गौरी गंगा, दरमा (पूर्वी धौली) तथा नेपाल से आने वाली काली नदी है.
भिलंगना :- भागीरथी की सबसे बड़ी सहायक नदी है. टिहरी नदी के पास गणेश प्रयाग में इन दोनों नदियों का संगम होता है. यहीं पर भारत सरकार के सहयोग से प्रसिद्ध टिहरी बाँध का निर्माण हो रहा है. भिलंगना का उद्गम स्थल 16,790 फीट की ऊँचाई पर स्थित सहस्त्र ताल है.
इन नदियों का उत्तराखण्ड के इतिहास में अत्यधिक महत्व रहा है. इस प्रदेश के सभी प्रमुख नगर इन्हीं नदियों के किनारों पर बसे हैं. आर्थिक दृष्टि से इन नदियों की उपत्काएँ निवास और कृषि के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है.व्यापार और धार्मिक जीवन को भी इन नदियों ने बहुत प्रभावित किया है.
भाबर प्रदेश- गंगा और शिवालिक श्रेणी के मध्य जो पाँच मील से लेकर पन्द्रह मील तक की सँकरी पट्टी है उसे भाबर या माल प्रदेश कहा जाता है. जलवायु या उपज की दृष्टि से इन घाटियों को इसी प्रदेश के अन्तर्गत रख सकते हैं. इस प्रदेश का निर्माण रेत, बजरी, कौगलामरेट और गोलमटोल पत्थरों की सतह से हुआ है, जिसके ऊपर मिट्टी की हल्की परत मिलती है. भाबर प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर वन फैले है। हुए हैं, परन्तु जहाँ सिंचाई की सुविधा है प्रायः वहाँ गंगा के मैदानों की तरह कृषि होती है.
पहाड़ प्रदेश- इस प्रदेश का अधिकांश धरातल 1500 फीट से लेकर 7500 फीट तक ऊँचा है. इस प्रदेश को अध्ययन की दृष्टि तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(i) गड्डिया (1500-2500 फीट ऊँचाई तक),
(ii) सलाण (2500-5000 फीट ऊँचाई तक),
(iii) राठ (5000-7500 फीट ऊँचाई तक).
इन पहाड़ प्रदेशों का रास्ता बड़ा दुर्गम है. सारे प्रदेश अनेक टेढ़े मेढ़े डांडे हैं जिन्हें बीच-बीच में अनेक नदियों नेकाटकर रोलियाँ बना डाली हैं. सलाण गड़्डियों और राठ प्रदेश का मध्य भाग है. इसमें दोनों प्रदेशों की विशेषता विद्यमान है, परन्तु जलवायु की दृष्टि से पठार प्रदेश उल्लेखनीय है, इसी भाग में उत्तराखण्ड के प्रमुख नगर बसे हैं. यहाँ पर लोहा, ताँबा, जिप्सम, बिजौत्रा, अभ्रक, गंधक तथा ग्रेफाइट इत्यादि खनिज पदार्थ भी प्राप्त होते हैं. इस प्रदेश का मुख्य व्यवसाय सदैव से कृषि रहा है.
भोटान्तिक प्रदेश- पठार प्रदेश की उत्तरी सीमा पर गगन- चुम्बी पर्वत श्रेणियों का स्थल भोटान्तिक प्रदेश कहलाता है. इसकी उत्तरी ढालों का धरातल सदैव हिम से ढका रहता है. महाहिमालय की दक्षिणी ढालों से आगे उत्तर की ओर तिब्बत और रामपुर-बुशहर के सीमांत तक भोटांतिक प्रदेश फैला है. यहाँ पर केवल छोटी-छोटी छः घाटियों में मानव रहता आया है, परन्तु शीतकाल से पहले ही इन घाटियों को छोड़कर आना पड़ता है.
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