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Important songs and rites of Uttarakhand (उत्तराखंड के प्रमुख गीत व संस्कार )


(उत्तराखंड के प्रमुख गीत व संस्कार )


उत्तराखण्ड के जन-जीवन में गीतों का बहुत बड़ा महत्व है. प्रकृति ने अपने लजीले श्रृंगारों से जिस प्रकार इसे सँवारा
है इसी भाँति यहाँ के मानवों के हृदय में विभिन्न प्रकार के गीतों की भावना जाग्रत हुई है. यहाँ का प्रत्येक पर्व गीतों की अलौकिक भावना से परिपूर्ण है. यहाँ पर धार्मिक गीत, गीत, संस्कार गीत, कृषि सम्बन्धी गीत (गुड़ैल) उत्सव तथा पर्व गीत, ऋतु मेलों के गीत, विरह गीत, खुदेड़ गीत आदि प्रमुख गीत हैं.

धार्मिक गीत
धार्मिक गीतों में पौराणिक गीत, रामायण व महाभारत पर आधारित गीत, स्थानीय देवी-देवताओं के जागर गीत
आते हैं, जोकि धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत हैं, स्नान करते हुए धार्मिक स्थल में वृद्धों के मुख से इष्टदेव की
आराधना करते हुए गीतों के ये दो स्वर फूट पड़ते हैं-

उरी गो सूरज देव, पुरिगी पाया
ऐ गो को भूमिया, जी रो अमर काया
व्या बाल कच्यल हैं जो, अब्यय कब्या।

अब सूर्य देवता की सुनहरी किरणों के दर्शन होने लगे हैं. इसलिए अपने-अपने घरों को चलना चाहिए. सभी गाँवों
को इष्ट देव 'भूमियाँ' हम सभी लोगों को सुरक्षित रखें. विवाहितों के पुत्र हों और अविवाहितों के विवाह हों.

संस्कार गीत

    इन गीतों में पुत्र-जन्म ( नामकरण) छठी, यशोचरित, विवाह के गीत सम्मिलित हैं. साथ ही निमन्त्रण गीतों में
प्राकृतिक एवं दैविक शक्तियों, इष्ट मित्रों और पितृगणों को निमन्त्रित किया जाता है. सर्वप्रथम शुभ कार्यों में गणेशजी की आराधना गीतों के लय में की जाती है और शकुन गीत गाये जाते हैं,

शकूनां दे, शकूनां दे।
काज ए अती नींको ।
सुम रंगीलो पाटेले अंचली कमली को फूल
सोही फूल मोलावान्त गर्नेस, रामिचन्द्र, लक्षिमण ।
जीवा जनम आया अमरु होंइ
सोही पाटु पैरी रैना सिद्धि बुद्धी
सीता देही, बहुराणी आई बान्ती पुत्रवान्ती होई ॥

    हे इष्टदेव, आज शुभ कार्य का प्रारम्भ हो रहा है, प्रकार के पुष्प व धूप-दीप आपकी सेवा में समर्पित है. है
सिद्धि के दाता गणेश, इस कार्य में हमें हर तरह से ऋद्धि-सिद्ध देना. सीता की भाँति वहू रानियाँ आयुष्मती व पुत्रवती हों. 

गणेश की वन्दना का गीत है-
जय-जय गणपति जय जय ए ब्रह्म सिद्धि विनायक।
एक दंत शुभ करण, गंवरा के नन्दन मूसा के बाहन।
सिन्दुरी सोहे, अगनि बिना होम नहीं, ब्रह्म-विना वेद नहिं।
पुत्र धन्य काजु करें, राजुरचें।
मोत्यूं माणिका हिरा चौका पुरीयंले।
तसु चीखा बई ढाला रामिचन्द्र लक्षीमण विप्रए।
जी लाड़ी सीता देही बहूरांणी, काजु करें, राजु रचें।
फुलनी छैं फालनी छैं, जाहि सि वान्ति ए।
फूल व्यूणी ल्याणो वालो आयूं रूपी बान ए।

    हे विघ्न-विनाशक गणेश आपकी जय हो, हे ब्रह्माजी, आपकी जय हो. हे मंगलकारी एक दंत देव, गिरिजा के नंदन
मूसे की सवारी करने वाले आपकी जय हो. आपके ललाट पर सिन्दूर सुशोभित है. मंगल कार्य हो रहा है, जोकि ऐश्वर्य सम्पन्न है. मोती, मणियों व हीरों से चौकी पूजी गई है. एक चौकी पर श्रीरामचन्द्रजी तथा लक्षमण वैठे हैं. लाडली सीता देवी बहूरानी कार्य में व्यस्त है. ऐश्वर्य सम्पन्न है. तुम सौभाग्यवती जाई के फूल के समान फूलों, फलों और फूलों में से चुन-चुन वालक अपने योग्य सुन्दर वधू लाये.

    संध्या का गीत सभी शुभ कार्यों में गाया जाता है और सब इष्ट देवों को निमन्त्रण किया जाता है और उनसे कार्य
की सफलता की कामना की जाती है. सांझ का दीपक जलाने के लिए कहती है. निम्न गीत उसी वात का द्योतक है-

सांजे की दीयड़ी ब्वारी त्यारा हात जागी जाली।
कपूर वासी घीया हो, सेती ते वाती होली।
होली ब्वारी, सुनू को
तामा को कुन्योलो होलो, रुवा की तबाती होली।
जगी-जगौ ब्वारी तू त सांज की दीपड़ी जगौ।
रूमा-रूमा झौले पड़ी, लुपा-लुपा ऐन सज्यां।
लुपा-जुपा बारी नाना धन्य है वे पुत्र
जिनके घर में यह सास अपनी बहू को
दीवड़ो होलो। संध्या ऐन।
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    सभी मंगल कार्यों में कलश की स्थापना की जाती है. कलश में गंगा-यमुना का पावन जल लिया जाता है और
सुपारी, नारियल, चंदन, अक्षत, पुष्प आदि की स्थापना की जाती है. सभी पर्यों पर और इष्टदेव की कार्य की सिद्धि के लिए याचना की जाती है. घरों, द्वारों को ऐपणों (अल्पना) से सुशोभित किया जाता है. कलश गीत की कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

धरती घर में ले कलेश थापो छ।
आजु भरिया छ  धारिया  कलेश
आजु बधावन, नगरि सुहावन, देस बंधावन।
तामा को हुन्डै लै कलेश थापो छ।
तिसूति जनुउ ले कलेश थापो छ।
गंग जमुनो का पाणि लै कलेश थापो छ।

    इस तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शिशु के जन्म से लेकर विवाहोत्सव तक धार्मिक गीत गाये जाते हैं. यहाँ तक
कि विवाह के गीत में कन्या को पिता के घर से विदा करते समय हृदय विदारक गीत की लय को सुनकर बाराती भी
अश्रुधारा वहाने लगते हैं. विदाई गीत की कुछ लड़ियाँ (स्वर) इस प्रकार हैं-

 काहे कि छोडू मैं एजनि पैंजानि काहे की लम्बी कोखए।
बाबु की छोडू मैं एजनि पैंजानि माई की लम्बी कोख ए।
काहे कि छोड़ मैं हिल मिल चादर, काहे कि राम रसोई ए।
भाई की छोडू मैं हिलमिल चादर, भाभि कि राम रसोइए।
छोटे-छोटे माइन पकड़ि पलकिया हमारि बहिन कहां जाई ए।
छोड़ो-छोड़ो भाई हमारि पलकिया हम परदेसिन लोक ए.
जैसे जंगल की चिड़ियां बोलै रात बसे दिन उड़ि चलै। 
वैसे बाबुल घर हम छिय सौहे, रात बसै दिन उड़ि चतै.
बाबुल घर छाड़ि ससुर का देस छाड़ो तुम्हारा देस ए।

     कन्या विदा होते समय रोती विलखती हुई माँ की कोख व जन्मभूमि, जहाँ पर वाल्यकाल में खेली कूदी थी. को
छोड़ते हुए दुःखों के सागर को गीतकार के शब्दों द्वारा उड़ेल रही है. वैसे वातावरण में जन्म-भूमि के विछोह तथा माँ-बाप के प्यार व दुलार की याद को हृदय में स्मरण करते हुए सभी सगे-सम्बन्धियों की आँखों में आँसुओं की झड़ियाँ लगने लगती हैं.
   ऋतू  गीत  -उत्तराखण्ड की पुण्य भूमि में ऋतु परिवर्तन पर प्रकृति अपनी छटा बिखेर देती है. मानव के हृदय में
विभिन्न प्रकार के बदलाव आने लगते हैं वन-वृक्ष फूलों की बहार से झूम उठते हैं, ऐसे वातावरण में उत्तराखण्ड की एक नारी 'खुदेड़' गीत द्वारा अपने मायके की याद ताजा करती है. खुदेड़ गीत विशेषकर मायके तक न पहुँच सकने वाली या मायके से भाई का चैत में अपनी वहिन तक न पहुँचने की स्मृति में बहन के द्वारा हृदय विदारक स्थिति में गाया जाता है. 'खुद' शब्द का अर्थ है-अपने प्रिय माँ-वाप से दूर रहने पर उनके लिए तड़फन, मिलन एवं दर्शन की अभिलाषा रखना. फुलवारी के महीनों के आते ही मायके न जा सकने वाली नव परिणीता के हृदय-विदारक शब्द निम्न प्रकार है-

फूली जालो कांस बै, फूली जालो कांस।
मेल्वड़ी चासली बै, फूली गै बुरांस।
मौली गौने डाली बै, हरि देन डांडी।
शौंकी दीदी-भुलि व्वै, मैलु आई गैन।

    हे माँ, वनों में कांस फूलने लगा है और प्यासा मेल्वड़ी पक्षी गाने लगा व पर्वतों में बुरांस खिलने लगा है. पेड़-पौधे,
नव पल्लव नवीन कोपलों से खिलने से लग गए हैं. सारा वन हरा-भरा हो गया है. सभी नारियाँ मायके आ गई होंगी,
अकेली मैं ही ऐसी हूँ जो मायके की याद में तड़प रही हूँ. इस प्रकार उसके करुण स्वर फूट पड़ते हैं-

हे ऊंची डांड्यो तुम नीसी जाबा ।
धौणी कुलायूं तुम गंटी हावा ॥
मैकू लगीचा खुद मैतुड़ा ।
बाबाजि को देश देखण देवा ॥

    हे ऊँची पर्वत शृंखलाओं ! तनिक! तो झूल जावो वो देवदार व चीड़ की घनी द्रम लताओं. मुझ पर कृपा करके
छंट जावो. मुझे मायके की खुद लगी है. थोड़ा वावा के देश को निहारने दो. खुद की करुणामयी चादर ओढ़े वह आँसुओं को छलकाती हुई वावली जो जाती है. काश ! उसकी माँ होती तो उसे अवश्य मायके बुलाती- जोकी

 जोकि बोई होली बै मैतड़ा बुलाली
 मैतु ऐसे होली वै दीदि भूलि गौकी ।\
मेरी जिकुड़ी मां ब्वे  कुबड़ी सी लीकी । 

    जिस भाग्यवतियों की माँ होगी उन्हें मायके बुलायेगी. इस ऋतु में तो गाँव की सभी बहिने मायके आ गई होंगी,
किन्तु मुझ अभागन का क्या ? मेरे दिल पर तो सावन का कोहरा उमड़-झुमड़ कर छा रहा है,

देबरी लला फूल हथ निल्यला
या फूल मैके दिल है प्यारा
बाबू काय में दिया-बिचारा,
ईजा का महान छन संस्कारा ।। देव ॥

    हे देवरजी ! वालों में गूँये जाने वाले धागों के इस गजरे को हाथों में मत लो. ये गजरा मुझे बहुत प्रिय लगता है. मेरे
माँ-बाप ने इसमें विचार और संस्कार भरा है.

संस्कार
    उत्तराखण्ड के समस्त अंचल में एक ही संस्कृति, सभ्यता व धार्मिकता प्रचलित है, खान-पान, रहन सहन एक ही प्रकार के पाये जाते हैं, यहाँ के धर्म का स्वरूप लोगों में प्रचलित सामान्य विश्वास, दार्शनिक विचारधारा, साहित्य, संगीत आदि लोकगीतों में निहित है. विभिन्न प्रकार की पूजा, देवी- देवताओं की आराधना, ग्रत, त्यौहार, उत्सव, मेलों में यहाँ की वास्तविक झाँकी देखने को मिलती है. सांस्कृतिक गीतों में संसार की असारता, आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध, जीव और शरीर का सम्बन्ध, जीवन में आध्यात्मिक भावना का महत्व, धर्म, नीति तथा सदाचार की भावना, नैतिक आदर्शों की मान्यता तथा जनजीवन की ओर अग्रसर होकर लोक कल्याण और मानवता की अलौकिक भावना विद्यमान है. उत्तराखण्ड के संस्कार व त्योहार वेदों की परम्परा पर चले आ रहे हैं. यहाँ पर 16 संस्कार व चालीस त्योहारों का प्रचलन है.
मनुष्य-जीवन के सोलह संस्कार इस प्रकार हैं-

1. गर्भाधान संस्कार
संतान प्राप्ति के हेतु रजोदर्शन के पश्चात् देवपूजन करके समय निर्धारित कर सहवास किया जाता था, किन्तु
अब प्रथम रजोदर्शन के बाद गणेश पूजन होता है. यही अव इसका रूपान्तर है.

2. सीमन्तोन्नयन संस्कार
चौथे माह से आठवें महीने के बीच में पति पीछे से पत्नी के गले में उटुम्बर (सादकामोर) की टहनी बाँधता है
और पहले दर्भ के अंकुरों और बाद में वीरतर की लकड़ी के टुकड़े से वाल वाहता है. इसका उद्देश्य है कि पत्नी उर्वरा हो और वालक वीर हो.

3. पुंसवन संस्कार
यह संस्कार गर्भ के तीसरे माह में होता है, ताकि पुत्र उत्पन्न हो.

4. जातकर्म संस्कार
जन्म के समय पिता वालक पर तीन बार सांस छोड़ता है और सोने के बर्तन या चम्मच से शहद, दही और मक्खन
उसकी जीभ पर लगाता है.

5. पष्ठी महोत्सव
यह उत्सव अपनी श्रद्धानुसार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस अवसर पर भोज दिया जाता है. वालक को
विशेष रस्म के साथ दूध पिलाया जाता है. षष्ठी का दूध बालक के लिए पौष्टिक एवं वलवर्द्धक माना जाता है.

6. नामकरण संस्कार
जन्म के ग्यारहवें दिन गणेश पूजा से प्रारम्भ करके पूजा-पाठ द्वारा किया जाता है और लग्न के अनुसार वालक
के पाँच नाम और वालिका के तीन नाम रखे जाते हैं, याह संस्कार श्रद्धानुसार वड़े धूमधाम से मनाया जाता है. वालक
को वस्तु, खिलौने, गहने भेंट किए जाते हैं और उसके चिराय होने की कामना की जाती है. इष्ट-मित्रों, वन्धु-वान्धवों को भोज दिया जाता है.

7. अन्नप्राशन संस्कार
वालक को पाँचवें और वालिका को छठे महीने में 36 प्रकार के नाना प्रकार के व्यंजनों को चाँदी के चम्मच से
वहनों के द्वारा खिलाया जाता है. वालक वालिका के सम्मुख भिन्न-भिन्न वस्तुएँ, पुस्तक, ग्रंथ, हथियार इत्यादि रखे जाते हैं. जिस वस्तु पर शिशु का पहले हाथ पड़ता है उससे उसके भविष्य की विद्वता का अनुमान लगाया जाता है.

8. जन्मोत्सब संस्कार
वालक के लग्न के अनुसार जन्मोत्सव मनाया जाता है. मार्कण्डेय ऋषि का जप 108 वार किया जाता है. दूध तिल
माँ अपने बच्चे को पाँच वार पिलाती है.

9. कर्ण वेध
बालक के कान और वालिका के कान और नाक दोनों सोने या चाँदी की वालियों से छेदे जाते हैं.

10. चूड़ाकर्म संस्कार (मुण्डन)
बालों को विशेष विधि एवं मंत्रोच्चारण के साथ काटा जाता है. यह संस्कार भी धूमधाम से किया जाता है.

11. विद्यारम्भ संस्कार
वालक व बालिका को तख्ती पर अक्षर ज्ञान कराया जाता है, सरस्वती की पूजा की जाती है, सरस्वती मनस्तुभ्यं
करके कामरूपिणी, अभेद वालक को विद्वान् होने का आशी- र्वाद दिया जाता है.

12. यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार है.

मानव संस्कारों में यह संस्कार सर्वोत्तम माना जाता। पहले दिन वेदी वनाई जाती है और गृह यज्ञ किया जाता
दूसरे दिन जनेऊ पहनाया जाता है और गायत्री मंत्र दिया जाता है. उसे मृग छाला, कमण्डल व धर्म-पुस्तकें देकर वढु बनाया जाता है. विद्वान् वनने के लिए काशी भेजा जाता था. कुछ दिन वाद दीक्षा ग्रहण कर और शिक्षाविद् बनकर वह वापस जाता है, गुरु की ओर से दोनों समय सायं व प्रातःकाल गायत्री मंत्र जप करने की प्रेरणा दी जाती है.

13. पाणिग्रहण संस्कार (विवाह)
यह संस्कार मानव के दाम्पत्य जीवन के गठबन्धन का श्रीगणेश माना जाता है. उत्तराखण्ड में विवाह को बहुत वड़ा
महत्व दिया जाता है. बालिका का पिता ब्रह्म विवाह की रीति से कन्यादान करता है जो हिन्दू विवाह में सर्वश्रेष्ठ विवाह
माना जाता है. अग्नि के समक्ष वधू को वर की जीवन संगिनी के रूप में अंगीकृत किया जाता है. ध्रुवतारा दिखाया
जाता है और नवदम्पत्ति की वैवाहिक जीवन की ध्रुवतारे के समान अटल व प्रकाशमयता की कामना की जाती है.

14. दीक्षा संस्कार
वैदिक मंत्रों की दीक्षा लेकर वेद के उपासना काण्ड में शास्त्रीय विधि से प्रवृत्त करने का यह प्राचीन संस्कार है,
किन्तु अब कुछ ही लोग सूर्यग्रहण के दिन योग्य पंडित से मंत्र, दीक्षा लेकर गुरु बनाते हैं, स्त्रियाँ जप करती हैं.

15. महाव्रत संस्कार
गृहस्थ आश्रम को त्यागकर वान-प्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने का प्राचीन नियम था. अब यह भी समाप्त-सा है.

16. अन्त्येष्टि संस्कार
यह संस्कार संसार सागर से तरने के लिए किया जाता है. शव को श्मशान भूमि में पहुँचाकर उसकी अन्त्येष्टि क्रिया
की जाती है. 12वें दिन 'पीपल पानी' संस्कार सम्पन्न होता है और भोज प्रवन्ध किया जाता है. पीपल के वृक्ष या टहनी को जमीन में गाड़कर सभी लोग लोटे से उसमें जल डालते हैं और मृतक की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं.
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