उत्तराखंड की ऐतिहासिक विभूतियाँ एवं विविध गतिविधियों से जुडे शिखर पुरुष एवं महिलाएं |
अमोघभूति
यह कुणिन्द वंश का शासक था. इस शासक की अनेक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं. ज्वालामुखी के समीप एक खेत में यवन सम्राट अपालोडोटस की तीस मुद्राओं के साथ अमोघभूति की मुद्राओं का वृहद् कोष मिलने के आधार पर कनिंघम ने इसकी तिथि 150 ई. पू. स्वीकार किया है. मुद्राओं के मिलने के आधार पर इस सम्भावना की पुष्टि होती है कि यवन सम्राट अपालोडोटस की मृत्यु के तुरन्त वाद अमोघभूति ने अपने साम्राज्य की स्थापना की.
शिवदत्त
शिव भवानी
देहरादून जिले के अम्बरी ग्राम में एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें राजा शिव भवानी के एक अश्वमेध यज्ञ करने का विवरण है. अभिलेख की लिपि के आधार पर इस नरेश को तीसरी शताब्दी में स्थापित किया जाता है.
शील वर्मन
कालसी में सम्राट अशोक द्वारा स्थापित चट्टान के ठीक सामने यमुना बायें तट पर जगतग्राम नामक स्थान पर जो गरुण आकार की वेदिका थी. उसकी ईंटों पर कुछ अभिलेख मिले हैं जिनसे पता चलता है कि वार्षगण्यगोत में उत्पन्न शील वर्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए. उसके छठे पूर्व पुरुष का नाम पोण था तथा उसकी राजधानी युगशैल थी.
निम्बर (निम्बर्तदेव)
यह कत्यूरी शासक था. ताम्र शासन से विदित होता है कि निम्बर ने भगवान शिव के शत्रु तिमिर को हटाकर अपनी मुजाओं के बल से राज्य प्राप्त किया था. उसको विवरणों में शत्रुहन्ता और युद्ध विशेषज्ञ कहा गया है.
इष्टगणदेव
निम्बर के बाद सम्भवतः 810 ई. में उसका पुत्र इष्टगणदेव राजा हुआ. ललितशूर के ताम्र शासन से विदित होता है कि उसने अपनी उज्ज्वल कृपाण द्वारा मत्त हस्तियों का मस्तक विदीर्ण करके अपनी यश पताका फहराई थी. सम्भवतः कत्यूरी वंश का यह प्रथम नरेश था जिसने कार्तिकेयपुर के ध्वज के अन्तर्गत समस्त उत्तराखण्ड को एक- सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया. वह शैव शासक था. जागेश्वर में नवदुर्गा, मिषामर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज के मन्दिर का निर्माण सम्भवतः उसी ने करवाया था.
ललितशूर देव (835 ई.)
ललितशूर देव अपने पिता और प्रपिता की भाँति एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था. ताम्रपत्रों में उसे कलिकलंक- पंक में मग्न धरती के उद्धार के लिए वराहावतार के समान बताया गया है. उसकी तुलना कीर्तिवीज, पृथु और गोपाल से की गई है. ललितशूर शैव था, परन्तु वैष्णव धर्म का भी आदर करता था. वैष्णव मंदिर को दान देने के विवरण मिलते हैं.
भूदेव (875 ई.)
ललितशूर के पश्चात् उसका पुत्र सम्भवतः 875 में राजा बना. शिलालेख में उसे राजाओं का राजा कहा गया है. बागेश्वर शिलालेख से विदित होता है उनके सुवर्ण वर्ण चरणों में प्रणत राजसमूह के मुकुटों की मणियों के शब्दों से बहुधा उनके श्रवण पीड़ित रहते हैं. उनके महान अस्त्र ने अंधकार को ध्वस्त कर दिया. शिलालेखों में उसे परम ब्राह्मण भक्त तथा शुद्ध श्रवण रिपु कहा गया है, जिससे विदित होता है कि उसने बीद्ध धर्म का सर्वथा विरोध किया था. उसने सम्भवतः वैजनाथ मंदिर के निर्माण में भी सहयोग दिया.
सलोणादित्य
ताम्र शासनों से विदित होता है कि इस नवीन शाखा का संस्थापक सलोणादित्य था. ताम्र शासकों में अपनी भुजाओंकी शक्ति से शत्रु व्यूह को नष्ट करने वाला वताया गया है. यह शैव धर्म का अनुयायी था तथा नन्दा देवी की पूजा करता था.
देशटदेव
देशटदेव 930 ई. में राजा बना. ताम्रपत्र में उसे शत्रुओं के समस्त कुचक्रों को नष्ट करने वाला कहा गया है. सम्भवतः देशटदेव ने उत्तर भारत की अस्थिर राजनीतिक अवस्था का लाभ उठाकर प्रतिहार शासक महीपाल के विरुद्ध अभियान किया था, परन्तु महीपाल के सामंत शासक हर्ष ने उसे विफल कर दिया. वह शैव शासक था तथा व्राह्मणों का अत्यधिक आदर करता था. उसने चारों दिशाओं के श्रेष्ठ ब्राह्मणों को स्वर्ण दान दिया था.
जियारानी
पदमटदेव
देशटदेव के पश्चात् उसका पुत्र पद्मदेव 954 ई. के लगभग शासक वना. अभिलेख से विदित होता है पदमटदेव ने अपने वाहुवल से समस्त दिशाओं को जीतकर अपने चरणों में नत करवाया था. वहाँ के शासक उसे अश्व, हस्तियों तथा हीरों आदि का उपहार देकर उसकी इन्द्र की भाँति पूजा करते थे. उत्तराखण्ड के कुछ शासित शासकों ने विद्रोह किया की उसने कुचलकर नतमस्तक किया. वह शिव का उपासक था तथा वहुत वड़ा दानी था. इस राजा ने जोशीमठ, नाला, वेहट (नारायण कोटि) तथा वैजनाथ (अल्मोड़ा) में मंदिरों का निर्माण करवाया था.
सुभिक्षराजदेव
सुमिक्षराजदेव कत्यूरी वंश का अन्तिम महत्वपूर्ण सम्राट् था. उसने 10वीं शताब्दी के अन्त तक शासन किया. उसने कत्यूरी शक्ति को सुरक्षित रखने में पूरी सफलता प्राप्त की. वह वैष्णव धर्म का संरक्षक था.
सोमचंद
अजेपाल
बलभद्रपाल
यह भी पवार वंश का शासक था. उसने अपनी वंशावली पाल से 'साह' कर दिया जो वलभद्रसाह और वहादुरसाह के नाम से विख्यात हुआ. सम्भवतः वह अपने वंश का प्रथम राजा था जो दिल्ली के मुसलमान शासकों के सम्पर्क में आया. उसके विषय में कहा जाता है कि उसने वहुमूल्य मानोपाथि तथा 'बहादुरसाह' की उपाधि तत्कालीन वहलोल लोदी शासक (1451-1488 ई.) से मित्रता की यादगार के रूप में प्राप्त की थी.
सुदर्शनशाह
यह प्रयुम्नशाह का पुत्र था. इसके राज्य में चमोली, गढ़वाल और देहरादून जनपद था. उसकी राजधानी टिहरी थी. 1824 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उसे सनद प्रदान की. सनद की श्तों के अनुसार टिहरी गढ़वाल के राजा को अंग्रेजों द्वारा सहायता मँगे जाने पर उसे करना अनिवार्य था. सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के समय राजा ने सेना और धन सम्पत्ति देकर अंग्रेजों की सहायता की और अपने 200 सैनिक राजापुर की पहाड़ी पर इस संग्राम के अन्त तक तैयार रखे थे. कहा जाता है कि वह कुशल प्रशासक, संस्कृत काव्यज्ञाता और कवि भी था. विद्वान्,
प्रतापसाह
प्रतापसाह भवानीसाह का पुत्र था. उसने टिहरी के सभीप की पहाड़ी के सर्वोच्च स्थान पर प्रतापनगर नामक नगर वनवाया. अपने लोगों को शिक्षा की सुविधा देने के लिए एक टिहरी में एक विद्यालय की स्थापना की जिसे आजकल प्रताप इण्टरमीडिएट कॉलेज के नाम से जाना जाता है. वह संगीत प्रेमी था. उसे शिकार में भी वड़ी रुचि थी. उसने अपना वन, न्यायिक एवं पुलिस प्रशासन को भी सुधारने का प्रयत्न किया.
कीर्तिसाह
नरेन्द्रसाह
नरेन्द्रशाह ने अपने पिता कीर्तिसाह की मृत्यु (1913 ई.) के पश्चात् टिहरी गढ़वाल का नरेश हुआ. उसने अपने पिता की भाँति राज्य प्रशासन में रुचि दिखाई. उसने नरेन्द्र नगर नामक नए नगर की स्थापना की जहाँ अपने राज्य की राजधानी को स्थानान्तरित किया. कीर्तिनगर से टिहरी जाने वाली सड़क बनवाई. सन् 1918 में उसने 'नरेन्द्र हिन्दू लॉ" नामक ग्रंथ में राज्य के कानूनों को संकलित करवाया. सन् 1924 में सम्पूर्ण भूमि के राजस्व सम्वन्धी उत्तराधिकार और 1927-28 में वन सम्बन्धी उत्तराधिकार के लेखपत्र और शर्ते बनवाई. इसके काल में खाई धंडक नामक विद्रोह हुआ जो वन से सम्बन्धित था.
श्रीदेव सुमन
उत्तराखण्ड के अमर सपूत श्रीदेव सुमन का जन्म टिहरी गढ़वाल जनपद की पट्टी वमूण्ड के ग्राम जौल में 12 मई, 1915 को हुआ था. इनके पिता श्री हरिराम बडीनी एक समाज सेवक तथा लोकप्रिय वैद्य थे. इनकी माँ दृढ़ निश्चयी तथा साध्वी महिला थीं. अच्छे संस्कारों के कारण इनके अन्दर बलिदानी भावना, ओजस्वी स्वर तथा दुढ़ निश्चय करने की अद्भुत क्षमता थी. श्रीदेव सुमन ने 1931 में टिहरी से मिडिल परीक्षा पास करके देहरादून आए. देहरादून में उस समय नमक आन्दोलन चल रहा था. सुमनजी आन्दोलन से अछूते नहीं रह सके तथा नमक सत्याग्रह में कूद पड़े. नमक आन्दोलन में इनको 14 दिन की जेल की सजा हुई. पत्रकारिता के प्रति समर्पित श्रीदेव सुमनजी का साहित्य से विशेष लगाव था. देहरान निवास के समय वच्चों के लिए हिन्दी पत्रबोध बाल पत्रिका प्रकाशित की. इसी प्रकार दिल्ली निवास के समय युवक-युवतियों के मन साहित्य के प्रति रुचि पैदा करने के उद्देश्य से ' सुमन-सौरभ' नाम से कविता संग्रह प्रकाशित किया. पत्रकारिता के क्षेत्र में हिन्दू' साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन किया. इसके अलावा जगत्गुरु शंकराचार्य के अंग्रेजी साप्ताहिक 'धर्मराज' में भी कार्य किया. हिन्दी दिल्ली में कुछ मित्रों के सहयोग से 'देवनागरी महा- विद्यालय' की स्थापना की, जिससे इनका सम्पर्क भारतीय नेताओं तथा साहित्यकारों से हुआ. इसके अलावा दिल्ली में इन्होंने 'गढ़ देश सेवा संघ' की स्थापना की, जो बाद में हिमालय सेवा संघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ. इलाहाबाद में राष्ट्रमत' में सहकारी सम्पादक का कार्य किया. इस प्रकार सुमन का प्रारम्भिक जीवन वैविध्यपूर्ण और साहित्य के प्रति अनुरागपूर्ण था.
1939 में इस राज्य के (टिहरी गढ़वाल) राजा के निरंकुश शासन से मुक्ति दिलाने के लिए देहरादून में 'प्रजामण्डल' नामक संस्था की स्थापना हुई जिसमें श्रीदेव सुमन ने अग्रणी भूमिका अदा की. श्रीदेव सुमन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी सम्बद्ध थे. जवाहरलाल नेहरू से इनका विशेष सम्पर्क था .
1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन में श्रीदेव सुमन को देवप्रयाग में कैद कर लिया गया तथा टेहरी जेल में बंद कर दिया गया. जेल में अमानवीय व्यवहार के कारण उन्हें 3 मई,1944 को भूख हड़ताल करनी पड़ी जिसके कारण श्रीदेव न्यूमोनिया से पीड़ित हो गये तथा परलोक सिधार गये. मृत्यु की सूचना इनके सगे सम्बन्धियों को नहीं दी गई तथा शव को भागीरथी नदी में गुप्त रूप से डूबो दिया गया. 1 अगस्त,1949 को टिहरी राज्य का विलिनीकरण होने के साथ ही श्रीदेव सुमन व उनकी पत्नी का विनय लक्ष्मी का सपना पूरा हुआ. उनका त्याग व साहस उत्तराखण्ड के इतिहास में सदैव पूजनीय एवं अविस्मरणीय रहेगा.
पं. गोविन्द बल्लभ पंत
भारतरत्न गोविन्द बल्लभ पंत का जन्म 10 सितम्बर,1887 ई. को अल्मोड़ा के ग्राम खूँट में हुआ था. इनके पिता श्री मनोरथ पंतजी थे. प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा के रामजे कॉलेज में हुई. 1909 में कानून की शिक्षा प्राप्त कर अल्मोड़ा आए और वकालत प्रारम्भ कर दी, लेकिन एक वर्ष पश्चात् ही वे अल्मोड़ा छोड़कर काशीपुर चले गए और वहाँ स्थायी रूप से वकालत करने लगे. सन् 1914 में उन्होंने काशीपुर में 'प्रेमसभा' की स्थापना की. यह सभा काशी नगरी प्रचारिणी सभा की शाखा के रूप में स्थापित की गई. सन् 1914 में पंतजी ने काशीपुर में उदयराज हाईस्कूल की स्थापना की. 1916 में पंतजी के प्रयत्नों से आर्थिक व शिक्षा सम्बन्धी सुधारों के लिए 'कुमाऊँ परिषद्' की स्थापना की गई. पंतजी रचनात्मक कार्यों में बढ़चढ़कर भाग लेते थे. सन् 1918 में काशीपुर में एक खद्दर आश्रम तथा विधवा आश्रम खुलवाया. सन् 1920 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन में भाग लिया. 1916 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गए. सन् 1923 में स्वराज्य पार्टी के टिकट पर नैनीताल जनपद से संयुक्त प्रान्त की विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए. गोविन्द बल्लभ पंत जवाहरलाल नेहरू के घनिष्ठ सहयोगी और विश्वसनीय सलाहकार थे. पहली बार 17 जुलाई, 1937 को संयुक्त प्रान्त के प्रधानमंत्री चुने गए फिर 1 अप्रैल,1946 को उसी प्रान्त के मुख्यमंत्री बने. पंतजी ने कभी सत्ता के लिए आदर्शों से समझीता नहीं किया. संयुक्त प्रान्त के प्रधानमंत्री के रूप में क्रान्तिकारियों की रिहायी के मुद्दे पर प्रान्त के गवर्नर हेग से मतभेद होने पर उन्होंने 15 फरवरी,1938 को उसके पास पूरे मन्त्रिमण्डल का इस्तीफा भेज दिया. मजबूर होकर हेग को उनके साथ संयुक्त वयान देकर क्रान्तिकारियों को रिहा करना पड़ा गोविन्द बल्लभ पंत उत्तराखण्ड के जाने-माने अधिवक्ता थे. 1916 ई. में इन्होंने 'कुमाऊँ परिषद्' की स्थापना की. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य उत्तराखण्ड के लोगों की आर्थिक, सामाजिक और सुरकारी समस्याओं का समाधान करना था. 1920 में काशीपुर में हुए कुमाऊँ परिषद् की अध्यक्षता की जिसमें कुली उतार समाप्त करने हेतु सत्याग्रह करने का प्रस्ताव पारित हुआ. 1924 ई. में गोविन्द बल्लम पंत प्रान्तीय लेजिलेटिव कांउसिल के सदस्य वने. महात्मा गांधी द्वारा 1930 ई. में सविनय अवहञा आन्दोलन चलाने के दौरान गोविन्द वल्लभ पंत ने उत्तराखण्ड में (नैनीताल और हल्द्वानी मुख्य केन्द्र थे) नेतृत्व किया. इस आन्दोलन में पंत को 6 माह के कारावास की सजा मिली. भारत सरकार अधिनियम,1935 के अनुसार प्रांतों में लोकप्रिय सरकारें वनाई गई तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने गोविन्द वल्लभ पंत के नेतृत्व में सरकार का गठन किया. गांधीजी द्वारा चलाये जा रहे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेकर अपने को गिरफ्तार कराया और 25 नवम्बर,1940 को एक वर्ष का कठोर कारावास की सजा मिली. भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ होने से पूर्व ही 8 अगस्त को बम्बई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैटक में भाग ले रहे थे तो उन्हें गिरफ्तार किया गया. पं. गोविन्द बल्लभ पंत को उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री वनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पण्डित पंत 1 दिसम्बर, 1954 को केन्द्रीय मन्त्रमण्डल में शामिल हुए और 10 जनवरी, 1955 को उन्होंने देश के गृहमंत्री के रूप में कार्यभार सँभाला. अण्डमान निकोवार द्वीप समूह को पूर्वी पाकिस्तान को देने की गवर्नर जनरल लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना को विफल करना पण्डत पंत की एक और ऐतिहासिक उपलब्धि थी. पण्डितजी ने इस द्वीप समूह के सामरिक महत्व को समझते हुए अपने अधिकारों का प्रयोग कर उसे भारत में मिलाया. उत्तर प्रदेश के इतिहास में पाँच वर्षों का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र और प्रथम मुख्यमंत्री श्री पंत ने अपने राजनैतिक जीवन के शुरू से ही समाज के निचले और गरीब तबके को दीर्घकालिक भलाई के लिए सोचना शुरू कर दिया था. उन्होंने 31 अगस्त,1919 को नैनीताल जिले के रामगढ़ में आयोजित एक समारोह में क्षेत्रीय किसानों को रामगढ़ को फलपट्टी बनाने का सुझाव दिया था. उन्हीं की प्रेरणा के कारण रामगढ़ क्षेत्र आज भी उत्तराखण्ड में फलों, साग और सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र है. उनकी लम्बी सेवा और उत्कृष्ट राजनीतिक उपलब्धियों को देखते हुए 26 जनवरी,1957 को भारत सरकार ने उन्हें 'भारतरत्न' की उपाधि से अलंकृत किया. पण्डितजी ने नायक जाति के उत्थान के लिए विशेष कोशिशें कीं. उन्होंने नायक कन्याओं को समाज की अन्य लड़कियों की तरह शिक्षित कराने के बाद उनका विवाह करने की परम्परा डाली और वेश्यावृत्ति के उन्मूलन के लिए कार्य किए. हिन्दू समाज के कथित अछूत वर्ग के प्रति अपने प्रेम और स्नेह से उनके धर्मान्तरण को रोका था.
बदीदत्त पाण्डेय
कुर्माचल केसरी बद्रीदत्त पाण्डेय का जन्म 15 फरवरी,1882 को कनखल हरिद्वार में हुआ था. इनके पिता विनायक पाण्डेय एक धार्मिक विचार के सात्विक पुरुष थे और कनखल में वैद्य थे. जब वदीदत्त पाण्डेय सात वर्ष के थे तभी माता पिता दोनों का स्वर्गवास हो गया. इनका पालन पोपण बड़े भाई हरिदत्त ने बहुत अधिक प्रेम व सहृदयता के साथ किया. बड़े भाई हरिदत्त की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण इन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी और सन् 1920 में सरगुजा राज्य (छोटा नागपुर) में महाराजा के अस्थायी व्यक्तिगत सचिव नियुक्त हुए. सन् 1903 में ये पुनः वापस आ गए और इसी वर्ष इनका विवाह अन्नपूर्णा देवी से हुआ. सन् 1905 में देहरादून के मिलिट्री वर्कशॉप में नौकरी प्राप्त की, परन्तु सन् 1908 में इस नीकरी से भी त्यागपत्र दे दिया और इलाहाबाद से निकलने वाले दैनिक समाचार-पत्र 'लीडर' के सहायक व्यवस्थापक एवं सहायक सम्पादक नियुक्त हुए. सन् 1910 में इलाहाबाद से देहरादून आकर देहरादून से प्रकाशित होने वाले 'कास्मोपोलिटन' अखवार में कार्य करने लगे और सन् 1913 तक इसी पत्रिका के सम्पादक रहे. सन् 1913 में बद्रीदत्त पाण्डेय 'अल्मोड़ा अखबार' के सम्पादक नियुक्त हुए. सन् 1918 में अल्मोड़ा अखबार के बन्द हो जाने पर विजयदशमी के दिन 'शक्ति साप्ताहिक नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया. वद्रीदत्त पाण्डेय सन् 1918_26 तक इस पत्र के सम्पादक रहे, इस पत्र के माध्यम से देश प्रेम और अंग्रेजों के अत्याचारों का वर्णन, समाज में व्याप्त बुराइयों पर कुठाराघात एवं कटाक्ष किया जाता था. सन् 1916 में कुमाऊँ परिषद् की स्थापना हुई जिसका मुख्य उद्देश्य कुमाऊँ के तीनों जिलों अल्मोड़ा, नैनीताल, ब्रिटिश गढ़वाल में राजनैतिक, सामाजिक तथा शिक्षा सम्बन्धी प्रश्नों को हल करना था. सन् 1920 में कुमाऊँ परिषद् का ऐतिहासिक अधिवेशन काशीपुर में हुआ. इस अधिवेशन में कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश न देने का प्रस्ताव पास हुआ और इन प्रथाओं की समाप्ति हेतु जनवरी 1921 में बागेश्वर के मकर संक्रान्ति मेले में घोषणा की गई. वद्रीदत्त पाण्डेय ने मेले में उपस्थित 40 हजार लोगों को सम्बोधित किया और डिप्टी कमीश्नर डायबिल को चुनौती दी. अन्ततः उनके प्रयासों से कुमाऊँ एवं ब्रिटिश गढ़वाल से इन सारी कुप्रयाओं का अन्त हुआ. आन्दोलन के उत्साहपूर्ण एवं सफल नेतृत्व के लिए बद्रीदत्त पाण्डेय को 'कूर्माचल केसरी' की पदवी से विभूषित किया गया तथा दो स्वर्ण पदकों से पुरस्कृत किया गया. बद्ीदत्त पाण्डेय भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सक्रिय नेता होने के कारण पाँच बार जेल गए और कई बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, प्रदेश कांग्रेस कमेटी सदस्य रहे. सन् 1926 में उत्तर प्रदेश कौसिल के सदस्य निर्वाचित हुए. सन् 1937 में केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य बने. सन् 1955 में भारतीय लोक सभा के सदस्य चुने गए. बद्ीदत्त पाण्डेय ने कुमाऊँ परिषद् के गठन में अग्रणी भूमिका निभाई. सन् 1923 में टनकपुर (वर्तमान चम्पावत जिला) में कुमाऊँ परिषद् का वार्षिक अधिवेशन इन्हीं की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें निर्णय लिया गया कि इस संस्था को कांग्रेस में मिला दिया जाए. महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया. बद्ीदत्त पाण्डेय अपनी वृद्धावस्था तक स्वावलम्बी रहे. उनका जीवन सात्विक एवं संयमी था. 13 फरवरी,1965 को इस महान् स्वतन्त्रता सेनानी का स्वर्गवास हो गया. उत्तराखण्ड की जनता शताब्दियों तक याद करती रहेगी.
नरेन्द्रदत्त साकलानी
स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नरेन्द्र साकलानी ने कूड़ाकोट (परगना कीर्तिनगर) के निवासियों का नेतृत्व किया. इन्होंने बेगार, नजराना, वन सम्बन्धी कानूनों एवं दमनपूर्ण व्यवहारों के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट किया. इसके कारण इनको जेल की सजा काटनी पड़ी (टिहरी में) सकलानी ने आलू बिक्री में राज्य के एकाधिकार के विरुद्ध भी विद्रोह किया. उन्होंने एक 'आजाद पंचायत' की भी स्थापना की. आन्दोलन के दौरान साकलानी शहीद हो गए.
चन्द्रसिंह गढ़बाली
उत्तराखण्ड के वीर सपूत व अमर शहीद चन्द्रसिंह गढ़वाली का जन्म पौड़ी गढ़वाल के ग्राम मासौ (तहसील थलीसैण) में 24 सितम्बर,1891 में हुआ था. इनके पिता श्री जथलीसिंह एक साधारण कृषक थे. चन्द्रसिंह पारिवारिक समस्याओं के कारण उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके. उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव के पास में ही अर्जित की. ब्रिटिशकाल में सेना में भर्ती हुए गढ़वालियों के ठाठवाट देखकर चन्द्रसिंह सेना की ओर आकर्षित हुए. फलस्वरूप 3 सितम्बर,1914 को घर भागकर 11 सितम्बर को लैंसडाउन छावनी में 2/39 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए. अगस् 1915 में चन्द्रसिंह प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से लड़ने के लिए अपने साथियों के साथ फ्रांस पहुँचे. दो माह तक लड़ाई में भाग लेने के पश्चात् अक्टूबर 1915 में चन्द्रसिंह भारत आए. सन् 1917 में मेसोपोटामिया में अंग्रेजों की ओर से पुनः लड़ने गए तथा बाद में सकुशल भारत लौट आए. सन् 1920 में गढ़वाल में अकाल पड़ा. इसी समय कई पल्टनें तोड़ी गईं और गढ़वाली सैनिकों को पल्टन से निकाल दिया गया. ओहदेदारों को सिपाही बना दिया गया. चन्द्रसिंह भी इससे अछूते नहीं रहे. उनको भी हवलदार से सिपाही वना दिया गया. सन् 1921 से 1923 तक चन्द्रसिंह पश्चिमोत्तर सीमान्त में रहे, जहाँ अंग्रेजों तथा पठानों के मध्य युद्ध चल रहा था. सन् 1929 में महात्मा गांधी का कुमाऊँ में आगमन हुआ. चन्द्रसिंह उन दिनों छुट्टी पर थे. वह गांधीजी से मिलने वागेश्वर गए और गांधीजी के हाथ से टोपी लेकर पहनी तथा टोपी की कीमत चुकाने का प्रण किया. सन् 1930 में पूरे भारत में महात्मा गांधी द्वारा नमक सत्याग्रह चलाया गया. उस समय चन्द्रसिंह 2/18 गढ़वाल राइफल्स में हवलदार थे. इस रेजीमेंट की बदली पेशावर में कर दी गई. पेशावर पहुँचने पर चन्द्रसिंह ने अपना सम्पर्क राजनैतिक घटनाओं से स्यापित किया. राजनैतिक घटनाओं से चन्द्रसिंह बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने अपने मित्रों के साथ एकान्त में वैठकें करनी प्रारम्भ कर दीं. उत्तराखण्ड के यशस्वी इस वीर सपूत ने 23 अप्रैल,1930 जिस सैनिक क्रान्ति का सूत्रपात किया वह पेशावर काण्ड आजादी के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है चन्द्रसिंह की अपील पर 18वीं गढ़वाल राइफल्स ने पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया. चन्द्रसिंह के सभी साथियों को बन्दी बना दिया गया. 12 जून, 1930 की रात को चन्द्रसिंह को 'एवंटबाट' जेल भेज दिया गया. वहाँ जेल में असह्य, कटोर यातनाएँ दी गई. सन् 1942 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई के लिए युवकों को प्रशिक्षण व नेतृत्व करते रहे. 6 अक्टूबर, 1942 को फिर जेल गए और 1945 में ही जेल से छोड़ा गया. चन्द्रसिंह पर कम्युनिस्ट विचारधारा का व्यापक प्रभाव था. सन् 1946 से ही टिहरी रियासत के विरुद्ध जनआन्दोलन फैल चुका था. सन् 1948 में नरेन्द्र साकलानी के शहीद हो जाने के पश्चात् उन्होंने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व किया. सन् 1951-52 में चन्द्रसिंह पीड़ी चमोली निर्वाचन क्षेत्र से कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े, लेकिन गढ़वाली जनता के कांग्रेस समर्थक होने के कारण वे चुनाव नहीं जीत सके. चन्द्रसिंह गढ़वाली में एक सेनानायक के गुण कूटकूट कर भरे थे. सुभाषचन्द्र बोस ने उन्हीं की प्रेरणा से तीन हजार गढ़वाली सिपाही और गढ़वाली अफसरों के साथ आजाद हिन्द फौज का निर्माण किया. आज सम्पूर्ण उत्तराखण्डवासियों को इस वीर सपूत पर नाज है. असीम देशभक्ति की भावना से ओत-पोत यह हिमालय पुत्र 1979 में पंचतत्व में विलीन हो गया.
हर्पदेव ओली
काली कुमाऊँ के शेर हर्ष देव ओली का जन्म लोहाघाट से 14 किमी दूरी पर स्थित गाँव गोशनी में पण्डित कृष्णानन्द ओली के घर 3 मार्च,1890 में हुआ था. इनकी शिक्षादीक्षा ग्राम के प्राइमरी व मिडिल स्कूल से हुई. स्वामी विवेकानन्द द्वारा मायावती आश्रम के स्थापना के वाद हर्षदेव आश्रम में अध्ययन के लिए चले गए तथा अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया.1905 में बंगाल विभाजन के वाद हर्षदेव कॉलेज छोड़कर राष्ट्रीय आन्दोलन में सम्मिलित हो गए. मोतीलाल द्वारा 'इण्डिपेण्डेण्ट' पत्र 5 फरवरी,1919 को निकाला गया जिसमें उपसम्पादक के रूप में हर्षदेव नियुक्त हुए.
1922 में कुमाऊँ में कुली बेगार आन्दोलन में भाग लिया. 1923 में नामा स्टेट से लौटने के पश्चात् हर्षदेव ने जंगलात आन्दोलन में भाग लिया. 1923 से 1940 तक हर्षदेव कुमाऊँ के सभी आन्दोलन से जुड़े रहे. हर्षजी ने 1923 से 1930 तक गाँव_गाँव जाकर स्वदेशी का प्रचार किया. 1930 के नमक सत्याग्रह का नेतृत्व काली कुमाऊँ में हर्षदेवजी ने किया. ओलीजी को अनेक वार जेल की यात्राएँ करनी पड़ीं.
बीरांगना कर्णावती
मुगल सेना के छक्के छुड़ा देने वाली वीरांगना कर्णावती का विवाह गढ़वाल राज्य के राजकुमार महीपतिशाह के साथ हुआ. महीपतिशाह अपनी पराक्रम गाथाओं के कारण बाद में महाराजा गर्वभंजन महीपतिशाह के नाम से विख्यात हुए. जुलाई 1631 में अल्मोड़ा के युद्ध में महीपतिशाह की के मृत्यु पश्चात् उनके पुत्र युवराज सात वर्षीय पृथ्वीपतिशाह का राजतिलक किया गया, लेकिन उनके वयस्क होने तक सारा राज्य का दायित्व माता कर्णावती ने सँभाला. राज्य का दायित्व अपने कंधों पर लेने के उपरान्त शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुदृढ़ किया, अपने राज्य में रास्ता सुगम बनाने के लिए सड़कें बनवाई तथा खेतों की उन्नति के लिए पानी का समुचित प्रबन्ध किया, गढ़वाल के प्राचीन ग्रन्थों एवं गीतों में कण्णावती की प्रशस्ति में उनकी निर्माण की हुई बावलियों, तालाबों तथा पीने के लिए कुओं का वर्णन किया गया है. निर्माण कार्यों के अतिरिक्त राजमाता ने गढ़वाली सेना को भी पुनर्गठित तया सुसंगठित किया. मुख्य सेनाध्यक्ष श्री माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में सेना को सुव्ययस्थित करने में इन्हें अच्छी सफलता मिली. राजमाता ने विद्रोहियों तथा आतताइयों को कठौर दण्ड देना शुरू किया तथा अपनी आज्ञा का उल्लंपन करने वालों की नाक कटवा देने की प्रथा बनी, इसी कारण से वे 'नाक काटने वाली रानी' के नाम से विख्यात हो गई. गनी कर्णावती के शासनकाल के समय दिल्ली तख्त पर मगल सम्राट् शाहजहाँ आसीन थे. जब तक महाराज सरीपतिशाह पदासीन थे, तब तक मुगल आक्रमण करने के नय में सोचते नहीं थे, लेकिन कर्णावती के शासनकाल में मन्होंने आक्रमण कर राज्य को हस्तगत करने का प्रयास करने तगे. रानी ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए तथा सम्पूर्ण दून धाटी को गढ़वाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया तथा गढ़वाल राज्य की विजय पताका फहरा दी. राजमाता कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रूप में 1640 ई. तक शासनारूढ़ रहने के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन शासन के परामर्शदात्री के रूप में कार्य करती रही.
अनूपसिंह तड़ागी
कुमाऊँ के यशस्वी वीर अनूपसिंह तड़ागी ने रुहेलो के साथ संघर्ष में रुहेलों के दाँत खट्टे कर दिए. उन्होंने कुमाऊँ की संस्कृति, परम्परा कला एवं धार्मिक विश्वासों की रक्षा के साथ-साथ बाह्य आक्रान्ताओं से लोक-जीवन की शताब्दियों से आस्था के प्रतीक देवालयों धार्मिक स्थानों की रक्षा में अपना सर्वस्व लुटा दिया. इसके बदले में कुमाऊँ के राजा ने तराई में गाँव दिए.
डॉ. शिवानन्द नौटियाल
डॉ. शिवानन्द नौटियाल का जन्म 18 जून,1936 को ग्राम कोटला जिला पौड़ी गढ़वाल में हुआ था. डॉ. शिवानन्दजी हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक समाज सुधारक एवं कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में विख्यात हैं. शिक्षा, साहित्य एवं राजनीति का संगम ही उनका जीवन है.1967 से नौटियालजी ने सक्रिय राजनीति में भाग लिया और 1969 में गढ़वाल क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुए.1974 के निर्वाचनों में भी विजयी हुए तथा 1979 में उत्तर प्रदेश के शिक्षा एवं पर्वतीय विकास मंत्री के पद को सुशोभित किया. नौटियालजी के मन्त्रित्वकाल में शिक्षा की उन्नति हुई तथा अनेक विद्यालय तथा कॉलेज खुले. डॉ. शिवानन्दजी कुशल राजनीतिज्ञ के साथ साथ औजस्वी वक्ता तथा सफल साहित्यकार भी हैं. 'गढ़वाल के लाकनृत्य गीत' उनका शोध प्रबन्ध है. इस शोधग्रन्थ में गढ़वाली लोक साहित्य के सभी रूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है. गढ़वाली लोकमानस, गढ़वाल के नृत्य, गढ़वाल के लोकगीत, गढ़याल के खुदेड़ गीत, गढ़वाल के नृत्य गीत, ना की लोककथाएँ, कुमाऊँ दर्शन बदरी केदार की ओर नौटियालजी की श्रेष्ठ शोधात्मक रचनाएँ हैं. डॉ. शिवानन्द को उनकी साहित्यिक अभिरुचियों के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी नामित पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. डॉ. नौटियालजी उत्तराखण्ड में अविस्मरणीय रहेंगे.
क्रान्तिवीर कालू मेहरा ( 1831 1906)कालू मेहरा का जन्म ठाकुर रतिभान सिंह के यहाँ 183। ई. में हुआ था. चन्द राजाओं द्वारा नरसंहार के पश्चात् कुटीलगढ़ (यही एक गाँव में जहाँ मेहरा का जन्म हुआ) के निवासियों ने अपना परम्परागत व्यवसाय छोड़कर व्यापार को आजीविका वना लिया. ठाकुर रतिभान सिंह का तिब्वत के साथ अच्छा व्यापार था. कालू मेहरा वचपन से अक्खड़ व दबंग थे. घुड़सवारी उनका प्रिय शौक था. स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया. वद्रीदत्त पाण्डेय ने इन्हें 52 जिलों में घुमाकर सजा देने की वात कही है.
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