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Uttarakhand - Industrial and Agricultural Economy (उत्तराखंड - औद्योगिक एवं कृषि अर्थव्यवस्था)



औद्योगिक अर्थव्यवस्था
यद्यपि इस प्रदेश में औद्योगिक विकास अभी अधिक नहीं हो पाया है, लेकिन फिर भी यहाँ पर औद्योगिक विकास
के लिए अनेक अनुकूल परिस्थितियाँ पाई जाती हैं. यह प्रदेश जलशक्ति संसाधनों में अत्यन्त धनी है. इसके साथ-साथ यह वन, पशुपालन, कृषि, फलोत्पादन तथा कुछ खनिजों के उत्पादन के लिए विशेष स्थान रखता है, जिनसे उद्योगों के विकास के लिए यहाँ सबसे अधिक अनुकूल परिस्थिति मिलती है. इन सभी प्रकार के उद्योगों के विकास में चार प्रमुख  प्रमुख रुकावटें हैं, एक यातायात साधनो का अभाव, दूसरे  खनिज पदार्थों का अभाव, तीसरे स्थानीय मान का कम होना और चौथे स्थानीय पूँजी व तकनीक का अभाव.

                यहाँ के प्रमुख खनिज चूना पत्थर व तॉबा हैं. चूना पत्थर देहरादून व नैनीताल जिलों में पाया जाता है. देहरादूनमें इसका प्रयोग सीमेण्ट बनाने तथा चूना तैयार करने में किया जाता है. गढ़वाल, अल्मोड़ा जिलों में ताँवा प्राप्त होता है. जलविद्युत के यहाँ भारी भण्डार हैं. एक अनुमान के अनुसार यहाँ लगभग 25 हजार से 30 हजार मेगावाट विद्युत उत्पादित की जाती है. यहाँ पर ऐसे अनगिनत स्थल, नदिया व श्रोतों  के निकट स्थित हैं, जहाँ से 4 से 10 लाख किलोवाट उत्पादनक्षमता के विद्युत गृह स्थापित किए जा सकते हैं, यमुना  गंगा, काली नदियों पर अनेक स्थानों पर जलविद्युत गृह स्थापित किए गए हैं. शारदा जलविद्युत योजना पर अल्मोड़ा, नैनीताल व भुवाली प्रमुख विद्युत गृह हैं. यमुना नदी पर डाक पत्थर पर वड़ा जल-विद्युत गृह बनाया गया है. यहीं से नहर निकलकर ढालीपुर व ढकरानी में जल-विद्युत गृह बनाए गए हैं. टिहरी में भागीरथी पर एशिया का विशाल विधुत  गृह निर्मित
किया गया है. रामगंगा पर कालागढ़ स्थान पर महत्वपूर्ण विद्युत गृह है. गंगा नदी पर भी अनेक स्थानों पर जलविद्युत गृह्ठ स्थापित किए गए हैं.

     
                            इस प्रदेश में लकड़ी काटने व चीरने का उद्योग अनेक स्थानों पर पाया जाता है. कागज उद्योग का विकास नैनीताल जिले में किया जा रहा है. चीनी उद्योग यहाँ का प्रमुख कृषि निर्भर उद्योग है. देहरादून और नैनीताल जिलों में चीनी बनाने के कारखाने केन्द्रित हैं. वीरभद्र में एण्टीवायोटिक दवाइयाँ बनाने का बहुत वड़ा कारखाना है. देहरादून अनेक उद्योगों का केन्द्र है. यहाँ पर वन अनुसन्धान प्रशिक्षण महाविद्यालय, तेल एवं गैस कमीशन स्थित हैं. प्रदेश के कुटीर उद्योगों में ऊन बुनने, टोकरी बनाने, रस्सी बुनने, चमड़े का काम, शराब बनाने, आटा व मैदा तैयार करने तथा पशुपालन का कार्य महत्वपूर्ण है. पर्यटन उद्योग का यहाँ बड़ा महत्व है. धार्मिकनगरों व स्वास्थ्यवर्धक नगरों की यहाँ अधिक संख्या पाई जाती है. उत्तराखण्ड के प्रमुख उद्योगों का विवरण इस प्रकार है-





सूती वस्त्र उद्योग
ऊधरमरसिंह नगर में स्थित काशीपुर में बहुत पहले सूती मिल की स्थापना हुई. इस समय कृषि पर आधारित उद्योगों  में यह सबसे महत्वपूर्ण उद्योग है. देहरादून में सूती वस्त्रोद्योग के कई कारखाने हैं.

    ऊनी वस्त्र उद्योग
वकरी व भेड़पालन और इनसे प्राप्त ऊन से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करना उत्तराखण्ड के समस्त
जिलों में यहाँ के लोगों का पारम्परिक व्यवसाय रहा है. ऊन  की बढ़ती माँग को देखकर पशुपालन विभाग ने भी पिछले वर्षों में भेड़ पालन पर काफी जोर दिया है. उनकी मात्रा बढ़ाने व इसकी गुणवता सुधारने के न्यूजीलैण्ड व आस्ट्रेलिया से अच्छे नस्ल की भेड़ें खरीदकर भेड़ पालकों को बाँटी गई है. यह उद्योग कुटीर उद्योग के रूप में सभी जनपदों में संचालित हैं, किन्तु विशेषरूप से यह उद्योग बागेश्वर एवंअल्मोड़ा जिलों में संचालित है.

    चीनी उद्योग 
उत्तराखण्ड में कुल 10 चीनी मिलें हैं. जिनमें से 6 सहकारी क्षेत्र तथा 4 निजी क्षेत्र की चीनी मिलें हैं. यह चीनी मिलें नैनीताल, किच्छा, काशीपुर (ऊधरमसिंह नगर) हरिद्वार व देहरादून में स्थित है. सम्भवतः उत्तराखण्ड की पहली शुगर फैक्ट्री एल. एच. शुगर फैक्ट्री लि. जिसकी स्थापना सन् 1937 में लगभग 40 लाख रुपए की पूँजी लगाकर की गई. वाजपुर सहकारी शुगर फैक्ट्री, वाजपुर की स्थापना 1948 में लगभग एक करोड़ पूँजी लगाकर की गई. जसपुर में भी सहकारी चीनी मिल है.

    सीमेंट उद्योग
उत्तराखण्ड में चूना की बहुतायत है. इसलिए सीमेंट उद्योग आसानी से स्थापित हो गया. प्रमुख रूप से सीमेंट फैक्ट्रियाँ हैं स्टेडिया केमिकल्स लिमिटेड, करषिकेश, कुअनवाला सीमेंट फैक्ट्री गुनियाल गाँव (राजपुर), रानी पोखरी सीमेंट फैक्ट्री.

    बन पर आधारित उद्योग
उत्तराखण्ड में हल्द्वानी, हरिद्वार, नैनीताल, रामनगर, लालकुओँ, सितारगंज, टनकपुर, काशीपुर और जसपुर में स्यापित पंजीकृत इकाइयाँ लकड़ी की मेज-कुर्सियाँ, दरवाजे और खिड़कियों के ढाँच (फ्रेम) चारपाई थँधाई हेतु डिब्बे, खेल का सामान दियासलाई की डिब्बी लकड़ी के पीपे और लकड़ी के अन्य सामानों का निर्माण करती है. टनकपुर, देहरादून  हरिद्वार में लकड़ी व लकड़ी के फर्नीचर एवं बेंत का कार्य वृहदरूप से होता है.

    रसायन पर आधारित उदयोग
उत्तराखण्ड के अनेक स्थानों पर पंजीकृत औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित हैं. इनमें हल्दावानी, काशीपुर, वाजपुर और रुद्रपुर इकाइयों द्वारा रंग, वार्निश, (रोगन) गंधराल, गंधक की गडुडी, सांश्लेषिक प्रक्षालक धुलाई का साबुन, जस्ता, सल्फेट वीव्रोन में थल क्राइटल तेल इत्यादि का उत्पादन किया जाता है.


    प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उद्योग
उत्तराखण्ड में लगभग 2000 से अधिक प्रकार की जड़ी- वृटियाँ पाई जाती हैं जिनकी कीमत लगभग 500 करोड़ रुपए आँकी गई है. उत्तराखण्ड में जड़ी-बूटियों पर आधारित उधोग के विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं. इसलिए सरकार ने जड़ी बूटियों के संरक्षण संवर्द्धन, प्रसंस्करण एवं विपणन पर विशेष बल दिया है.

    औषधि निर्माण उद्योग
देहरादून के समीप वीरभद्र नामक स्थान पर इण्डिवन ड्रग्स एण्ड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड नाम से औषधि निर्माण का कारखाना है. हल्द्वानी में कत्था फैक्ट्री है, इसके अलावा देहरादून, ऋषिकेश हरिद्वार और नैनीताल में औषधि निर्माण केन्द्र हैं.


    विद्युत  एवं इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग
देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल एवं कोटद्वार में स्थापित हैं.

अन्य महत्वपूर्ण उद्योग
रानीबाग में (नैनीताल) एच. एम. टी. (HMT) का कारखाना स्थापित है. भारत सरकार का संस्थान भारत हैवी
इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड हरिद्वार में स्थापित है.
             मुक्तेश्वर (नैनीताल) में भारतीय पशु अनुसंधान संस्थान, पटवाडागर (नैनीताल) में, बेंवसीन फैक्ट्री भीमताल (नैनीताल) में, इलेक्ट्रॉनिक और टेलीफोन फैक्ट्री, रामगढ़ ( नैनीताल) में फल संरक्षण केन्द्र, झीरोली (अल्मोड़ा) तथा चडांक (पियौरागढ़) में मैग्नेसाइट फैक्ट्री आदि प्रमुख औद्योगिक इकाइयों हैं.

        ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग
ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग भारत के विकास एवं समृद्धि की रीढ़ रहा है. भारत का कुटीर उद्योग पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था. उत्तराखण्ड की समृतद्धि एवं विकास भी ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग पर बहुत कुछ निर्भर है. उत्तराखण्ड में लघु एवं कुटीर उद्योगों का अपना एक विशिष्ट स्थान है तथा यहाँ की अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका है. यहाँ कुटीर उद्योगों के विकास की अपार सम्भावनाएँ हैं, लेकिन परिवहन प्रौद्योगिकी व प्रशिक्षण आदि की बाधाएँ भी हैं. ग्रामीण एवं कुटीर उद्योगों में दाल और धान की छिलाई, चप्पल का निर्माण दियासलाई की डिर्वी बनाना, गुड़ एवं खाण्डसारी, साबुन, मिट्टी के वर्तन, कुम्हारी वस्तुएँ, वान और सुतली, लकड़ी का साज-सज्जा, चूना, नीरा गुड़ और मधु इत्यादि हैं.

    दाल और धान की छिलाई
उत्तराखण्ड के कई स्थानों पर दाल और धान की छिलाई का कार्य किया जाता है. इनमें अधिकांश इकाइयाँ
हल्द्वानी, नैनीताल, काशीपुर, ऊधरमसिंह नगर, चम्पावत, देहरादून में अवस्थित हैं.

    जूता-चप्पल का निर्माण
जूता-चप्पल और सम्बद्ध वस्तुओं का निर्माण कार्य चिर- काल से चला आ रहा है. यह पारम्परिक कृुशलता व कारीगरी पर आधारित कार्य है. देशी जूतों का निर्माण स्थानीय चमड़ों एवं खालों से किया जाता है. इनमें अधिकांश कार्य नैनीताल, हल्द्वानी, काशीपुर में किया जाता है.

    दियासलाई उद्योग
वन की लकड़ी की उपलब्धता के कारण उत्तराखण्ड के अनेक स्थानों पर दियासलाई उद्योग पनपा है. यह उद्योग
नैनीताल, ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार, देहरादून, अल्मोड़ा आदि जनपदों में क्रियाशील है.

    गुड़ और खाण्डसारी
यह उद्योग नैनीताल, ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार, देहरादून आदि जिलों में स्थापित है.

    ऊनी शाल एवं अन्य वस्त्रोद्योग 
उत्तराखण्ड में ऊन बुनने कातने तथा ऊनी सामान वनाने के लिए नौ प्रशिक्षण एवं उत्पादन केन्द्र वागेश्वर. अल्मोड़ा, भीमताल, देवगढ़ (पौड़ी) छम्मा (टिहरी) छाम (टिहरी) प्रेमनगर (देहरादून) भुद्रतल्ला (चमोली) तथा
पिथौरागढ़ नामक स्थानों पर खोले गए हैं. इसके अलावा 100 कताई केन्द्र चौरा, तारीखे व हरोली (अल्मोड़ा) पौड़ी (गढ़वाल) तथा जीहदपुर में स्थापित हैं. ऊरनी शालों का निर्माण पौड़ी तथा अल्मोड़ा में किया जाता है.

    रेशम उद्योग
रेशम के कीड़े पालने के लिए शहतूत के वृक्षों को लगाने का कार्य देहरादून, पौड़ी, गढ़वाल जिलों में किया गया है. रेशम सहकारी संघ, प्रेमनगर (देहरादून) में कीड़ों के पालने तथा कोकून उत्पन्न करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. इस उद्योग को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्रों तथा सहकारी समितियों की स्थापना की गई है.

    मधुमक्खी पालन
उत्तराखण्ड में अनेक स्थानों पर मधुमक्खी पालन का कार्य किया जाता है. राज्य सरकार ने 1938 में ज्योली कोर
में मधुमक्खी पालन केन्द्र की स्थापना की. वर्ष 1939 में प्रवासी मधुमक्खी पालन का प्रशिक्षण दिया गया और वर्ष
1955 में मधुमक्खी शिशु पालन की स्थापना ज्योली कोट और रामनगर में की गई. इस उद्योग में 24 पंजीकृत औद्योगिक इकाइयाँ मुख्यतः भोवाली और हल्द्वानी में स्थित हैं.

    कृषि आधारित उद्योग
उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक फल और सब्जियोँ लगभग पूरे साल उगाने के लिए उपयुक्त भौगोलिक स्थिति और जलवायु विद्यमान है. उत्तराखण्ड की जलवायु एक हजार से तीन हजार मीटर ऊँचाई क्षेत्र में शीतोरष्ण फल, सेव, आूं,खुमानी, चेरी, अखरोट, अनार, माल्टा के उत्पादन के अनुकूल है, आम, लीची, केला, अमरूद, पपीता, रसभरी आदि फलों की पैदावार के लिए तीन सौ से चार सौ मीटर ऊँचाई वाले कषेत्र अनुकूल है. उत्तराखण्ड क्षेत्र में 663 हजार हेक्टेयर जमीन कुल खेती करने में उपयोग हो रही है, जिसमें से 179 हजार
हेक्टेयर भूमि (27 प्रतिशत) का उपयोग फलों और 84 हजार हेक्टेयर भूमि (13 प्रतिशत) सब्जियों के उत्पादन में प्रयोग होती है. प्रतिवर्ष 0-88 प्रतिशत फलों के उत्पादन में और 1-68 प्रतिशत सब्जियों के उत्पादन में भूमि के उपयोग पर वृद्धि हो रही है.

    प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उद्योग
एक अध्ययन के अनुसार यहाँ लगभग 500 प्रकार की जड़ी-बृटियाँ पाई जाती हैं, जिनकी कीमत लगभग 500 करोड़ रुपए आकी गई है जिसके दोहन करने के साथ-साथ उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है. कई मध्य व उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में  टिंगाल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार के बर्तनों, चटाइयों व साज-सैया की वस्तुएँ बनाने में  किया जाता है. इनके अलावा विभिन्न क्षेत्रों में रेशे वाले पेड़  व कई छोटे छोटे जंगली पेड़ काफी मात्रा में पाए जाते हैं,  जिनका दोहन भी किया जा सकता है.

    जलविदुयुत
प्रचुर मात्रा में जल प्राप्ति उत्तराखण्ड को एक महत्वपूर्ण वरदान है. कई महत्वपूर्ण वड़ी नदियोँं हिमालय में बने
ग्लेशियरों से निकलकर इस क्षेत्र में वहती हैं. यहाँ वर्तमान में लगभग 4613 मेगावाट विद्युत का उत्पादन हो रहा है.

    कृषि अर्थव्यवस्था
इस प्रदेश का 64-79 प्रतिशत भू-भाग वनों से तथा लगभग 16:5 प्रतिशत भू-भाग पर बर्फ से ढका है. चरागाह,
बाग व झाड़ियाँ कुल भूमि के 7-60 भू-भाग को घेरे हुए हैं. ऊसर व खेती अयोग्य भूमि का विस्तार 4-46 प्रतिशत भूमि पर है. कृषि के अतिरिक्त अन्य उपयोग में लाई गई कुल भूमि का 2-04 प्रतिशत है. पर्वतीय प्रदेश में कृषि भूमि का विस्तार कुल भूमि के 13-51 प्रतिशत भू-भाग पर है. यदि कृषि योग्य बेकार भूमि को भी कृषि के अन्तर्गत ले आया जाए, तो कृषि भूमि का क्षेत्रफल कुल भूमि का 20-07 प्रतिशत हो जाएगा. यहाँ पर गढ़वाल हिमालय की अपेक्षा  कुमाऊँ हिमालय में कृषित भूमि का अधिक विस्तार पाया  जाता है. यहाँ पर समय के साथ दोहरी फसल का क्षेत्र बढ़ता  जा रहा है. इस समय 59-65 प्रतिशत कृषित भूमि से वर्ष में  दो फसलें ली जाती हैं.

                    फसल प्रारूप पर दो बातो का प्रभाव पड़ता है. एक तो प्राकृतिक विशेषताओं का; जैसे-धरातल से ऊँचाई, जलवायु  व मिट्टियों की उपजाऊ शक्ति तथा दूसरी ओर आर्थिक व सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रभाव पड़ता है. जिस फसल से अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त होता है, उसका उत्पादन भी  अधिकता से किया जाता है. इस प्रदेश की घाटियों के कृषि  भूमि उपयोग को तीन तरह से रखा जा सकता है-

(i) कातिल या खील भूमि- इस भूमि पर पुराने कृषि यन्त्रों, फावड़ा, कुदाली से कृषि की जाती है. पाँच वर्षों में
तीन फसलें अदल-बदलकर बोई जाती हैं.
(ii) अपरान भूमि-सीढ़ीदार असिंचित भूमि पर की जाने वाली कृषि भूमि इसमें शामिल है. इस पर दो वर्षों में तीन
फसलें प्राप्त की जाती हैं. इन फसलों को अदल-बदलकर बोने के लिए कृषक भूमि को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देते हैं.
(ii) तालान भूमि -यह निम्न भू-भागों पर पाई जाने वाली सिंचित भूमि है. इस पर चावल का उत्पादन किया
जाता है. यहाँ वर्ष में दो फसलें प्राप्त की जाती हैं. 

    प्रमुख फसलें
इस प्रदेश में फसल की गहनता 159-22 प्रतिशत पाई जाती है. सकल कृषि भूमि का 59-90 प्रतिशत, खरीफ 39-92 प्रतिशत, रवी व 0-18 प्रतिशत जायद फसलों के अन्तर्गत वितरित पाया जाता है. सकल कृषित भूमि का केवल 13-5 प्रतिशत भू-भाग सिंचाई की सुविधाएँ रखता है. नहरें सिंचाई का प्रमुख साधन हैं, जो कुल सिंचित भूमि का 57-19 प्रतिशत भाग सींचती हैं, जबकि नलकूप व कुओं द्वारा 22-54 तथा अन्य साधनों द्वारा 20-27 प्रतिशत भूमि सींची जाती है. गढ़वाल हिमालय की अपेक्षा कुमाऊँ हिमालय में सिंचित भूमि का प्रतिशत अधिक पाया जाता है. नैनीताल व देहरादून में तो यह प्रतिशत काफी अधिक क्रमशः 53-7 व 40-4 प्रतिशत मिलता है. चमोली में यह सबसे कम 6-4 प्रतिशत मिलता है.

    गेहूँ
यह सुदसे महत्वपूर्ण फसल है, जो सकल कृषि भूमि के 43 प्रतिशत अर्थात् 4-2 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगाया जाता है. इसका प्रति -हेक्टेयर औसत उत्पादन 1300 किग्रा. पाया जाता है. देहरादून, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा. टिहरी गढ़वाल, गढ़वाल अधिक महत्वपूर्ण है, नैनीताल के अलावा सभी जिलों की प्रथम क्रम की फसल है.

    चावल
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल है.कुमाऊँ मण्डल में इसका महत्व अधिक है. नैनीताल जिले की प्रथम क्रम की फसल है. यहाँ 32:5 प्रतिशत सकल कृषित भूमि पर इसका उत्पादन किया जाता है. अन्य सभी जिलों में यह द्वितीय क्रम की फसल है, जो सकल कृषित भूमि का 33-2 प्रतिशत है. यहाँ पर चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1966 किग्रा है,


    गन्ना
यहाँ की तीसरी महत्वपूर्ण फसल है. देहरादून व नैनीताल जिलों में इसका उत्पादन सबसे अधिक होता है यहाँ पर कुल कृषित भूमि के क्रमशः 74 व 12.2 प्रतिशत भू-भाग पर यह उगाया जाता है. सम्पूर्ण प्रदेश की 104987 हेक्टेयर भूमि पर इसका उत्पादन किया जाता है, जो कुल कृषित भूमि का 625 प्रतिशत है.

    मक्का
तीसरा महत्वपूर्ण खाद्यान्न है. 2011-12 में यह 28.038 हेक्टेयर भूमि पर उगाया जाता है, जो कुल कृषित भूमि का
14-66 प्रतिशत है. देहरादून व पियौरागढ़ जिले महत्वपूर्ण हैं. देहरादून की 13-8 प्रतिशत कृषित भूमि पर मक्का का उत्पादन होता है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1288 किग्रा है. 

    दालें
यहाँ की कृषि में उल्लेखनीय स्थान रखती हैं. रबी मौसम की दालें, खरीफ मौसम की दालों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं. अरहर, मसूर, उड़द, मूँग व मोठ प्रमुख दालें हैं. 2011-12 में दालों का उत्पादन 55.690 हेक्टेयर भूमि पर होता है, जो सकल कृषि क्षेत्र का 815 प्रतिशत है. नैनीताल, देहरादून, उत्तरकाशी व टेहरी गढ़वाल जिले महत्वपूर्ण हैं. जी का उत्पादन यहाँ पर 22,508 हेक्टेयर भूमि पर किया जाता है, जो सकल कृषि क्षेत्र का 12-64 प्रतिशत भू-भाग है. अल्मोड़ा, पियौरागढ़, गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल व चमोली जिलों में यह तृतीय क्रम की फसल है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन 789 किग्रा होता है,

    तिलहन आदि
खरीफ मौसम की महत्वपूर्ण फसल है, जो 27,386 हेक्टेयर भूमि पर उगायी जाती है, जो कुल कृषित भूमि का
3-25 प्रतिशत है. तिल, मूँगफली, सरसों व अलसी प्रमुख तिलहन हैं. उत्तरकाशी व टिहरी गढ़वाल महत्वपूर्ण जिले हैं. नैनीताल, गढ़वाल व चमोली में इसका उत्पादन उल्लेखनीय है. आलू लगभग सभी जिलों में उगाया जाता है, लेकिन अल्मोड़ा व देहरादून जिले अधिक महत्वपूर्ण हैं. यह 7984 हेक्टेयर भूमि अर्थात् 098 प्रतिशत भू -भाग पर उगायी जाती है. नैनीताल व पियौरागढ़ अन्य उल्लेखनीय जिले हैं अन्य प्रमुख फसलों में तम्बाकू, ज्वार, बाजरा, चाव शामिल हैं.

    चाय
नैनीताल, गढ़वाल, अल्मोड़ा एवं देहरादून चाय उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं. चाय उष्ण कटिवन्ध व उप- उष्ण कटिबन्ध के क्षेत्रों में उगाई जाने वाली प्रमुख फसल है.

    नीबू
नैनीताल एवं अल्मोड़ा में नीबू प्रमुख रूप से उगाया जाता है.

    सन्तरा
नैनीताल, अल्मोड़ा एवं देहरादून.

    सेब
नैनीताल एवं अल्मोड़ा.

    लीची
देहरादून.

    कृषि एवं सिंचाई
कृषि के लिए भूमि वहुत सीमित है. यह इस तथ्य से प्रकट होता है कि प्रतिकृषक शुद्ध वोया क्षेत्रफल वर्ष 1995-
96 में मात्र 0-53 है. अधिकांश जोतें (75 प्रतिशत) सीमान्त  कृषकों की हैं. प्रदेश की फसल गहनता वर्ष 1995-96 में 162-80 प्रतिशत थी, जो फसल की सघनता 148-24 प्रतिशत से अधिक है. उत्तराखण्ड में कृषि उत्पादकता कम होने का मुख्य कारण यहाँ सिंचाई सुविधाओं की कमी है जिसके फलस्वरूप रासायनिक खादों का कम प्रयोग होता है. प्रदेश में शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल 5.61,733 हेक्टेयर है. उत्तराखण्ड में फसल चक्र अधिक मूल्य वाली फसलों की ओर वढ़ रहा है. उत्तराखण्ड में अधिक मूल्य वाली फसलों; जैसे-फलोद्यान,पुण्पोद्यान, जड़ी-बूटी, मसाले, बीज तथा बेमीसमी सब्जियों आदि की सम्भावनाएँ अधिक हैं.

    भूमि की उपयोगिता
प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में वर्ष 1995-96 में कुल प्रतिवेदित क्षेत्र 53-62 लाख हेक्टेयर था, जिसमें से बोया गया
वास्तविक क्षेत्रफल केवल 6-66 लाख हेक्टेयर था. वर्ष 2011-12 में वास्तविक सिंचित क्षेत्र 5,54,837 हेक्टेयर था.
औसतन लगभग 12 प्रतिशत क्षेत्र ही कृषि के अन्तर्गत है, इस छोटे से कृषि क्षेत्र के ज्यादातर भाग में सिंचाई
सुविधाओं की उपलब्धता क्षीण है. इन सब सीमाओं के बावजूद भी क्षेत्र के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है तथा
इसका सुदृढ़ीकरण आवश्यक है.

    जोतों का आकार
उत्तराखण्ड प्रदेश में व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है. कृषि योग्य भूमि यहुत सीमित है तथा कुल प्रतिवेदित क्षेत्र का लगभग 12 प्रतिशत है. कृषि कार्यों में ही अधिकतम कर्मकार संलग्न है. खेती की संरचना कठिन है. अतः कृषि कार्यों के परिप्रेक्य में कृषि जोत के आकार एवं स्वरूप की महत्वपूर्ण भूमिका है. इस प्रदेश में लगभग 50 प्रतिशत जोते 0-5 हेक्टेयर से कम होने के कारण उप सीमान्त श्रेणी की हैं एवं 21.44% जोतें 0-5 हेक्टेयर से 1 हेक्टेयर के बीच हैं. इस प्रकार तीन- चौथाई जोतें सीमान्त जोते हैं. सीमान्त जोतों का औसत आकार 0-37 हेक्टेयर है, जोतों की इस सीमान्तता के कारण क्षेत्र में विद्यमान फसल चक्र आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं रह गए हैं. क्षेत्र की विभिन्न आकार की जोतों की स्थिति अग्रवत् हैं-


    कर्मकारों का आर्थिक वर्गीकरण
उत्तराखण्ड प्रदेश की कुल जनसंख्या में से कुल कर्मकारों की जनसंख्या 41-90 प्रतिशत है तथा शेष 58-10 प्रतिशत अकर्मकार हैं. कुल कर्मकारों से 86-75% मुख्य कर्मकार तथा 13-25% सीमान्त कर्मकार हैं, में से 58-13% कृषक, 6-40% कृषि श्रमिक, 0-86% घरेलू उ्योग में कार्यरतू तथा शेष 34-619% अन्य कर्मकार हैं. 

महिलाओं की आर्थिक स्थिति
इस प्रदेश में कुल महिला जनसंख्या का 35-20 प्रतिशत महिला श्रमिक हैं, जोकि राज्य के औसत से अधिक हैं. कुल कर्मकारों का 41-01 प्रतिशत महिला कर्मकार हैं.

पशुपालन
गाय और भैंसें दुग्ध का मुख्य ग्रोत हैं. नर पशुओं को खेत जोतने और माल ढोने के काम में लाया जाता है, कुछ 
को प्रजनन हेतु चुना जाता है. पहाड़ों के पशु मैदानी क्षेत्र के पशुओं से गढ़न में भिन्न होते हैं और विशेषकर आकार में छोटे होते हैं. 'शशक विकास कार्यक्रम' जो उत्तम किस्म का ऊन उपलब्ध कराने में सहयोगी है.
        भेड़ और बकरियाँ मुख्यतः माँस, खाल और ऊन के लिए पाली जाती हैं, यद्यपि उनका दूध भी प्रयोग में लाया जाता है. भोटिया नस्ल की बकरियाँ बलवान और वड़े बालों वाली होती हैं, इन्हें सामान ढोने के लिए भी प्रयोग किया जाता है. पहाड़ का कुत्ता जो भोटिया लोग पालते हैं, शक्ति, वफादारी और चरवाहों के लिए पशुओं की देख-रेख करने की उपयोगिता के लिए प्रसिद्ध है.
        प्रतिव्यक्ति पशुधन तथा दुधारू पशुओं की संख्या उत्तर प्रदेश के औसत की अपेक्षा उत्तराखण्ड में अधिक है. वर्ष 2003 में पशुओं की संख्या 4943329 थी, उत्तराखण्ड में पशुओं का भूमि पर दबाव अधिक है जिसके कारण यहाँ के पशुओं की गुणवत्ता अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है.

 उत्तराखण्ड प्रदेश की खनिज सम्पदा : एक दृष्टि में 

तांबा -प्रदेश का कुमाऊँ क्षेत्र, चमोली (पोखरी एवं धनपुर), नैनीताल, अल्मोड़ा, पौड़ी, गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, पिथीरागढ़.
जिप्सम-गढ़वाल, (खरारी घाटी, खेरा, लक्ष्मण झूला, नरेन्द्र नगिन (मथुधानी क्षेत्र), देहरादून (घरपीला क्षेत्र), नैनीताल, खुरपाताल, मझरिया
फॉस्फोराइट-टिहरी गढ़वाल (रझगेंवा क्षेत्). वैराइटस् एवं एडालूसाइट-देहरादून.
लौह अयस्क-गढ़वाल, अल्मोड़ा, नैनीताल (हेमेटाइट एवं मैग्नेटाइट प्रकार के लौह अयस्क).
एस्बेस्टस-गढ़वाल (उडवी मठ कान्येरा), अल्मोड़ा जिला.
सीसा-कुमाऊँ क्षेत्र (राय धरनपुर, रेल्नम, बेसकन ढसोली, दण्डक), देहरादून जिले में (कुमारवरेला, मुधील), अल्मोड़ा जिले में (बैना पानी और विलीन) टिहरी गढ़वाल.
चाँदी-अल्मोड़ा जिला (अल्पमात्रा),
सेलराड़ी-अल्मोड़ा.
मैग्नेसाइट एवं सोप स्टोन-अल्मोड़ा, पियौरागढ़ चमोली जिले की अलकनन्दा पाटी में.
डोलोमाइट-देहरादून, नैनीताल.
पूना पत्थर-देहरादून, नैनीताल, टिहरी गढ़वाल, पीड़़ी गढ़वाल, पिथीरागढ़,
रॉक फॉल्फेट-देहरादून, मसूरी, टिहरी गड़वाल (पुरमाला,किमोई, मसराना, माल देवता, चमसारी), नैनीताल,
संगमरमर-देहरादून, टिहरी गढ़वाल.
टैल्क -अल्मोड़ा, पिथयौरागढ़.


प्रमुख भू-तत्व/खनिज पदार्थ

अजवररतो
इसे मुदा कपास या पाषाण तत्व भी कहते हैं. यह लोहे के कारखानों की ईंटों आदि को बनाने के लिए बहुत उपयोगी है. यह अधिकतर उखीमठ में पाया जाता है.

अभ्रक
समस्त जिलों में पाया जाता है,

कोयला
पत्थर का कोयला, ढेला, लाल राक, रानी वाग (हल्द्वानी), भीमताल (नैनीताल) के वनों में व चला फिका नदियों के
किनारे मिला है.

गन्धक
इसके बहुत चश्में हैं-मध्य केसर, अलकनन्दा, रहस्यमय धारा (देहरादून) इत्यादि स्थानों में पाए जाते हैं.

चूना पाषाण
नैनीताल जिले में चुनरवाणी (कालाढूँगी) देहरादून, मसूरी के वनों में तथा दावका नदी के पर्वतीय भागों में पाए जाते हैं.

स्लेटी पत्थर
समस्त जिलों में पाया जाता है. इसका उपयोग पहाड़ी मकानों के छतों के बनाने में किया जाता है.

ग्रेफाइट
पट्टी लोहवा, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा व नैनीताल के पर्वतीय भागों में उपलब्ध होता है.

नीलम

यह मिलगेना परगना में पाया जाता है.

फिटकरी
पौड़ी में कारेगाँव, गवाड़स्यू तथा फीका व कोशी नदी के पास तथा नैनीताल जिले में भी पाई जाती है.

विजोता
कच्ये हीरे के टुकड़े बहुत जगह पाए जाते हैं.

शिलाजीत
उत्तराखण्ड के सभी जिलों में शिलाजीत चक्टानों पर पाया जाता है, इसका उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है,



खड़िया मिट्टी
यह संख्त पत्थर गढ़वाल के नन्दप्रयाग क्षेत्र व बागेश्वर में अधिक पाया जाता है. इससे पर्वतीय लोग अपने मकानों
की पुताई करते हैं.

मैग्नेसाइट
यह खनिज अल्मोड़ा के ताकुला क्षेत्र में पाया जाता है. राज्य सरकार का कारखाना, मैग्नेसाइट अल्मोड़ा में खुल
गया है.

धातु तत्व
ताँबा
उत्तराखण्ड में ताँबा का मुख्य भण्डार है. अगरसेरापट्टी, लोहावा, खैरना (मुजाड़), डुँगरा, डंडातात्व, पुंगला, धाला,
धनपुर, झाबेरी, नोता, पोखरी, केसबारा, गंगली, चौबरिया, भवेधान तथा कुबेर चौक इत्यादि स्थानों पर यह मुख्य रूप से पाया जाता है.



पारा
यह हिमालय की पर्वत श्रेणियों पर पाया जाता है.

लोहा
गढ़वाल के इड़ियाकोट, नागपुर दरशौली, गिलेत, चलिया, डंडातोली, जाटव टोली, डुँगरा कोटाबाग, खुरपाताल, रुड़की, नैनीताल इत्यादि स्थानों पर पाया जाता है.

सीसा
दौसा (जौनसार) तछीरा, मैयार, बेरिला, सोरगंगा इत्यादि स्थानों पर सीसा प्रमुख रूप से पाया जाता है.

सोना
नैनीताल के गौला नदी में काफी मात्रा में सोना पाया जाता है. अलकनन्दा, पिडार और सोनगढ़ के अतिरिक्त लक्ष्मण झूला तक गंगा के तटवर्ती क्षेत्र में पाया जाता है.

उद्योग विभाग उत्तराखण्ड
    विभाग की महत्वपूर्ण योजनाएँ एवं उपलब्धियाँ
उत्तराखण्ड राज्य में उद्योग विभाग के अन्तर्गत लपु, पृहद एवं मध्यम उद्योग, खनिज विकास, खादी ग्रामोयोग एवं
राजकीय लीयो प्रेस समन्वित रूप में रखे गये हैं. उद्योग विभाग का प्रमुख कार्य उद्योग सेक्टर में
अधिकाधिक पूँजी निवेश तथा प्रदेश में सतत औद्योगिकीकरण सुनिश्चित एवं प्रोत्साहित करना है ताकि अधिकाधिक लोगों को इस सेक्टर में रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें

    लघु उद्योगों की स्थापना
जिला उद्योग केन्द्रों द्वारा लघु उद्योगों की स्थापना हेतु उदयमियों के अभिप्रेरण, परामर्श एवं मार्गदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न विभागों द्वारा वॉछित स्वीकृतियाँ तथा अनापत्तियाँ समय से प्राप्त करने में सहायता की जाती है. लघु उद्योगों का अस्थायी एवं स्थायी पंजीकरण जिला उद्योग केन्द्रों द्वारा किया जाता है.
        वित्तीय वर्ष 2008-09 तक 34084 लघु उद्योग इकाइयाँ स्थापित की गई हैं, जिसमें 118915 लोगों को रोजगार प्राप्त है.

    खादी ग्रामोयोग बोर्ड

वित्तीय वर्ष 2008-09 तक 727 इकाइयाँ स्थापित की जा चुकी हैं. प्रदेश में खादी वोर्ड द्वारा खादी एवं ग्रामोधोग
आयोग की विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है.
        उत्तराखण्ड राज्य औयोगिक विकास निगम लि. (सिडकुल)-उत्तराखण्ड में 'उत्तरांचल राज्य औद्योगिक विकास ' State Infrastructure and Industrial Development Corporation of Uttaranchal (SIDCUL)  स्थापना की गई है. यह निगम मुख्य रूप से राज्य में औद्योगिक विकास, अवस्थापना विकास एवं औयोगिक वित्त
के लिए कार्य करेगा और उद्योग सम्बन्धी सभी केन्द्रीय व राज्य सरकार के द्वारा सौंपी गई योजनाओं का क्रियान्वयन करेगा. औद्योगिक अवस्यापना हेतु निगम द्वारा सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क, एपेरल,पार्क, जैम पार्क, ग्रोध सेन्टर आदि विकसित करने का प्रस्ताव है. 

    खनिजों का सर्वेक्षण
राज्य में उपलब्ध खनिज सम्पदा राज्प के राजस्व का महत्वपूर्ण ग्रोत है. इसी दृष्टिकोण से राज्य में उपलब्ध
खनिजों का विस्तृत एवं वैज्ञानिक सर्वे किया जा रहा है. प्रथम चरण में माइनर खनिज लिए गए हैं, इस सर्वेक्षण से
राज्य में उपलब्ध खनिज सम्पदा का वैज्ञानिक तरीके से विदोहन किया जा सकेगा, जिससे पर्यावरण को सुरक्षित
रखते हुए खनिजों के माध्यम से अधिकाधिक रेवेन्यू भी प्राप्त किया जा सकेगा.

    राजकीय प्रेस रुड़की
उत्तराखण्ड में राजकीय मुद्रणालय एक मात्र राजकीय प्रेस है, जो राज्य सरकार के विभिन्न प्रकार के प्रपत्र, राज्य
सरकार के बजट, गजट सम्बन्धित प्रपत्रों की छपाई के कार्य कर रहा है. विधान सभा से सम्बन्धित एवं माननीय उच्च न्यायालय के कार्य भी इस प्रेस द्वारा किए जा रहे हैं. राजकीय मुद्रणालय, रुड़की का आधुनिकीकरण किया जा रहा है. साथ ही माननीय उच्च न्यायालय, नैनीताल एवं विधान सभा उत्तराखण्ड देहरादून में भी प्रेस की शाखाएँ खोले जाने का इस वर्ष में प्रस्ताव है.

    लैग्ड  बैंक
राज्य की नई औद्योगिक नीति एवं भारत सरकार से प्राप्त पैकेज की पश्चात् वड़ी संख्या में उद्यमियों द्वारा विभिन्न
क्षेत्रों में पूँजी निवेश आमंत्रित किए जाने हेतु जनपद स्तर पर लैण्ड बैंक की स्थापना जिलाधिकारियों एवं जिला उद्योग केन्द्रों के माध्यम से की जा रही है. इसमें उद्योग विभाग, यू.पी.एस.आई.डी.सी. के औद्योगिक क्षेत्रों में उपलब्ध भूमि के अतिरिक्त अन्य औद्योगिक प्रयोजन हेतु सम्भावित भूमियों के विवरण इकट्ठे किए जा रहे हैं.

    उद्योग मित्र
राज्यस्तरीय उद्योग मित्र की बैठक दिनांक 17-4-2002 को औद्योगिक संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ आयोजित की गई थी. इसमें प्राप्त विभिन्न प्रकरणों पर निरन्तर अनुश्रवण किया जा रहा है. जनपद स्तर पर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में जिला उद्योग मित्र का गठन किया गया है, जो उद्यमियों के समस्त स्थानीय समस्याओं पर चर्चा कर इसका समाधान करता है.

    औद्योगिक मेले, सेमिनार, प्रदर्शनी, प्रचार-प्रसार
औयोगिक इकाइयों, हथकरघा एवं हस्तशिल्पियों को विपणन प्रोत्साहन की दृष्टि से राज्य के विभिन्न जनपदों में
पारम्परिक मेलों के अवसर पर औद्योगिक प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है. इस क्षेत्र में विभाग की महत्वपूर्ण
उपलब्धि इस प्रकार है-
1, राष्ट्रीय स्तर पर प्रगति मैदान, नई दिल्ली में आयो- जित होने वाले 'भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले 2002' में
उत्तराखण्ड पेवेलियन में प्रदेश के उथमियों द्वारा अपने उत्पाद का प्रदर्शन एवं विक्री की गई, इस मेले में उत्तराखण्ड पेवेलियन को द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ.
2. चंडीगढ़ में सी. आई. आई. द्वारा आयोजित एग्रो- टेक में भी उत्तराखण्ड द्वारा भाग लिया गया. इस मेले में
उत्तराखण्ड राज्य के पेवेलियन को प्रथम पुरस्कार 2002 प्राप्त हुआ.
3. दिनांक 9 जनवरी से 1। जनवरी, 2003 को प्रगति मैदान नई दिल्ली में प्रवासीय भारतीय दिवस पर उत्तराखण्ड
जिसमें पर्यटन, सरकार द्वारा अपना स्टाल लगाया गया, उद्योग, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के सम्बन्ध में
जानकारी उपलब्ध कराई गई.
4. 1 फरवरी, 15 फरवरी, 2003 तक आयोजित सूरजकुण्ड क्राफ्ट मेले में उत्तराखण्ड राज्य द्वारा थीम स्टेट के
रूप में भाग लिया गया. इस मेले में प्रदेश के चयनित 80 हस्तशिल्पियों तथा हथकरधा बुनकरों द्वारा अपने उत्पादों का प्रदर्शन/विक्री की गई. मेले में प्रदेश के हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को विशेष सराहना मिली.

    लघु उद्योगों की तृतीय गणना
वर्तमान वर्ष में भारत सरकार द्वारा पंजीकृत लघु औद्योगिक इकाइयों की सम्पूर्ण गणना करायी गयी है. इस
गणना का उद्देश्य लघु औद्योगिक इकाइयों की वर्तमान स्थिति ज्ञात करना रुग्ण इकाइयों की पहचान संख्या ज्ञात करना है. इस गणना में राज्य की 27.415 पंजीकृत इकाइयों की गणना तथा 833 अपंजीकृत इकाइयों का नमूना सर्वेक्षण किया गया. भारत सरकार को गणना से सम्बन्धित समस्त प्रपत्र भेजे जा चुके हैं, जिसके आधार पर गणना की रिपोर्ट भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की जाएगी.

    प्रधानमंत्री रोजगार योजना
शिक्षित वेरोजगार युवाओं को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु भारत सरकार द्वारा प्रधानमंत्री रोजगार
योजना वर्ष 1993-94 से जिला उद्योग केन्द्रों के माध्यम से चलाई जा रही है. इस योजना के अन्तर्गत उद्योग एवं सेवा हेतु राष्ट्रीयकृत बैंकों के माध्यम से 2 लाख रुपए तक तथा व्यवसाय हेतु एक लाख रुपए का कण उपलब्ध कराया जाता है. वर्ष 2008-09 में 7900 लाभार्थियों को लाभान्वित कराने का लक्ष्य रखा गया है, माह फरवरी 2009 तक 5523 लाभार्थियों को इस योजनान्तर्गत ऋण स्वीकृत किया जा चुका है.

    उयोगों हेतु वित्तीय प्रोत्साहन
उद्योगों को वित्तीय प्रोत्साहन दिए जाने हेतु आई. एस. ओ.-9000, पेटेन्ट रजिस्ट्रेशन, प्रदूषण नियंत्रण साधनों के
प्रयोग एवं निर्यात प्रोत्साहन हेतु विभिन्न सहायता योजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं.


    रुग्ण इकाइयों का पुनर्वासन
रुग्ण औद्योगिक इकाइयों की पहचान एवं इनके पुन सुशासन  हेतु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी दिशा निर्देशों के अनुरूप रुग्ण एवं रुग्णामुख इकाइयों के पुनर्वासन हेतु जिला स्तर पर महाप्रवन्धक, जिला उद्योग केन्द्रों की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है, जो रुग्ण इकाइयों के मामले में कार्यवाही करेगी. इसके साथ ही जिलास्तरीय उद्योग मित्र में भी इन प्रकरणों पर विचार कर निर्णय लिए जाने की व्यवस्था की गई है. जनपद स्तर पर निस्तारित न हो सकने वाले मामलों को राज्यस्तरीय अन्तर संस्थागत समिति (स्लिक) के स्तर पर विचार किए जाने की व्यवस्था की गई है.

    उद्यमिता विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम
युवाओं को स्वतः रोजगार हेतु प्रेरित करने एवं विभिन्न उद्यम स्थापित करने के लिए जागरूकता, अभिप्रेरण,
मार्गदर्शन, उद्यम स्थापना एवं उद्यम प्रवन्ध में प्रशिक्षण इस योजना के अन्तर्गत दिया जाता है. इस योजनान्न्तगत कुल रुपया 419 लाख का वजट उपलब्ध हुआ है, जिससे वर्ष 2002-03 में 36 कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं तथा 600 व्यक्तियों को उद्यमिता विकास प्रशिक्षण दिया गया.

    दीनदयाल हथकरघा प्रोत्साहन योजना
हथकरघा सहकारी समितियों के उत्पादों की गुणवत्ता एवं विविधता एवं समुचित विपणन सहायता उपलब्ध कराने
की दृष्टि से भारत सरकार के विकास आयुक्त, हथकरघा द्वारा चलाई जा रही दीनदयाल हथकरघा प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत वर्ष 2001-02 में 14 समितियों के कुल 112:25 लाख रुपए की वित्तीय सहायता विभिन्न मदों में स्वीकृत की गई है, जिसमें से प्रथम किश्त की धनराशि 53-35 लाख संस्थाओं को उपलब्ध करायी जा चुकी है. जिसमें 747 बुनकर लाभान्वित होंगे. वर्तमान वित्तीय वर्ष में 12 समितियों के 165-095 लाख रुपए के प्रस्ताव राज्यस्तरीय समिति द्वारा अनुमोदनोपरान्त भारत सरकार को भेजे गए हैं, इनमें से 8 प्रस्ताव संस्तुत किए जा चुके हैं. इन प्रस्तावों के सापेक्ष 33-99 लाख रुपए की प्रथम किश्त की स्वीकृति जारी की जा चुकी है,

    काशीपुर डिजाइन केन्द्र का आधुनिकीकरण
काशीपुर स्थित डिजाइन सेन्टर का आधुनिकीकरण किया जा रहा है और इस केन्द्र में कम्प्यूटर एडेड डिजाइन की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. केन्द्र द्वारा हथकरघा उद्योग के लिए विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएँगे.

    जड़ी-बूटी राज्य बनाने की दिशा में अग्रसर है उत्तराखण्ड
अगर दुनिया का झुकाव आयुर्वेद की ओर इसी तरह बढ़ता रहा और प्राचीनकाल में क्रषि मुनियों द्वारा किए गए
अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाया जाता रहा, तो उत्तराखण्ड अपनी विलक्षण पादप विविधता के कारण भारत का जड़ी-बूटी राज्य तो बनेगा ही साथ ही यह जीवनदायिनी औषधियों के स्रोत के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और मुद्रा भी अर्जित करेगा.

        भारत विश्व के विशाल जैविक विविधता (मेगा बायो डाइवर्सिटी) वाले 12 देशों में शामिल है और उत्तराखण्ड
जैविक विविधता के लिहाज से सर्वाधिक सम्पन्न चार क्षेत्रों (हाट स्पा्स) में से एक क्षेत्र में स्थित है. जैविक विविधता
में भी जीव विविधता (फोनल डाइवर्सिटी) मुख्यतः पादप या वनस्पति (फ्लोरल डाइवर्सिटी) पर निर्भर करती है, क्योंकि सूक्ष्म या अदृश्य कीटों से लेकर विशाल हाथी तक अधिकतर जीव भोजन के लिए वनस्पति पर निर्भर रहते हैं तथा इन पर ही मांस भक्षी या उभय भकषी जीव निर्भर होते हैं. इसलिए जितने प्रकार के जीव एवं वनस्पतियाँ होंगी उनकी उतनी ही अधिक विशेषताएँ होंगी. इस विलक्षणता को देखते हुए भी मानव के हित में उत्तराखण्ड भविष्य का वैज्ञानिक शोध केन्द्र बनने जा रहा है.

        तराई भवर से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र के शीत मरुस्थल की शुरूआत तक जलवायु, भौगोलिक और मिट्टी आदि की विविधताओं के कारण वनस्पतियों की हजारों प्रजातियाँ उत्तराखण्ड में मौजूद हैं. अकेली फूलों की छोटी सी घाटी में लगभग 521 वनस्पति प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं. ये जितनी तरह की प्रजातियोँ हैं उनके उतनी तरह के महत्व भी हैं. प्रकृति की इस विलक्षण एवं अपार सम्पदा का संरक्षण एवं मानवता के हित में युक्ति संगत दोहन नीति नियंताओं के विचार मंथन का विषय बन गया है.

                        वास्तव में विभिन्न प्रकार की जलवायु में जीवित रहने के लिए प्रकृति अपने पेड़-पौधों को खास किस्म के विभिन्न रसायन उपलब्ध कराती है. वनस्पतियों के यही रसायन औषधीय महत्व के होते हैं. यही रसायन जड़ी-बूटी, छाल, फल एवं फूलों में मिलते हैं. इसके साथ ही मिट्टी के खनिज जब वनस्पतियाँ भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं, तो ये खनिज भी औषधीय महत्व के होते हैं, इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि प्रकृति से बड़ा कोई डॉक्टर नहीं हो सकता है और उस प्रकृति की जड़ी-बूटियों के रूप में अपनी एक प्राकृतिक चिकित्सा व्यवस्था है और भारत में हजारों वर्षों पूर्व इस व्यवस्था की जानकारी त्राषि-मुनियों को थी. भारत में रोग निवारण के लिए पौधों के प्रयोग का  सर्वप्रथम वर्णन क्रग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के पश्चात् चर तथा सुश्रुत के भारतीय वनोपधि पर दो अत्यन्त महत्वपार्ण ग्रन्थ चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में इन जड़ी-बृटियों के वर्णन मिलता है, चरक के समय से लेकर आज तक अनेक आयुर्वेदाचार्यों एवं अनुसंधानकर्ताओं के सहयोग से भारतीय वनोषधियों की संख्या लगातार वढ़ती गई और आज देश में आयुर्वेद के लिए लगभग 2500 से अधिक वनस्पति प्रजातियों का उपयोग हो रहा है. उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली वनस्पतियों का आयुर्वेदिक तथा यूनानी दवाओं के अतिरिक्त सौन्दर्य प्रसाधन, खाद्य रंग, पाचक चूर्ण, केश तेल, धूप. अगरवत्ती एवं टेलकम पॉउडर के निर्माण में प्रयोग किया जाता है, कहा जाता है कि राम के भाई लक्ष्मण को जब शक्ति लगी थी, तो उनकी जान बचाने के लिए सुसैन वैद्य ने इसी क्षेत्र के दूनागिरी पर्वत से संजीवनी बूटी मँगाई थी.

                उत्तराखण्ड में वनस्पतियों के वितरण में ऊँचाई, मिट्टी की मातृ चट्टान एवं सूर्य किरणों के कोण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. समुद्रतल से 2000 मीटर से ऊँचाई वाले छेत्रों  प्रमुख रूप से कुथ, वनककड़ी, महामेंदा, कुटकी, गेंठी, अतीस, गन्द्रायण, जम्बू, सालम पंजा (हाथजड़ी) डोलू. चोख, जटामासी, फरण, अंगूर सेफा, वन तुलसी एवं अम्मी मजस जैसी औषधीय वनस्पतियाँ पाई जाती हैं. समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर की ऊँचाई तक मासी, अम्मी-विस्नागा, कीट पुष्पी, बच सुगनधवाला थुनेर, चिरायता, खुरासानी एवं अजवायन जैसी प्रजातियाँ मिलती हैं. समुद्रतल से 800 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों एवं नदी घाटियों में पीपली, अश्वगन्धा, चन्द्रसूर, मेन्था, जापानी पुदीना, सर्पगन्धा एवं ब्राह्मी आदिऔषधीय प्रजातियाँ पाई जाती हैं.

                जड़ी बूटियों के दोहन का मामला बेहद संवेदनशील भी है, बेतहासा दोहन के कारण कई प्रजातियों विलुप्त होती जा रही हैं, उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक तंत्र में अगर एक वनस्पति प्रजाति लुप्त हो गई है, तो उस पर निर्भर कम-से -कम 15 जीव प्रजातियों की शृंखला प्रभावित हो सकती है जोकि पर्यावरण सन्तुलन के लिए वहुत घातक हो सकता है. यही नहीं एक प्रजाति के लुप्त होने से सदा के लिए एक जीन और उसका खास ज्म पलाज्म भी नष्ट हो सकता है, जाकि मनुष्य के लिए भी बहुत उपयोगी हो सकता है.

            पेड़-पौधों के आनुवंशिकी, पर्यावरणीय एवं औषधीय महत्व को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने सुविचारित काम योजना के तहत जड़ी-बूटी अनुसंधान एवं विकास कार्य को तेज करने तथा वनों से वनस्पतियों का दोहन रोकने के लिए जड़ी-बूटी का कृषिकरण करने की योजना बनाई है सरकार ने गोपेश्वर, मण्डल स्थित जड़ी-बूटी शोध संस्थान को सुदृढ़ कर दिया है तथा आयुर्वेदिक महाविद्यालयों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. जड़ी-वृटियों के कृषिकरण की दिशा में कदम उठाते हुए राज्य सरकार ने कुथ (सौसुरिया लापा) के कृषिकरण की
छूट तथा इसके नि्यात के लाइसेन्स की व्यवस्था कर दी है. यह औषधि दमा, खाँसी, श्वास नली की सूजन, अफरा,
उदरशूल तथा हृदय रोगों के निदान के अलावा एन्टीसेप्टिक के रूप में भी काम आती है.

                    वन विभाग ने जड़ी-बूटी का एक्शन प्लान बनाया है जिसके अन्तर्गत इस वर्ष 358 हेक्टेअर वन क्षेत्र जड़ी-बूटी उगाने के लिए चिह्नित किया गया है. औषधीय पादपों के संरक्षण के लिए राज्य सरकार ने 4.45 करोड़ की योजना शुरू की है. उद्यान विभाग को पुनर्गठित कर इसमें जड़ी-बूटी कार्य भी शामिल किया गया है. राज्य के कुछ सरकारी उद्यानों को जड़ी-बूटियों के कृषिकरण के लिए डावर जैसे प्रतिष्ठित निजी प्रतिष्ठानों को लीज पर देने का निर्णय लिया गया है. 

    उत्तराखण्ड सरकार व भारतीय उद्योग महासंघ की संयुक्त योजना
उत्तराखण्ड सरकार राज्य के समग्र विकास के लिए भारतीय उद्योग महासंघ के साथ संयुक्त रूप से विभिन्न क्षेत्रों
में कार्य करेगी. राज्य का आधारभूत ढाँचा तैयार करने, कृषि वागवानी, जलविद्युत, पर्यटन, वायोटेक्नोलॉजी फॉरेस्ट्री, सूचना प्रौद्योगिकी और उद्योग के क्षेत्र में एक विशेष कार्य योजना तैयार करने के लिए महासंघ और उत्तराखण्ड सरकार के बीच समझीता हुआ.

        बैठक में विभिन्न देशों के राजदूत शामिल हुए. वैठक में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कहा कि इस नए राज्य में विभिन्न सेक्टरों की योजनाओं में व्यापक रूप से पूँजी निवेश की आवश्यकता है. इसके लिए यहाँ प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक सम्भावनाएँ और वातावरण व आधार दोनों ही हैं. मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड के आर्थिक विकास के साथ ही साझा टेक्नोलॉजी पर वल दिया. राज्य में नई औद्योगिक  नीति के मार्फत मध्यमवर्ग के उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए पूँजी निवेश होना चाहिए, जिससे राज्य को भारी लाभ होगा. पर्यटन के क्षेत्र में विभिन्न देश हमारे साझीदार हो सकते हैं. रोप वे बनाने में भी पूँजी निवेश कर सहयोग किया जा सकता है. बैठक में टास्क फोर्स का गठन किया गया, जो राज्य के आर्थिक विकास के लिए कार्ययोजना को अंतिम रूप देगी.


    चाय और लीची को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर परपहुँचाने की योजना
उत्तराखण्ड सरकार ने यहाँ की लीची और चाय को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने की योजना क्रियान्वित की है. इन्हें
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने के लिए विशेष 'ब्राण्ड' तैयार किए जा रहे हैं. उत्तराखण्ड के देहरादून, चकराता, विकास- नगर, चौदडपुर की चाय ने एक जमाने में विदेशों में धाक जमाई थी, लेकिन उत्तर प्रदेश की नीतियों के कारण चाय के बागान उजड़ गए तथा लीचियों के बाग कट गए. बासमती की खेती भी सिकुड़ कर रह गई है. उत्तराखण्ड के गठन के बाद सरकार ने लीची, चाय और वासमती को फिर से स्थापित करने की योजना बनाई है.

            उद्यान सचिव के अनुसार उत्तराखण्ड की चाय पुनः एक बार दुनिया में छा जाएगी. इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्राण्ड तैयार करने के लिए विशेषज्ञों को बुलाया जा रहा है. आई. डी. एफ. सी. ने राज्य के लिए 'एग्रोबिजन 2010' तैयार किया है. चंडीगढ़ में सी. आई. आई. द्वारा आयोजित एग्रोटेक 2002' में उत्तराखण्ड सरकार भी साझीदार है.
उत्तराखण्ड के 'एग्रोबिजनेस सेक्टर' में कई महत्वपूर्ण संस्थान सहयोग के लिए आगे आए हैं. महिन्द्रा शुभ लाभ ने ऊधमसिंह नगर में इस दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया है. आई. टी. सी. एग्रो, आयुर्वेदिक और यूनानी फार्मास्युटिकल्स के साथ वार्ता प्रगति पर चल रही है.