उत्तराखंड की भाषा
उत्तराखण्ड की भाषा हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी है. समय-समय पर विविध सांस्कृतिक धार्मिक, साहित्यिक व राजनैतिक परिस्थितियों ने हिन्दी को एक विशाल भू-प्रदेश में फैलने का अवसर प्रदान किया. डॉ. गिर्यसन के अनुसार "हिन्दी भाषा का क्षेत्र पश्चिम में अम्बाला (पंजाब) से लेकर, पूर्व में बनारस तक
उत्तर में नैनीताल की तलहटी से लेकर दक्षिण में कालाधाट तक विस्तृत है." इस प्रकार हिन्दी भाषा देशव्यापी रही है. हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ हैं. इन उपभाषाओं के अन्तर्गत 18 बोलियों का समुदाय है-
उपभाषाएँ | बोलियाँ |
पूर्वी हिन्दी | अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी |
पश्चिमी हिन्दी | खड़ी बोली, हरियाणवी, वृज, कन्नौजी ,बुन्देली |
राजस्थानी हिन्दी | मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाली, मालवी , |
बिहारी हिन्दी | भोजपुरी, मगधी, मैथिली |
पहाड़ी हिन्दी | कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी |
पहाड़ी हिन्दी
हिन्दी में प्रायः किसी देश-विशेष स्थान विशेष,अथवा प्रान्त विशेष के निवासियों के लिए तथा भाषा या, बोली के साथ उसका सम्बन्ध सूचित करने के लिए सम्बन्धित देश अथवा प्रान्त तथा भाषा या, वोली के साथ 'ई' प्रत्यय जोड़
देने की परम्परा चली आ रही है. यथा-कश्मीर के निवासी तथा कश्मीर की भाषा के लिए कश्मीरी भाषा का प्रयोग
किया जाता है. उसी प्रकार पंजाबी, बंगाली तथा राजस्थानी शब्द बने हैं.
पहाड़ शब्द में 'ई' प्रत्यय जोड़कर पहाड़ी शब्द वनाया गया है जो निवासी व भाषा अर्थ में प्रयोग किया जाता है. कश्मीर की दक्षिणी पूर्वी सीमा पर भद्रवाह से नेपाल के पूर्वी भाग तक बोली जाने वाली भारतीय आर्यभाषा परिवार से सम्बन्धित प्रायः सभी बोलियाँ पहाड़ी उपभाषा के अन्तर्गत आ जाती हैं. पहाड़ी हिन्दी में तीन बोलियों को सम्मिलित किया जाता है-
1. पूर्वी पहाड़ी, 2. मध्य पहाड़ी, 3. पश्चिमी पहाड़ी. पूर्वी पहाड़ी की मुख्य भाषा नेपाली है. इसे गोरखाली नाम से भी जाना जाता है. यह नेपाल की राजभाषा है. इसकी लिपि देवनागरी है.
मध्य पहाड़ी हिन्दी की दो प्रमुख वोलियाँ हैं. कुमाऊँनी और गढ़वाली, सामान्यतः पहाड़ी हिन्दी से अभिप्राय उस
उपवर्ग से लिया जाता है जिसे डॉ. गियर्सन ने मध्य पहाड़ी नाम दिया है. मध्य पहाड़ी की बोलियाँ कुमाऊँनी और गढ़वाली क्रमशः कुमाऊँ और गढ़वाल में बोली जाती हैं. भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं.
पश्चिमी पहाड़ी अनेक बोलियों का समुदाय है. भौगोलिक दृष्टि से पश्चिमी पहाड़ी की मुख्य बोली जौनसारी है. इसका क्षेत्र उत्तर-प्रदेश के जौनसार भावर क्षेत्र से लेकर शिमला, कुल्लू, मनाली, चम्बा तथा कश्मीर के कुछ भागों तक विस्तृत है. जौनसारी के अतिरिक्त सियौरी म्यूँथाली, चम्याली आदि पश्चिमी पहाड़ी की अन्य बोलियाँ हैं. पश्चिमी पहाड़ी, टकरी अथवा तक्करी लिपि में लिखी जाती हैं.
मध्य पहाड़ी
कुमाऊँनी
कुमाऊँ की बोली कुमाऊँनी के नाम से जानी जाती है। कुमाऊँ का सम्बन्ध कूमाँचल या, कू्माचल से है. कुमाऊँ क्षेत्र के अन्तर्गत नैनीताल पिथौरागढ़ तथा अल्मोड़ा जनपद सम्मिलित हैं.
कुमाऊँनी देव नागरी लिपि में लिखी जाती है. कुमाऊँनी बोली व भाषा के जन्म के विषय मतभेद हैं.
वैज्ञानिक इसे दरद-खस प्राकृत से सम्बन्धित मानते हैं तथा अन्य भाषा वैज्ञानिक शोरसैनी अपभ्रंश से इसका उद्भव
स्वीकार करते हैं.
डॉ. केशवदत्त रूवाली के अनुसार-"इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुमाऊँनी पर एक ओर आग्नेय दरद. खस प्राकृत का प्रभाव लक्षित होता है, तो दूसरी ओर उसमें अर्द्ध मागधी की विशेषताएँ भी विद्यमान हैं.
पर भी रूपात्मक गठन की दृष्टि से वर्तमान कुमाऊँनी में सौरसेनी अपभ्रंश के प्रायः सभी भाषिक तत्वों की स्थिति दृष्टिगत होती है."
कुमाऊँनी का विकास
कुमाऊँनी के प्राचीनतम नमूने शक संवत् 1266 अर्थात्चौ दहवीं शती के पूर्वार्द्ध से मिलते हैं, शिलालेखों और
जामपत्रों में उपलब्ध प्राचीन कुमाऊँनी के नमूनों में संस्कृत शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति लक्षित होती है. कुमाऊँनी की
विकास यात्रा को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. आदिकाल (14वीं सदी से 1800 ई.)
2. मध्यकाल (1800 ई. से 1900 ई.)
3. आधुनिक काल (1900 ई. से वर्तमान तक)
आदिकाल
आदिकाल की कुमाऊँनी बोली में संस्कृत शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता था, परन्तु अठाहरवीं शती तक आते-आते संस्कृत निष्ठता के स्थान पर तद्भव शब्दों की ओर झुकाव बढ़ा और कहीं-कहीं अरवी, फारसी के शब्द भी प्रयुक्त होने लगे. शाके 1555 के बाँसगाड़ी विषयक ताम्रपत्र की भाषा इस प्रकार है-श्री महाराजाधिराज "श्री राजा
विमलचन्द्र देव ने यागीश्वर क्षेत्र अद्भ्धादय पर्व संकल्पूर्वक. पादार्थ करी भूमि दीनी-माल परगना बोगसाड़ी माँ मोयेठारज्यू एक नेठनाली बेट वेगार दोपाड़ी पयादो सर्वकर, अकर सर्वद्न्वि शुद्धकारी धुराडौँडा समेत पायो" (डॉ. केशवदत रुवाली कुमाऊँनी हिन्दी व्युत्पत्ति कोष).
मध्यकाल
इस काल में गुमानी पंत जैसे प्रतिष्ठित कवि कुमाऊँनी में काव्य रचना करने लगे थे. सन् 1815 में कुमाऊँ को अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया और इसी भाषा से पत्राचार प्रारम्भ हुआ. अंग्रेजों ने भी इसी बोली को पत्राचार हेतु अपनाया. प्रवाना वाहाली रोज मंदर गोपीचंद देवता शहर अल्मोड़ा का जिले कुमाऊँ का (11) आठ आना रोज गोस्सालि वास्ते पर्च मन्दर के गो्षा के वखत से पाउते रहे हो इसके वास्ते 17 मई को साहबान सदर को लिखा था. आज प्रवानगी ऊन की विच चीटी साहब सकतरी की लिखी हुई 11 जून, 1896 के बिच मुकघ्मे जारी कन रोज तुमारे के आई उसके माफिक तुमको वहाँ से भी प्रवानी बहाली का मिलता है.
(डॉ. केशवदत्त रुवाली : कुमाऊँनी हिन्दी व्युत्पत्ति कोष)
इस काल में गुमानी, कृष्ण पाण्डे, चिन्तामणि जोशी, गंगादत्त उप्रेती, शिवदत्त शरती, ज्वालादत जोशी, लीलाधर जोशी इत्यादि ने कुमाऊँनी बोली में साहित्य लिखकर इस बोली के विकास में सहायता प्रदान की. इस काल की कुमाऊँनी में अरवी, फारसी, अंग्रेजी भाषा के बहुत से शब्दों का प्रयोग होने लगा था.
आधुनिककाल
बीसवीं सदी की कुमाऊँनी पहले की कुमाऊँनी से एकदम अलग हो गयी. 'अल्मोड़ा अखवार' अंचल आदि समाचार- पत्रों के प्रकाशन ने इसके विकास में महत्वपूर्ण सहयोग दिया. हिन्दी की एक उपयोली होने के कारण इसके लिखित स्वरूप एवं वोलचाल में हिन्दी का वहुत प्रभाव पड़ा है. अब तो यह सरल से सरलतम हो गयी है.
कुमाऊँनी की विविध बोलियाँ
लगभग 20,000 वर्ग किलोमीटर में विस्तीर्ण कुमाऊँ क्षेत्र में उच्चारण और भाषिक संरचना की दृष्टि अनेक बोलियाँ अस्तित्व में आ गयी हैं. भौगोलिक दृष्टि से यह क्षेत्र अधिकांशतः पर्वतीय और ऊबड़ खावड़ है पन्द्रह- बीस किलो मीटर की दूरी पर स्थित दो ग्रामों के मध्य भी सम्पर्क नहीं हो पाता. ज्यों-ज्यों यह दूरी बढ़ती जाती है. त्यों त्यों वोली विभेद भी वढ़ता जाता है. आतागमन के साधनों की कमी, शिक्षा व समाचार-पत्रों के प्रचार-प्रसार के कारण भी क्षेत्रीय आधार पर बोलियों में विभेद प्रतीत होता है. कुमाऊँनी भाषी क्षेत्र को भैगोलिक दृष्टि से दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
(क) पश्चिंमी कुमाऊँनी क्षेत्र.
(ख) पूर्वी कुमाऊँनी क्षेत्र.
इस क्षेत्र विशेष के अन्तर्गत आने वाली क्षेत्रीय बोलियाँ इस प्रकार हैं-
(क) पश्चिमी कुमाऊँनी
1. खस पर्जिया, 2. चीगार्खिया, 3. गड़ोई, 4. दनपुरिया, 5. पछाई, 6. रोचोवैसी.
(ख) पूर्वी कुमाऊँनी
1. कुमाई, 2. सौर्याली, 3. सीराली, 4, अस्कोटी.
कुमाऊँनी भाषा की विशेषताएँ
कुमाऊँनी बोली स्वयं में निम्नलिखित विशेषताएँ समाहित किए हुए है-
1. कुमाऊँनी बोली में 'स' के स्थान पर 'श' का प्रयोग अधिक होता है, जैसे-दस, दश, बस वश, साहब शैबा,
शाबास, शाबाश आदि.
2. कुमाऊँनी में अवधी बोली का प्रभाव बहुत अधिक पाया जाता है, उदाहरणतः अवधी और कुमाऊँनी का अन्य
पुरुष एकवचन का रूप समान है.
हिन्दी कुमाऊँनी अवधी
वह तु उ
3. बहुवचन बनाने के लिए अवधी में कुमाऊँनी की तरह 'न' जोड़ दिया जाता है, यथा-
हिन्दी कुमाऊँनी अवधी
वाणों की वाणनकणि वाणन का
4. कई शब्द ऐसे हैं जो कुमाऊँनी और अवधी में समान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं. जैसे-
हिन्दी कुमाऊँनी अवधी
कुत्ता कुकूट कूकर
माँ म्हौतारि ` महतारी
वैल वल्द वर्दा
5. तीन ध्यनि वाले शब्दों के मध्य की ध्वनि यदि 'अ' हो, तो वताघात के समय पूर्व स्तर दीर्घ हो जाता है.
6. कुमाऊँनी में हस्व 'ए' और 'ओ' क्रमशः 'व' और व' में वदल जाते हैं. जैसे-
चेला च्वाला ('ए' के स्थान पर 'व')
मेला म्वाला
खोली ख्वालो
रोटी खाटो (ओ के स्थान पर 'व')
7. हिन्दी के अकारान्त शब्द-पियौरागढ़ की ओर वोली जाने वाली कुमाऊँनी में ओकारान्त हो जाते हैं, यथा-
गया-गयो , खाया-खायो
৪. परसर्ग 'ने' के स्थान पर 'ले' 'ल' से के स्थान पर वै' का प्रयोग होता है.
जैसे- लड़की से पूछा-च्याली ये पुच्छो.
राम ने कहा-राम लू की.
उपर्युक्त प्रभाव राजस्यानी से कुमाऊँनी में आया.
9. क्रिया रूपों में 'ओ' 'आ' तथा 'इ' भूतकाल के तथा 'ल' वर्तमान तथा भविष्यत काल का घोतक है. उदाहरणतः-
(i) वह खेत में गया-उ खेत में गयो ( भूतकाल)
(ii) वह खेत में जा रहा है-उ खेत में जाड़ लागरो (वर्तमान काल)
(iii) वह खेत में जाएगा-उ खेतम जाल (भविष्यतकाल)
10. 'की' के स्थान पर यै' कणि का प्रयोग होता हुआ भी कुमाऊँनी में मिलता है जैसे-छोटी बहन गाय को चराने के लिए जंगल में ले गयी. इसका परिवर्तन कुमाऊँनी में इस प्रकार होगा- 'नानि वीणी गोरु कणि वरण चराण लिंगे
11. संख्यावाचक शब्दों के प्रयोग की विशेषता निम्न उदाहरणों से स्पष्ट होती है. एका, तोना, शात, हज्यार आदि.
12. संख्यावाचक शब्दान्त में आने वाले 'ह' वर्ण का कुमाऊँनी में लोप हो जाता है. जैसे-हज्यार, वार, तैर, चौद,
पन्द्र, शोल इत्यादि.
13. बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी आदि भाषाओं का प्रभाव पर्याप्त मात्रा में है. कुमाऊँनी के एक ही
वाक्य में उपर्युक्त विशेषता स्पष्ट हो जाती है. जैसे-'वहन गाय को चराने के लिए जंगल ले गयी' यह वाक्य कुमाऊँनी
में इस प्रकार कहा जाएगा. "ननि बैणि गोरु कणि वरण चराणे लिए" इस वाक्य में बेनि-वैण (पंजाबी), गौरु-गोरु (वंगला) शेष कर्ण, ननि, वण, चराण, लिए आदि शब्द हिन्दी के ही परिवर्तित रूप हैं.
14. कुमाऊँनी में प्रायः अन्त्य 'न' का 'ण' हो जाता है. यह प्रभाव में इस प्रकार है-
हिन्दी कुमाऊँनी
वन वण
वना वणा
रोना रोणा
अपना अपणा
15. 'ढ' ध्वनि कुमाऊँनी में सर्वत्त 'ड़' हो गयी है, जैसे-गढ़वाल-गड़वाल (कुमाऊँनी).
16. कुमाऊँनी में प्रायः प्रयत्न लाघव का प्रभाव अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक मिलता है.
उदाहरण-
हिन्दी
भिखारी को पैसे दे दो
कुमाऊँनी
भिखारिन के पैसे दि दे
17. हिन्दी में चन्द्रमा पुल्लिंग में प्रयुक्त होता है, किन्तु कुमाऊँनी में यह स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है. चन्द्रमा को
कुमाऊँनी में 'जून दौड़ी' कहा जाता है,
2. गढ़वाली बोली
गियर्सन ने भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए पहाड़ी समुदाय में केन्द्रीय उपशाखा के अन्तर्गत
कुमाऊँनी के साथ गढ़वाली बोली को भी लिया है. गढ़वाली बोली की उत्पत्ति के विषय में भाषाशास्त्रियों
के विचारों में मतभेद है. डॉ. भोलाशंकर व्यास, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, गढ़वाली की मूल उत्पत्ति शुद्ध शौरसैनी से मानते हैं, परन्तु डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का पहाड़ी भाषाओं के सम्बन्ध में एकदम भिन्न मत है. वे इनकी उत्पत्ति 'दरद' या
खश से मानते हैं. वास्तव में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की इस स्थापना का आधार मात्र यही है कि खश भी गढ़वाल के निवासी थे और खश दरदवंशीय माने गए हैं, किन्तु यदि गढवाली भाषा और दरद भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर मिलेगा. पैशाची या, दरद भाषाओं और गढ़वाली में साम्य के आधार प्रायः नहीं के बराबर है. मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक 'साइन्स ऑफ लंग्वेज' में गढ़वाली को प्राकृतिक भाषा का एक रूप माना है. वालकृष्ण शास्त्री ने अपनी 'बनक वंश' पुस्तक में यह उल्लेख किया है
कि गढ़वाल में संस्कृत बहुत दिनों तक रही. हरिराम धस्माना ने यह उल्लेख किया कि आर्य गढ़वाल के ही रहने वाले थे. अपनी पुस्तक 'वेदमाला' में उन्होंने गढ़वाली और वैदिक संस्कृत के शब्दों की एक सूची दी है जिसमें दिखाया गया है कि गढ़वाली में कई शब्दों का प्रयोग वैदिक रूप में ही होता है.
बैदिक गढ़वाली
कतमत कतमत (हड़बड़ाहट)
स्या स्या (स्त्री)
समेति समेत (सहित)
गौरी गौड़ी (गाय)
गाध गाड़ (नदी)
पाथो पाथों (एक माप)
विट बीट (जातिसूचक शब्द)
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "हिमवत्सिन्धु-सोवीरान् ये अन्य देशान समाश्रिताः
उकार वहुलां तेषु नित्यं भाषा प्रयोजयेत् ।।
" अर्थात् हिमवत सिन्धु और सौवीर क्षेत्रों 'उकार' वहुल
भाषा का प्रयोग होता था. इससे यह सिद्ध होता है कि हिमवत सिन्धु और सौवीर ही पहले अपभ्रंश के क्षेत्र थे,
क्योंकि उकार बहुला भाषा अपभ्रंश ही हो सकती है.
अपभ्रंश भाषा को आभीरोक्ति या, नागवाणी भी कहा गया है. ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर यह बात निर्विवाद है कि नाग जाति के लोगों का हिमालय पर पर्याप्त प्रभाव रहा है. आभीर, गुर्जर, शक, नाग जातियों का समयानुसार सीधा सम्बन्ध रहा है.
गढ़वाली बोली के क्षेत्र
गढ़वाली बोली का क्षेत्र गढ़वाल मण्डल के जनपदों तक ही सीमित माना गया है. पीढ़ी, चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी, देहरादून, रुद्प्रयाग और मसूरी के आसपास का है. इसके बोलने वालों की संख्या 20 लाख के आसपास है.
गढ़बाली भाषा की बिशेषताएँ
गढ़वाली की शब्द संरचना हिन्दी खड़ी वोली पर ही आधारित है. अतः विदेशी भाषाओं के शब्द गढ़वाली बोली
में उसी प्रकार समाहित हो गए हैं. जिस प्रकार हिन्दी में अस्तित्व में आए हैं. जैसे-
1. टेम (टाइम), कारड (कार्ड), उतौल (उतावला) आदिम (आदमी) फैदा (फायदा) गुडाम (गोदाम).
2. गढ़वाली देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है. हिन्दी लिपि से अलग इसकी कोई लिपि नहीं है.
3. गढ़वाली वोली में हिन्दी के समस्त मूल स्वर हैं. हिन्दी के मूल स्वरों के अतिरिक्त कई अन्य स्वरों का
अस्तित्व गढ़वाली में विद्यमान है.
डॉ. गुणानन्द जुयाल के अनुसार कुछ लिपि चिह्न गढ़वाली में ऐसे हैं जो हिन्दी लिपि में नहीं हैं.
जैसे-
अद | दीर्घ अ | धडर |
आ | प्लूपआ | भल (भला) |
ईद | प्लुत ई | भलीद (भली) |
एड | प्लुत ए | सफेब्द (सफेद) |
न्ह | न की महाप्राण ध्यनि | न्है गये (चला गया) |
ल्ह | ल की महाप्रयाण ध्वनि | ल्हा श (लाश) |
4. गढ़वाली बोली की अधिकांश स्वर ध्वनियाँ हिन्दी के समान हैं. हिन्दी के सभी मूल स्वर गढ़वाली में विद्यमान हैं.
5. गढ़वाली में प्रायः हिन्दी के अकारान्त शब्द औकारान्त हो जाते हैं.
जैसे-
चलणो चलना
खाना खाणो
6. न के स्थान पर 'ण' का प्रयोग गढ़वाली में बहुलता से किया जाता है. जैसे-
अपना अपणो
देखना देखणो
पानी पाणी
रानी राणी
7. गढ़वाली में लिंग निर्धारण के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं है, लिंग निर्धारण प्रायः पद निर्माण की
प्रक्रिया पर निर्भर करता है, शब्दों से जुड़े हुए प्रत्ययों के अनुसार ही स्त्रीलिंग व पुलिंग वाक्य रचना होती है.
৪. गढ़वाली बोली में लगभग सभी मूल स्वरों के अनुनासिक रूप मिलते हैं. जैसे-अध्यारी, बिजणी लौंण
दुँगी, मेंड़ा, नीण, चौल औला, मैंन.
9. गढ़वाली में बलात्मक स्वराघात की अधिकता है. एक ही प्रकार लिखे जाने वाले शब्दों के निश्चित स्वर पर वल
पड़ने से विभिन्न अर्थ निकलते हैं. जैसे-
कालो काला
काडली मूर्ख
10. कभी-कभी विशेषणों में गुणाधिक्य प्रकट करने के लिए स्वराधात होता है. जैसे-
मिट्ठो अत्यधिक मीठा
भलोड अत्यन्त भला
लाडल अत्यन्त लाल
सफेऽद अत्यन्त सफेद
11. गढ़वाली में हिन्दी के समान 'अ' ध्वनि शब्द के मध्य में हो तो प्रायः लुप्त हो जाती है और इससे पूर्व स्तर
पर स्वराधात होता है. जैसे-
किलकार किलकारी
12. गढ़वाली संख्यावाचक विशेषणों में स्वगत की अपेक्षा ध्वनि गत वैशिष्ट्य अधिक है. गढ़वाली और हिन्दी में
समान संख्यावाचक विशेषण पाए जाते हैं. जैसे
ग्यारह अग्यारा
वारह बारा
तेरह तेरा
चौदह चौदा
दो द्वि
सत्तर सीतर
हिन्दी भाषा
उत्तराखण्ड के हरिद्वार, रुड़की, ऊधरमसिंह नगर, जसपुर, रुद्रपुर आदि क्षेत्रों में पंजाबी व खड़ी वोली हिन्दी का प्रयोग किया जाता है. लगभग 5 लाख लोग हिन्दी तथा इतनी ही जनसंख्या पंजाब बोली का प्रयोग करती है. हिन्दी शब्द का प्रयोग विविध कालों में विविध अर्थों में होता है. हिन्दवी, हिन्दुई, हिन्दु आदि शब्दों का सम्बन्ध भी हिन्दी से ही है. साधारणतः ये सभी शब्द भारत से सन्दर्भित माने गए हैं, क्योंकि इन सभी शब्दों से भारत का ही बोध होता है.
हिन्दी के क्षेत्र एवं हिन्दी की बोलियाँ-
(अ) पश्चिमी हिन्दी के क्षेत्र.
(ब) पूर्वी हिन्दी के क्षेत्र.
(अ) पश्चिमी हिन्दी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश (अहीरवारी मेवाती) के क्षेत्र को छोड़फर समस्त हरियाणा उत्तराखण्ड के हरिद्वार, रुड़की
जनपदों एवं देहरादून के मैदानी भागों में बोली जाती है इन जनपदों में हरियाणवी, खड़ी बोली भी वोली जाती है.
जसपुर, बाजपुर, ऊधरमसिंह नगर, रुद्रपुर, हल्द्वानी में पंजाबी भाषी लोगों द्वारा पंजाबी बोली जाती है.
पंजाबी बोली के दो भाग हैं-
1. भारतीय पंजाबी, 2. पाकिस्तानी पंजाबी.
लाहौर और सियालकोट के जिलों को छोड़ शेप पश्चिमी पंजाब में जो पंजाबी बोली जाती है. उसे लहेदें दी वोली
(सूर्यास्त दिशा की भाषा) कहते हैं, मुल्तानी, डेरावाली, पोठोवारी, अवाणकारी आदि इसकी कई बोलियाँ हैं.
भारतीय पंजाब की बोली को ही पंजाबी कहा जाता है. इसका क्षेत्र अम्बाला से लाहौर तक और जम्बू, चम्बा व
शिमला से भटिण्डा तक फैला है. उत्तराखण्ड के खेतिहार भु- भाग सिख बहुल हैं. उन लोगों द्वारा इसी पंजाबी का प्रयोग किया जाता है. साहित्यिक दृष्टि से इस क्षेत्र की पंजाबी का कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं है. साहित्यिक रूप में हिन्दी का प्रयोग किया जाता है. इस पंजाबी में खड़ी बोली के क्रिया रूप साहित्यिक हिन्दी के समान हैं.
वर्तमान साहित्यिक हिन्दी या सामान्य हिन्दी और उर्दू खड़ी बोली पर ही आधारित है. अनुमानतः 5 लाख लोग इस भाषा का प्रयोग करते हैं. इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. संज्ञा शब्दों के प्रायः रूप वही हैं जो साहित्यिक हिन्दी में हैं, किन्तु बहुवचन रूप ऊँ से बनता है, जैसे-
मरदूं, वेटयूँ (आदमियों बैठो).
2. है का उच्चारण 'हे' और विकल्प रूप में 'से' के स्थान पर 'सैं' का प्रयोग होता है. जैसे-लाया करें, हे, सै
(लाया करता है)
3. सर्वनाम में मुझ, मेरा, हम, हमें, हमारा या म्हारा, तू, तिर्यक-ते. तुझ तेरा तम, तमें. तुम्हारा या थारा, यू यो
(स्त्रीलिंग) इस आ, वोह जो, जोण के, कोण के (क्या) आप (अपणा) को (कोई) का प्रयोग किया जाता है.
4. भूतकालिक कृदंतीय रूप एकवचन में रिट्या, उठ्या आदि और बहुवचन में सामान्य हिन्दी के समान, जा रहे हैं,
उठ रहे हैं, बनता है. पंजाबी में खड़ी बोली और पहाड़ी बोलियों का प्रभाव भी देखा जा सकता है. अनुमान के
आधार पर 1 लाख लोगों द्वारा पंजाबी बोली का प्रयोग किया जाता है.
नेपाली
उत्तराखण्ड का कुछ भाग नेपाल की सीमा से भी मिला है, देहरादून में नेपाली बोलने वालों की संख्या 10 हजार के आम-पास है. सोलहवीं शती में उदयपुर के गोरक्षक राजपतों ने नेपाल में अपना राज्य स्थापित किया था. यह शासक वर्ग जिस भाषा का प्रयोग करता था, वह आर्य वर्गों की भाषा है निसे नेपाली कहा जाता है. यह नेपाली नाम से अधिक पमिद्ध है और राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त भी है,
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