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स्वतंत्रता आन्दोलकन में उत्तराखंड की भूमिका ( Uttarakhand's role in freedom movement)

स्वतंत्रता आन्दोलकन में उत्तराखंड की भूमिका

        भारत के स्वाधीनता के संघर्ष में नवसृजित उत्तराखण्ड के अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राणोत्सर्ग किए तथा स्वाधीनता का विगुल बजाया. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संघर्ष में जहाँ पूरा उत्तरी भारत (सीमित क्षेत्रों में) आजादी की साँस लेने के लिए छटपटा रहा था, उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं रहा. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की सूचना कुमाऊँ के आयुक्त को 22 मई को मिली, जो उस समय गढ़वाल के ऊपरी भाग में  था. सूचना मिलते ही वह नैनीताल लौट आया तथा यहीं से उसने पहाड़ के निचले भाग में शांति व्यवस्था बनाए रखने की तैयारी की. यहाँ उल्लेखनीय है कि मार्च 1839 में बैरन ने नैनीताल को खोजा जो एक सुन्दर पहाड़ी स्थल था, जो बाद में प्रान्तीय सरकार की ग्रीष्म ऋतु की राजधानी बनाया गया. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम सैनिकों से सहानुभूति रखते हुए यहाँ के बंजारों ने रुद्रपुर में (ऊधरमसिंह नगर) सड़कें बंद कर दीं. जून के प्रारम्भ में बरेली तथा मुरादाबाद से अंग्रेज शरणार्थी क्रमशः हल्द्वानी और कालाढुंगी पहुँचे, शीघ्र ही मैदान से यातायात समाप्त हो गया और अंग्रेज अपने को असुरक्षित समझ कर नैनीताल चले गए, कोटाह तहसील की हवेली को रामपुर से आये स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिकों के एक दल ने लूट लिया. इसी समय कोटाह के निचले भाग में स्थित भाभर गाँव में लुटेरों ने लूटमार की. यहाँ के निवासियों की सुरक्षा की प्रवन्ध अंग्रेज नहीं कर पाए, उन्होंने केवल हल्द्वानी के ऊपर छकाता क्षेत्र में ही शांति व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास किया. कृषक पहाड़ों में अपने-अपने घरों में चले गए और भाभर उजड़ गया. जून के अंत में अंग्रेज सेना ने भारतीय अधिकारी, धानसिंह के नेतृत्व में कोटाह में रामपुर से मस्तु खाँ के नेतृत्व में आये स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिकों से युद्ध किया, लेकिन धानसिंह मारे गए और भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों की सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया. मैदान के किनारे स्थित गाँवों में अपने जान-माल की रक्षा हेतु मार्शल लॉ लागू किया. नैनीताल में अंग्रेज शरणार्थियों के लिए उन्हें मासिक भकत्ता और अग्रिम धनराशि दी जाती थी, नैनीताल में वह स्थल जहाँ अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को सामूहिक फाँसी दी गई थी. आज भी विद्यमान है, इसे 'फाँसी गधेरा' या 'हैंगमैन वे' कहते हैं. 17 सितम्बर को हल्द्वानी पर स्वतन्त्रता संग्राम सैनिकों ने अधिकार कर लिया, लेकिन अंग्रेजों के सामने टिक नहीं पाए अगले दिन उनको हटना पड़ा. स्वतन्त्रता संग्राम का जोश इतना अधिक था कि 6 अक्टूबर को पुनः आक्रमण करके हल्द्वानी पर कब्जा कर लिया. अंग्रेज उनका सामना नहीं कर सके, लेकिन अंग्रेजों ने स्वतन्त्रता सैनानियों को पकड़कर फाँसी दे दी. हल्द्वानी पर आयुक्त ने नेपाली दल की सहायता से और कुमाऊँ में भर्ती किए गए सैनिकों के साथ एक बार फिर अधिकार कर लिया.

     फरवरी 1858 के प्रारम्भ में अतिरिक्त अंग्रजी सेना इस क्षेत्र में आ गई. इसी समय अनुभवी स्वतन्त्रता संग्राम सैनिक फजल हक ने हल्द्वानी के पूर्व में स्थित साण्डा में पड़ाव डाल दिया, जबकि स्वतन्त्रता संग्राम का एक और सैनिक काले खाँ के नेतृत्व में बहेड़ी से प्रस्थान करके हल्द्वानी के दक्षिण में 26 किमी की दूरी पर अंग्रेजों पर आक्रमण करने आया. काले खाँ और अंग्रेजों के बीच चरपुरा में युद्ध हुआ, जिसमें काले खाँ की मृत्यु हुई और भारतीय सैनिक तराई चले गए. अंग्रेजों ने कुमाऊँ के कारागारों से सभी असामाजिक तत्वों को रिहा कर दिया और उनको कुली या सेना में भर्ती किया. अंग्रेजों ने आम जनता के उत्पीड़न में इन बदमाशों को बढ़ावा दिया.

    मार्च 1816 की सिगौली की संधि के अनुसार गढ़वाल सुदर्शनशाह को दे दिया गया. इस राजा के राज्य का चमोली, गढ़वाल और देहरादून जनपदों को मिलाकर जो शेष भाग था, उसे अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया. 1824 ई. में शिष्टाचार के अनुकूल ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सर्वोच्च सरकार की मुहर लगाकर उसे सनद दे दी गई. सनद की शर्तों के अनुसार टिहरी गढ़वाल के राजा को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा सहायता मॉँगे जाने पर सेना को रसद और राज्य में और राज्य के बाहर के प्रदेशों में अंग्रेजों को व्यापारिक सुविधा प्रदान करनी पड़ी. ब्रिटिश सरकार की अनुमति के बिना वह अपने राज्य के किसी भी भाग का विधटन अथवा गिरवी रखने का कार्य नहीं कर सकता था. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के समय राजा ने सेना और धन सम्पत्ति देकर अंग्रेजों की सहायता की थी. उसने अपने 200 सैनिक राजपुर की पहाड़ी पर इस संग्राम के अंत तक तैयार रखे थे. कहा जाता है कि नजीवाबाद के नवाब ने उससे अंग्रेजों के विरुद्ध मित्रता करने हेतु राजी करने का प्रयास किया था, जिसे सुदर्शनशाह ने अस्वीकार कर दिया और अंग्रेजों के प्रति स्वामि भक्ति प्रदर्शित की. 

 सिगोली की संधि , मार्च 1816. यह संधि नेपाल दरवार और अंग्रेजों के मध्य हुई. इस संधि के अनुसार

1. अंग्रेजों को गढ़वाल और कुमाऊँ के जिले तथा तराई का अधिकांश भाग प्राप्त हुआ.
2. दोनों राज्यों की सीमाओं को निश्चित कर दिया गया.
3. नेपाल ने सिक्किम राज्य से अपने समस्त अधिकार वापस ले लिए और
4. नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में एक अंग्रेज रेजीडेंट रख दिया गया. 

        19वीं शताब्दी के आरम्भ के दशकों में इस क्षेत्र का इतिहास पटना शून्य है. केवल कुछ प्रशाससनिक कार्य तथा भू तथा वन-व्यवस्था का कार्य अंग्रेजों ने अपने को इस क्षेत्र में सुदृढ़ वनाए रखने के लिए किए. उनका उद्देश्य यहाँ के प्राकृतिक साधनों का अधिकतम उपयोग अपने हित में करने का था. 15 अक्टूबर, 1891 में नैनीताल जनपद का सूजन किया गया. 1895 में जब प्रेसीडेंसी आर्मी समाप्त करके भारतीय सेना का पुनर्गठन पंजाब, वंगाल, मद्रास और वम्बई चार कमाण्डों में विभाजित हो गया, तो नैनीताल बंगाल कमाण्ड का मुख्यालय वना. 1905 में भारतीय सेना का दुवारा पुनर्गठन करके जब नाद्न, वेस्टर्न और पूर्वी कमाण्ड बनाएगए, तो नैनीताल ईस्टर्न कमाण्ड का मुख्यालय बनाया  गया.

     20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराखण्ड के लोग अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक होने लगे थे और उन्हें शासन द्वारा अपने शोषण का आभास होने लगा था. जनता में विरोध की भावना का आभास विभिन्न प्रकार से प्रकट होने लगा था. 1912 में पंजाब के प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता लाजपत राय के आगमन के वाद कुमाऊँ कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ. इसी वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन इलाहावाद में हुआ, जिसमें उत्तराखण्ड का प्रतिनिधित्व हरीराम पाण्डे, वरद्रीदत्त जोशी और सदानन्द सनवाल ने किया, जो कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ता थे.

     1916 में, जब पूरे देश में होमरूल आन्दोलन का दौर चल रहा था. उसी समय उत्तराखण्ड के प्रतिष्ठित अधिवक्ता  एवं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी गोविन्द वल्लभ पंत जो आगे चलकर उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री वनने का गौरव हासिल हुआ, ने हरगोविन्द पंत के साथ मिलकर 'कुमाऊँ परिषद्' की स्थापना की. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य नैनीताल, अल्मोड़ा और ब्रिटिश गढ़वाल जिलों के लोगों की आर्थिक, सामाजिक और सरकारी समस्याओं का समाधान करना था. शीघ्र ही कुमाऊँ परिषद्' की शाखाएँ अनेक जिलों में फैलने लगीं. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य कुली बेगार प्रथा को समाप्त करना था, जिसे कुमाऊँ में कुली उतार प्रथा और नैनीताल में कुली 'एजेंसी' कहा जाता था. इस संस्था ने उत्तराखण्ड में सर्व-साधारण को अप्रिय लगने वाला 'वन अधिनियम' का विरोध किया. इस संस्था के सदस्यों में गोविन्द वल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, वद्रीदत्त पाण्डे, डॉ. हरिदत्त पंत, चन्द्रलाल  साह, जयराम साह, राम बहादुर और मथुरा दत्त पाण्डेय थे. 

        1917 में सम्पन्न हुए प्रथम वार्षिक अधिवेशन में कुमाऊँ परिषद् ने प्रस्ताव जारी किया कि सरकार कुमाऊँ को  अनुसूचित जिला नहीं माने. इसके अतिरिक्त परिषद् ने यह
प्रस्ताव किया कि पहाड़ की भौगोलिक स्थिति मैदानी इलाकों से भिन्न होने के कारण अधिक आर्थिक सहायता  प्रदान की जाए. 1918 में प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के लखनऊ अधिवेशन में कुमाऊँ में प्रचलित कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने का प्रस्ताव पारित हुआ पर शासन ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. उसी वर्ष 1918 में 24-25 दिसम्बर को हल्द्वानी में तारादत्त गैरोला की अध्यक्षता में कुमाऊँ परिषद् का दूसरा अधिवेशन हुआ. गोविन्द वर्लभ पंत इसके सचिव थे और इसमें भाग लेने वाले प्रमुख व्यक्तियों में बद्रीदत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, मथुरा दत्त पाण्डेय, इन्द्र लाल साह, भोलादत्त  पाण्डे, डॉ. तुलाराम और प्रेम बल्लभ सम्मिलित थे. अधिवेशन में कुमाऊँ के निवासियों के कठिनाइयों की ओर ध्यान आष्ट किया गया. इसके अलावा अप्रिय हो चले कुली उतार प्रथा तया वन-व्यवस्था को समाप्त करने की माँग की गई. 

        प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् देश में अकाल पड़ा. इसी समय 1919 में ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट नामक काला  कानून पारित किया, जिसमें किसी भी व्यक्ति को संदेह मात्र उत्पन्न होने पर जेल की सलाकों में डाला जा सकता था. इस पारित कानून का विरोध पूरे देश में हुआ. उत्तराखण्ड भी इससे अछूता न रहा. 13 अप्रैल, 1919 में जालियाँवाला बाग में कत्लेआम ने आग में घी डालने का कार्य किया. पूरा हुए क्षेत्र आन्दोलन में जाग उठा. ब्रिटिश सरकार ने एकसमान रूप से आन्दोलन को दवाने का हर कदम उठाया. 1920 में कुमाऊँ परिषद् का वार्षिक अधिवेशन हरगोविन्द पंत की अध्यक्षता में काशीपुर (ऊधरमसिंह नगर) में हुआ जिसमें कुली उतार समाप्त करने हेतु सत्याग्रह प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित हुआ. 

        अभी तक उत्तराखण्ड में जनआन्दोलन शांतिपूर्वक चलाया ताकि शासन जनता की समस्याओं का समाधान जा रहा था, करे, लेकिन अब इस आन्दोलन ने गम्भीर रूप धारण कर लिया. इसी समय तीन युवा विद्यार्थी लक्ष्ण दत्तभट्ट, आनन्द स्वरूप और शिवनंदन पाण्डेय ने सरकार द्वारा चलाई शिक्षा पद्धति का विरोध कर राजनीतिक चेतना जाग्रत की और आन्दोलन को नई दिशा दी. शीघ्र ही गोविन्द वल्लभ पंत, रामस्वरूप सिन्हा, देवकी नन्दन पाण्डे, रामदत्त पंत, श्याम लाल वर्मा, प्रेम वल्लभ पांडियाल तथा सैकड़ों अन्य नेताओं ने मिलकर आजादी का अलख जगाया. जब महात्मा गांधी ने परे देश में असहयोग आन्दोलन चलाया, तो उत्तराखण्डवासी भी किसी से पीछे नहीं रहे. दिसम्बर 1920 में कोटाह में लगे शनिवार के बाजार में हरदत्त पंत और रामदत्त पंत ने एक विशाल ग्रामीण सभा को इस आन्दोलन में भाग लेने के लिए उत्साहित किया. भीमताल में केशव दत्त संगूरी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाकर इस असहयोग आन्दोलन को पूरे उत्तराखण्ड में फैला दिया. असहयोग आन्दोलन के प्रमुख केन्द्र हल्द्वानी, कालादुंगी, काशीपुर, नैनीताल और पहाड़पानी थे. कुली प्रथा और अप्रिय वन कानून के विरोध में लम्बे काल से चल रहे आन्दोलन भी असहयोग आन्दोलन का भाग बन गए.

         बहुत संख्या में लोगों ने वेगार करने से इनकार कर दिया. कहा .जाता है कि लोगों ने बहुत से वनों को, जिसमें कुछ सुरक्षित थे जला दिया. पूर्णानंद तिवारी (नारायण दत तिवारी के पिता) ने वन विभाग की सरकारी सेवा से त्याग-पत्र देकर सक्रिय रूप से असहयोग आन्दोलन में भाग लिया. कुमाऊँ परिषद् को ब्रिटिश प्रशासन ने अवैध घोषित करते हुए सैकड़ों लोगों को कारागार में डाल दिया. मल्लीताल के किशोरी लाल और गोपाल दत्त को जेल में अनेक यातनाएँ दी गई. महात्मा गांधी के निर्देश पर असहयोग आन्दोलन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया, लेकिन कुली उतार आन्दोलन सफलतापूर्वक चलता रहा. अंततः ब्रिटिश सरकार को विवश होकर इस बेगार प्रया को समाप्त करना पड़ा. 

        1923 में टनकपुर में कुमाऊँ परिषद् का वार्षिक अधिवेशन वद्रीदत्त पाण्डे की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें निर्णय लिया गया कि इस संस्था को कांग्रेस में मिला दिया जाए. 1924 में गोविन्द वर्लभ पंत प्रान्तीय लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने. इन्होंने काउंसिल में मोतीलाल नेहरू द्वारा स्थापित स्वराज पार्टी का नेतृत्व विरोधी नेता के रूप में किया.

        1930 में जब महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया, तो अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को सफल बनाया.

        नैनीताल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व गोविन्द बल्लभ पंत ने किया. हल्द्वानी भी इस आन्दोलन का केन्द्र था. ताड़ीखेत और कोटाह के बहुत से स्वयंसेवकों ने इस आन्दोलन में भाग लिया. पुलिस की बर्बर पिटाई में शिरवसिंह गम्भीर रूप से घायल हुए तथा मर गए. शिवसिंह की अंत्येष्टि में उस समय निकला जुलूस नैनीताल में निकाले गए जुलूसों में सबसे बड़ा था. सविनय अवज्ञा आन्दोलन में प्रमुख रूप से दिलीप सिंह 'कप्तान', नारायण दत्त भण्डारी, प्रेम वर्लभ पाण्डियाल, मोतीराम पाण्डेय, शंकर लाल पाण्डेय और गोविन्द राम शर्मा थे , इस सभी नेताओं को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया, गोविन्द वल्लभ पंत को 6 माह का कारावास मिला. उनकी अनुपस्थिति में उनका स्थान सितावर पंत, मोहन लाल साह और मोतीलाल साह ने लिया. 1931 में महात्मा गांधी ने आन्दोलन स्थगित कर दिया. लंदन में जब गोलमेज कान्फ्रेन्स विफल हो गई, तो गांधीजी ने वापस लौटकर सविनय अवज्ञा पुनः शुरू किया, जिसकी बागडोर गोविन्द व्लभ पंत ने सँभाली. हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धा-से कन्धा मिलाकर इस आन्दोलन में भाग लिया. इस आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने प्रथम वार स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया. इनमें प्रमुख कुंती देवी वर्मा और भागीरथी देवी थीं. यह आन्दोलन 1933 तक चलता रहा, जब बद्रीदत्त पाण्डेय और गोविन्द पंत ने व्यक्ति-गत सत्याग्रह करते हुए अपने को गिरफ्तार कराया. 

        आजादी की लड़ाई में अविस्मरणीय योगदान करने वाले उत्तराखण्ड के यशस्वी वीर सपूत चन्द्रसिंह गढ़वाली ने पेशावर में 23 अप्रैल, 1930 को जिस सैनिक क्रांति का सूत्रपात किया, वह पेशावर काण्ड आजादी के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है, ब्रिटिश शासक पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश में फौज से भारतीय जनता पर अंधाधुंध गोलियाँ चलवा रहे थे, चूँकि सीमांत प्रदेश के निवासी अधिकांश मुसलमान थे. अतएव साम्राज्यवादियों ने जानवूझकर वहाँ हिन्दू सैनिक भेजे थे, लेकिन देशप्रेम साम्प्रदायिक भावना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली साबित हुआ. अठारहवीं रायल गढ़वाली राइफल्स की दो पलटनों ने चन्द्रसिंह गढ़वाली की अपील पर पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया. वे आन्दोलनकारियों से जा मिले और अपनी राइफलें उन्हें सौंप दीं. देश की स्वाधीनता के लिए हिन्दू सैनिक और पठान मजदूर किसान, दस्तकार मिलकर एक हो गए. ब्रिटिश शासकों ने गढ़वाली सैनिकों को गिरफ्तार कर फौजी अदालत में मामला चलाया और 17 सैनिकों को सख्त सजा दी गई. चन्द्रसिंह गढ़वाली को  आजीवन कालेपानी की, एक अन्य को 15 साल की कड़ी सजा और 15 को 3 से लेकर 10 साल तक की कड़ी सजा दी गई. गढ़वाल के इन सैनिकों पर किस भारतीय को गंर्व नहीं होगा. मोतीलाल नेहरू ने पूरे देश में 'गढ़वाल दिवस' वनाने की घोषणा की थी.

          ब्रिटिश इण्डिया में चल रहे स्वतन्त्रता संघर्ष के उत्साह और स्फूर्ति ने उत्तराखण्ड के उन लोगों को भी प्रभावित किया, जो इस समय अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे थे और जो राजाओं के शासनकाल में शोषण और अपमान को सहन कर रहे थे. इस राज्य के प्रवासी लोगों ने सन 1939 में गढ़वाल राज्य के राजा के निरंकुश शासन से मुक्ति हेतु देहरादून में प्रजामण्डल नामक संस्था स्थापित की, जिसने नियमित रूप से आन्दोलन चलाया था. इस आन्दोलन के नेताओं में प्रमुख नेता श्रीदेव सुमन पत्रकार थे. इनका जन्म जौन नामक गाँव (पट्टी-वामुदा, परगना नरेन्द्र नगर, तहसील, टिहरी) में हुआ था. राज्य के बाहर रहने वाले इस राज्य के सभी लोगों के कार्यकरलापों में सामंजस्य स्थापित करने हेतु .प्रजामण्डल की शाखाएँ मसूरी, लाहौर और दिल्ली में खोली गई थीं. श्रीदेव सुमन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी सम्बद्ध थे. प्रजामण्डल के कार्यकरलापों से प्रभावित होकर गढ़वाल के  राजा नरेन्द्रशाह ने कुछ प्रगतिशील संकेत दिए. राज्य में संविधान सभा बनी तथा वाद विवाद समिति का गठन किया गया. 

        अगस्त 1942 के भारत छोड़ो' आन्दोलन का उत्साह पूरे उत्तराखण्ड में दिखाई दिया. युवाओं ने कानून विरोधी गति- विधियों में भाग लिया. विद्यार्थियों ने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई त्याग दी. काशीपुर और हल्द्वानी में विद्यार्थियों ने ठेकेदारों को वनों के ठेके लेने से रोका. कोटाह के निवासियों पर पुलिस द्वारा रात्रि में धावा करते हुए जो अत्याचार किए गए उनका स्मरण आज भी लोगों को है, गोविन्द बल्लभ पंत जो 8 अगस्त को बम्बई में हो रही कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में भाग ले रहे थे, तो उन्हें गिरफ्तार किया गया. अगले दिन नैनीताल में सितार पंत और कोटाह में प्यारे लाल गुप्त को गिरफ्तार किया गया. उस वर्ष जिला कांग्रेस कमेटी का वार्षिक अधिवेशन कोटाह के ग्रामीण क्षेत्र में सम्पन्न हुआ, जिसमें 15,000 व्यक्तियों ने भाग लिया. नारायण दत्त तिवारी (वर्तमान में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री) ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीति की आलोचना करते हुए अंग्रेज विरोधी लेख लिखे,
उन्हें 19 दिसम्बर, 1942 में गिरफ्तार करके नैनीताल कारागार में बंदी रखा गया. इसी समय उनके पिता को ( पूर्णानंद तिवारी) भारतीय देश रक्षा अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत वंदी. बनाकर उसी कारागार में रखा गया. पुनः दोनों को वाद में बरेली कारागार में भेजा गया. नारायण दत्त तिवारी को 15 महीने तक जेल में रहने के पश्चात् मुक्त कर दिया गया. 1944 में नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस पार्टी के समाजवादी पक्ष के सक्रिय सदस्य वने. 1942 के इस आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में श्याम लाल वर्मा और दिलीप सिंह 'कप्तान', प्रेम बल्लभ पौड़ियाल, जोधसिंह विष्ट, इंगर सिंह विष्ट, मदन मोहन मित्तल, श्रीमती शोभावती मित्तल, शंकर लाल शर्मा, मोहन लाल साह, दौलनराम, नरेन्द्र दत्त सकलानी आदि थे. इन सभी नेताओं को कारागार भेजा गया. मोहन लाल साह के मुकदमे की पैरवी प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता एवं कानून में  प्रवीण कैलाश नाथ काटजू ने की. इनका मुकदमा लम्बे समय तक चला और 1944 में इनका स्वास्थ्य विगड़ जाने पर जेल से रिहा किया गया. 

        देशी रियासत गढ़वाल में भी 1942 का आन्दोलन नई अँगड़ाइयाँ लेने लगा. 1942 में भारत छोडो आन्दोलन के दबाव से प्रजामण्डल ने यह माँग की थी कि राजा अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर ले, लेकिन जैसे ही यह आन्दोलन शुरू हुआ था कि श्रीदेव सुमन को अपने साथियों सहित 31 व्यक्तियों के साथ द्रेवप्रयाग में कैद कर लिया गया और टेहरी जेल में  भेज दिया गया. श्रीदेव सुमन ने जेल अधिकारियों जे अमानवीय व्यवहार के विरोध स्वरूप 3 मई, 1944 को भूख हड़ताल  करनी पड़ी. इसके कारण उन्हें न्यूमोनिया हो गया, जो घातक सिद्ध हुआ और उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी मृत्यु की सूचना भी उनके सगे सम्बन्धियों को नहीं दी गई तथा उनका शव भागीरथी नदी में गुप्त रूप से डूबो दिया गया. 

    श्रीदेव सुमन के आत्मवलिदान ने स्वतन्त्रता आन्दोलन मेंअभूतपूर्व उत्साह स्फूर्त कर दिया. आई.एन.ए. के सिपाही जो इस समय उत्तराखण्ड आए हुए थे. आन्दोलन की अग्नि को और अधिक प्रज्वलित कर दिया. 1946 में राजा पुलिस औरनिषेधात्मक आज्ञा के होते हुए भी 'सुमन दिवस' मनाया गया. गढ़वाल के राजा नरेन्द्र शाह को 21 अगस्त, 1946 को प्रजा-मण्डल को मान्यता देनी पड़ी, परन्तु साथ ही राजा ने एक प्रतिक्रियात्मक मण्डल का प्रजा हितकारी सभा के नाम से गठन किया.

    मई 1947 में प्रजामण्डल का पहला सम्मेलन हुआ थाऔर इसने राज्य में संवैधानिक और उत्तरदायित्व सरकार की माँग की. 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वाधीन हो गया, लेकिन  7 राजा ने अंग्रेजों के यहाँ न होने से ऐसा समझा कि उसे और अधिकार मिल गए हैं, इसलिए प्रजामण्डल के अध्यक्ष को गिरफ्तार कर लिया गया. राजा की सरकार ने राहदारी नामक नया कर भी लगाया, लेकिन स्वतंत्रता की आँधी जो चल गई थी, उसे रोक पाना कठिन था, अन्ततः नरेन्द्र शाह को अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह के पक्ष में राजसिंहासन त्याग करना पड़ा. मानवेन्द्र शाह अपनी शाखा का 60वाँ और अन्तिम शासक तथा इस प्रदेश का प्रथम और अन्तिम संवैधानिक शासक था. 15 जनवरी, I1948 का स्वतन्त्रता दिवस से पहचाना गया और मध्यवर्ती मंत्रिमण्डल के साथ संवैधानिक राजतंत्र फरवरी 1948 से हुआ. संवैधानिक राजतन्त्र और मध्यवर्ती मंत्रिमण्डल ने 31 जुलाई, 1949 तक कार्य किया. दूसरे ही दिन उस समय का टिहरी गढ़वाल का राज्य भारतीय गणराज्य के उत्तर प्रदेश प्रांत में विलीन किए जाने की घोषणा हुई, । अगस्त से । दिसम्बर, 1949 तक इस भू-भाग का पृथकु जनपद के रूप में प्रशासन कार्य देखा जा रहा था. । दिसम्बर, 1949 में टिहरी गढ़वाल के नाम से पृथकृ रूप से जनपद के रूप में गठन हुआ. 

        इस प्रकार उत्तराखण्डवासियों ने अपने अदम्य साहस,शौर्य, वलिदान से दे श को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. स्वाधीनता के बाद भी इस प्रदेश के वीर सपूतों ने अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है. आजादी के बाद हुए युद्धों में पूरे उत्तर प्रदेश के 2.334 जवान शहीद हुए, जिसमें आधे से अधिक 1234 शहीद उत्तराखण्ड की 60 लाख जनसंख्या में से थे. इन युद्धों में 430 शौर्य और वीरता के लिए पदक मिले. इसमें आधे से अधिक 233 पदक उत्तराखण्ड के सैनिकों ने प्राप्त किए. अकेले उत्तराखण्ड के 3 लाख से अधिक भूतपूर्व सैनिक हैं, जो उनके देश के प्रति असीम देशप्रेम को दर्शाता है. उत्तराखण्ड की ही दो रेजिमेंट गढ़वाल एवं कुमाऊँ बनी हैं, जो उनके स्वतन्त्रता संग्राम में महती भूमिका को प्रदर्शित करता है. धन्य वीर सपूतों को शत-शत नमन !


                    उत्तराखण्ड के स्वाधीनता संघर्ष का संक्षिप्त सफर- नामा

*         स्वतन्त्रता के पूर्व से पहाड़ के लोग उक्त माँग को करने लग गये थे.

*        संयुक्त प्रान्त के 1815 की सिजीली सन्धि में भी उत्तराखण्ड को सम्मिलित किया जाना.

*     1928 में नेहरू समिति की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि प्रान्तों का बँटवारा जनता की इच्छा, भौगोलिक, धार्मिक, सिद्धान्तों पर किया गया. 

*    1938 में श्रीनगर गढ़वाल सम्मेलन में जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकारा था कि पर्वतीय अंचल के निवासियों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाने का अधिकार मिलना चाहिए.

*    सन् 1952 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के का. पी. सी. जोशी ने सबसे पहले पृथकु उत्तराखण्ड राज्य की
माँग उठायी. जिनके साथ पेशावर काण्ड के हीरो वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कन्ये से कन्धा मिलाकर उक्त
माँग का समर्थन ही नहीं किया, बल्कि एक भोंपू कन्धे पर लटकाकर गाँव-गाँव की पद यात्राएँ कीं. 

*    1957 में टिहरी के भू. पू. महाराजा वर्तमान में टिहरी के सांसद मानवेन्द्र शाह ने एक संगठन खड़ा किया जिसे खूब जन समर्थन मिला, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध के महत्व ने लोगों को देशहित सर्वोपरि के अधीन भावनाएँ बदलकर पृथकृ राज्य की बात बन्द करने के लिए मजबूर कर दिया. 

*    1962 में उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र के विकास को गम्भीरता से लिया गया. चमोली, उत्तरकाशी एवं पियौरागढ़ सीमान्त जिले अलग से वनाये गए.  

*    1966-67 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जन-जागरण किया, लेकिन वह सफल नहीं रहा. 

*    10-11 जून, 1967 को रामनगर कांग्रेस सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के विकास को गम्भीरता से लिया. 

*    1971 में टिहरी के महाराजा मानवेन्द्र शाह ने पुनः इस  माँग को दोहराया और उनके साथ जमीन से जुड़े लोग जिनमें इन्द्रमणि बडोनी, लक्ष्मण सिंह अधिकारी, नरेन्द्र सिंह, शिव चन्द्र सिंह रावत आदि-आदि लोग जुड़ गए थे.

 *   1971-मानवेन्द्र शाह इन्द्रमणि वडोनी, लक्ष्मण सिंह अधिकारी और नरेन्द्र सिंह विष्ट ने आन्दोलन तेज करने के प्रयास किए. 1971 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र नेता सुरेन्द्र सिंह विलंगवाल एवं वलवीर सिंह नेगी पूर्व विधायक ने दर्शकदीर्घा से असेम्बली में पृथक उत्तराखण्ड राज्य के समर्थन में पर्चे फेंककर लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित कराया. 

*    1968 में कामरेड क्रषि वल्लभ सुन्दरियाल के नेतृत्व और पूरन सिंह डंगवाल की अध्यक्षता में पृथकू राज्य की माँग को लेकर वोट क्लब पर गिरफ्तारियों दीं. 21 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 

*    1973 में बडोनी के नेतृत्व में नैनीताल में उत्तरांचल राज्य परिषद् का गठन किया गया, जिसमें प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री प्रताप सिंह 'प्रताप भैया' उत्तरायणह के सम्पादक नित्यानन भट्ट आदि नेता इस आन्दोलन से जुड़ गये.

 *   1974 में दिल्ली के प्रवासियों ने गढ़वाल के सांसद श्री प्रताप सिंह नेगी की अध्यक्षता में उत्तराखण्ड राज्य परिषद् का गठन किया और कोटद्वार की वैठक में नेगी जी ने घोषणा की कि पृथकू राज्य के लिए वे संघर्षरत रहेंगे और अपना सब कुछ न्योष्ठावर कर देंगे. उन्होंने संसद में भी आवाज उठाई, लेकिन सत्ता पक्ष के होने के कारण बात दबा  दी गई. 

 *   1976 में गठित उत्तराखण्ड युवा मोर्च का गठन किया गया. 1978 में चमोली के प्रताप सिंह पुष्पवाण (विधायक) के नेतृत्व में बदरीनाथ से दिल्ली वोट क्लब तक पदयात्रा करके संसद का घेराव करने का प्रयास किया. 8 सितम्बर को राष्ट्रपति को ज्ञापन देने जाते समय 71 लोगों को गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज दिया गया. इसमें 16 महिलाएँ भी जेल में रहीं. दिल्ली में सक्रिय कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया. 
    
*        1979-जनता पार्टी सरकार के शासनकाल में इसी दल के सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड राज्य परिषद् की स्थापना, 31 जनवरी को त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में दिल्ली में 15 हजार से अधिक लोगों ने वर्षा के बावजूद सफलतापूर्वक मार्च किया.

 *     25 जुलाई को मसूरी में पर्वतीय जन विकास सम्मेलन का आयोजन पत्रकार द्वारिका प्रसाद उनियाल के संयोजन में बुलाया गया. नित्यानन्द भट्ट हल्द्वानी, डी. डी. पंत, पूर्व उच्च शिक्षा निदेशक एवं पूर्व कुलपति कुमाऊँ विश्वविद्यालय, जगदीश कापरी, के. एन. उनियाल, लखनऊ ललित किशोर पाण्डे, सुरेन्द्र विलंगवाल, वीर सिंह ठाकुर, हुक्म सिंह पवार और देवेन्द्र सनवाल ने इसमें सक्रिय भाग लिया. कई राजनीतिक दलों के लोग इसमें आये थे. 1979 को ही सम्मेलन में उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना हुई.

 *    1980 में लोक सभा के लिए अल्मोड़ा से डॉ. डी. डी. पंत, कालूसिंह नैनीताल, मदन मोहन नौटियाल गढ़वाल
एवं कृपालसिंह सरोज टिहरी लोक सभा सीटों से यू. के. डी. के उम्मीदवार वने. 

*    1980 के विधान सभा चुनाव में रानीखेत के जसवन्त सिंह विष्ट उत्तराखण्ड क्रान्ति दल से उत्तर प्रदेश विधान  सभा में यू.के.डी. का एक विधायक हो गया. पाँच स्थानों पर पार्टी के उम्मीदवार टसरे स्थान पर रहे. 1982-प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने मई में बदरीनाथ में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के प्रतिनिधि मण्डल के साथ 45 मिनट तक बातचीत की. 
    
*    1984-भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोगी छात्र संगठन आल इण्डिया स्टूडेन्टस फैडरेशन ने सितम्बर-अक्टूबर में पर्वतीय राज्य की माँग को लेकर गढ़वाल क्षेत्र में 900 किमी की लम्बी साइकिल यात्रा की.

*     1985-23 अप्रैल को नैनीताल में उक्रांद ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर पृथक राज्य के समर्थन में प्रदर्शन किया. 

*    1985 के विधान सभा चुनाव में भी पार्टी उम्मीदवार काशी सिंह ऐरी डिडीहाट से जीत कर विधान सभा में पहुँचे.

*    12-13 सितम्बर को उक्रांद ने 36 घण्टे के बन्द और चक्का जाम किया.

*     23 अक्टूबर को नई दिल्ली में विश्व प्रसिद्ध हिमालयन कार रैली की बुरी शुरूआत हुई. पूर्व घोषणा के अनुसार उत्तराखण्ड समर्थकों ने जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कारों के आगे लेटकर नारेबाजी के जरिए रैली का विरोध किया. पुलिस ने उन्हें हटाने के लिए लाठी चार्ज किया.

 *   1985 से बराबर  जन-आन्दोलन, ज्ञापन के माध्यम से जन-जन तक पृथक राज्य की वात पहुँच चुकी थी.

*    1990 के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने एजेंडे में यह माँग रखनी आरम्भ कर थी. 

*    उत्तर प्रदेश विधान सभा से तीन वार प्रस्ताव पास करके केन्द्र सरकार को भेजे गये. 

*    पहाड़वासी जिस नेता श्री मुलायम सिंह यादव की सबसे अधिक आलोचना करते हैं उन्होंने ही 1994 में कौशिक समिति का गठन किया था. उसी समिति को शक्ति-शाली आधार माना जा रहा है. 

*    1994 में मुजफ्फर नगर काण्ड हुआ. 2 सितम्बर को मसूरी, 1 सितम्बर, 1994 को खटीमा काण्ड हुए. 

*    14-15 अक्टूबर को नयी दिल्ली में उत्तराखण्ड विकास संगोष्ठी आयोजित तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री अशोक मेहता द्वारा इसका उद्घाटन, उत्तराखण्ड की उपेक्षा के बारे में टिहरी के महाराजा मानवेन्द्र शाह ने गोष्ठी में सवाल उठाया और क्षेत्र को केन्द्र शासित राज्य का दर्जा देने की वात कही. पूर्ण राज्य की स्थापना के लिए
आन्दोलन की पहली और ठोस शुरूआत 24-25 जून के रामनगर सम्मेलन में हुई. सम्मेलन में मुख्यमंत्री से पृथक् राज्य बनाने सम्बन्धी संस्तुति केन्द्र सरकार के पास भेजने की माँग की. 

 *   1989-मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखण्ड को उत्तर प्रदेश का ताज बताया और इस आधार पर पृथकु राज्य बनाने से साफ इनकार कर दिया.

*    1994-पृथकू उत्तराखण्ड निर्माण के सिलसिले में गठित रमा शंकर कौशिक समिति के तत्वावधान में दूसरी बैठक  पौड़ी में हुई. 

*    1995 नवम्बर में श्रीनगर श्रीयंत्र टापू पर अनशन पर बैठे  आन्दोलनकारियों पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया जिसमें दो आन्दोलनकारी शहीद हुए. 1996-प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने 15 अगस्त को लाल किले  से उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा की. उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा की राय जानने के लिए विधेयक भेजा.

*    1998-पहली बार  भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से विधेयक उत्तर प्रदेश की विधान सभा को भेजा. प्रदेश सरकार ने 26 संशोधनों के साथ विधेयक विधान सभा में पारित कर केन्द्र को भेजा. केन्द्र सरकार
 ने यह विधेयक लोक सभा में पेश तो किया पर चर्चा नहीं करायी. 

*    2000-अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने पुनः प्रदेश को उत्तरांचल राज्य का विधेयक भेजा. प्रदेश सरकार द्वारा विधान सभा में पारित करा कर भेजने पर केन्द्र सरकार ने 27 जुलाई को लोक सभा में पेश किया और । अगस्त को इस पर चर्चा आयोजित कर लोक सभा से भी पारित करा दिया तथा 10 अगस्त को राज्य सभा ने भी इसे पास कर दिया जिसमें कांग्रेस  पार्टी का अत्यधिक सहयोग रहा,

 *   9 नवम्बर, 2000 के रात्रि सवा 12 बजे उत्तरांचल (अबउत्तराखण्ड) के प्रथम महामहिम के पद पर श्री सुरजीत सिंह वरनाला एवं उत्तरांचल के प्रथम मुख्यमंत्री के पद पर श्री नित्यानन्द स्वामी ने शपय ली. इस प्रकार नये राज्य का गठन हुआ.