पर्व एवं मेले भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं. ये पर्व एवं मेले भारत में पौराणिक कथाओं, रामायण एवं महाभारत
से अविछिन्न रूप से जुड़े हुए हैं. नवसृजित उत्तराखण्ड भी भारत के 27वें राज्य के रूप में भारत का नूतन राज्य बना. इस नवसृजित राज्य में विभिन्न प्रकार के पर्व एवं मेले विविध अवसरों पर लगते हैं. वड़ी संख्या में लोग इन त्यौहारों एवं मेलों में भाग लेते हैं तथा आनन्द करते हैं. मेलों को 'कौथिग' कहा जाता है.
उत्तराखण्ड के प्रमुख पर्व एवं मेले इस प्रकार हैं-
शरदोत्सव
राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में शरदोत्सव मसूरी, अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़ व चमोली में राज्य सरकार के सहयोग
से आयोजित किया जाता है. यह उत्सव क्षेत्र की कला, संस्कृति व सभ्यता का प्रत्यक्ष दर्शन करता है.
ग्रीष्मोत्सव
पर्यटकों एवं क्षेत्र के विकास की दृष्टि से प्रदेश का संस्कृति एवं पर्यटन विभाग अल्मोड़ा में इस उत्सव का आयोजन करता है.
आयुर्वेद महोत्सव
राज्य सरकार के सहयोग से आयुर्वेद के क्षेत्र में किए जा रहे शोध व चिकित्सा से विश्वजन को परिचित कराने के उद्देश्य से आयुर्वेद महोत्सव का आयोजन नवम्बर माह में हरिद्वार में किया जाता है.
जीलजीबी का मेला
यह व्यावसायिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण मेला है. यह मेला पिथौरागढ़, धारचूला में कालीनदी और गौरीनदी के संगम पर लगता है. यहाँ धारचूला के ग्रामीण अंचलों विशेषकर तिब्बत के समीपवर्ती भागों के लोक संस्कृति एवं भेषभूषा के बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है स्थानीय लोक संगीत व कला के विशिष्ट चित्र यहाँ देखने को मिल जाता है.
सम्बतसर प्रतिपदा (नया वर्ष)
भारतीय कैलेण्डर का प्रथम दिन (चैत्र महीने के पक्ष का प्रथम दिन) सम्वतसर प्रतिपदा के रूप में विशेषतया पर्वतों पर मनाया जाता है. इस अवसर पर विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में लोग पंचांग द्वारा नए वर्ष का भविष्य जानने हेतु ज्योतिषियों से परामर्श लेते हैं.
शुक्ल चैत्र नवरात्र
चैत्र नवरात्र माँ दुर्गा या देवी का नौ दिनों का पावन त्यौहार है. लोग बड़े सद्भाव एवं पवित्र मन से देवी का नौ दिन का व्रत रखते हैं, आठवें दिन देवी को समर्पित लगभग सभी मन्दिरों में देवी पूजा होती है. अनेक अवसरों पर पूजा का अनुष्ठान पशुबलि देकर भी होता है. काशीपुर में बाल सुन्दरी देवी के मन्दिर में 15 दिनों के लिए एक बड़ा मेला लगता है. यह त्यौहार एवं मेला भुक्सा लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है.
रामनवमी
उत्तराखण्ड में चैत्र मास के नवें दिन को रामनवमी या राम के जन्म दिवस के रूप में बड़े उल्लास के साथ मनाया
जाता है. इस दिन को लोग रामायण का पाठ करते एवं व्रत रखते हैं. किच्छा तहसील के अतरौली नामक स्थान पर 15वें दिन शिव मेला लगता है.
बिखौटी या बिशुवट संक्रान्ति
अप्रैल के मध्य में विशेष रूप से पर्वतीय लोगों द्वारा विखौटी या बिशुवट संक्रान्ति मनाई जाती है. इस तिथि को नाना प्रकार के विशिष्ट भोज्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं. इस अवसर पर लोग हुरका की संगत में नाचते व खुशियाँ मनाते हैं.
नागपंचमी
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष के पाँचवें दिन नागपंचमी का त्यौहार मनाया जाता है. इस अवसर पर भीमताल में भीमेश्वर महादेव के मन्दिर में मेला लगता है. पर्वतीय क्षेत्रं में यह त्यौहार एक माह पश्चात् मनाया जाता है.
बाझर
वर्षा ऋतु का सर्वाधिक प्रिय त्यौहार है. इस अवसर पर थारू स्त्रियाँ गाँव के वाहर पीपल के वृक्ष के नीचे पूजा करतीं, भोजन पकाती हैं तथा सुबह तक उत्सव मनाती हैं. में मनाया जाने वाला यह त्यौहार थारू स्त्रियों
रक्षाबन्धन
श्रावण महीने के अन्तिम दिन पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का त्यौहार पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है. इस दिन को वहनें अपने भाइयों की कलाई में राखी (रक्षा का धागा) बाँधती हैं. पर्वतों पर ब्राह्मण अपने संरक्षकों की कलाई पर राखी बाँधते हैं तथा दक्षिणा प्राप्त करते हैं. सनातनी इस दिन अपने जनेऊ के पुराने धागे को नए धागे में भी बदलते हैं.
कृष्णा जन्माष्टमी
भाद्रमास के आठवें दिन कृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर भक्तगण व्रत रखते हैं, इस अवसर पर कृष्ण की मूर्ति को घरों व मन्दिरों में सजाया जाता है तथा कीर्तन, भजन एवं उत्सव मनाते हुए पूजा की जाती है. नैनीताल, हल्द्वानी, जसपुर आदि स्थानों पर यह उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है. इसी माह के शुक्ल पक्ष के आठवें दिन नंदशतसी के अवसर पर नैनीताल में नैनादेवी के मन्दिर में एक मेला लगता है.
विजयादशमी (दशहरा)
आश्विन मास में शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को मनाए जाने वाला विजयादशमी का त्यौहार असत्य पर सत्य की, बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक स्वरूप है. धार्मिक ग्रंथो के अनुसार ऐसी मान्यता है कि इसी दिन राम ने रावण का वध किया था. उत्तराखण्ड के अनेक भागों में रामलीला के मेले लगते हैं, जो 10 से 15 दिन तक चलते रहते हैं.
दीपावली
कार्तिक मास के अमावस्या तिथि को यह पर्व पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि श्रीरामचन्द्र जी के रावण वध के उपरान्त अयोध्या लौटने पर अयोध्यावासियों ने घर-धर में दीप प्रज्ज्वलित किया था. यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में भी मनाया जाता है. इस अवसर पर घरों एवं दुकानों को सजाकर प्रकाश किया जाता है तथा लक्ष्मी देवी की पूजा की जाती है. दावते करना, आनन्दोत्सव एवं जुआ खेलना आदि इस त्यौहार की कुछ विशेषताएँ हैं. पर्थतों पर यह त्यौहार 14-15 दिन पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु काशीपुर तहसील, तराई व भाभर में यह धनतेरस से शुरू होता है. यह दीपावली से दो दिन पहले होता है.
गोवर्धन पूजा
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के प्रथमा तिथि को यानि दीपावली के अगले दिन यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है.
इस तिथि को पशुओं को सजाया जाता है तथा उनकी पूज की जाती है.
भैयादूज
भैयादूज का पर्व उत्तराखण्ड में मनाया जाता है. इस पर्व को यम द्वितीय भी कहते हैं. इस अवसर पर वहनें अपने भाई की दीर्घायु होने की कामना करती हैं. नानकमाटा में दीपावली के दिन एक मेला भी लगता है.
कार्तिक पूर्णिमा (स्नान)
कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर शारदा नदी के तट पर मेलाघाट नामक स्थान पर एक वड़ा मेला लगता है. इस मेले में थारू भी भाग लेते हैं.
मकर संक्रान्ति
मकर संक्रान्ति (14 जनवरी) जो उत्तरायिनी भी कहलाताहै, वहुत ही पवित्र दिन समझा जाता है. इस अवसर पर चित्रशिला, मेलाघाट व अन्य स्थानों पर नहान के मेले लगते हैं. माघ मास के कृष्ण पक्ष के 15वें दिन सीतावनी में सीता देवी के मन्दिर में एक मेला लगता है.
वसंत पंचमी
माघ महीने के शुक्ल पक्ष के पाँचवें दिन वसंत पंचमी का त्यौहार पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है. इस अवसर पर विशेष रूप से पर्वतों में लोग खेतों से जौ की बालियाँ लाते हैं। तथा उसे देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के समक्ष भेंटस्वरूप चढ़ाते हैं. बालियों को अपने सिरों में भी लगाते हैं. इस दिन लोग पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं, नाचते एवं गाते हैं. बहुत से स्थानों पर होली के गाने इस दिन से प्रारम्भ हो जाते हैं,
शिवरात्रि
शिवरात्रि फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन भगवान शिव के सम्मान में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा पर्व है. इस अवसर पर उत्तराखण्ड के अधिकांश भागों में शिव मन्दिरों में मेले लगते हैं. रानीवाग में चित्रशिला, केतह
में झारी में तीरथ, काशीपुर में मोतेश्वर महादेव,
गदरपुर
महादेव, बाजपुर में झारखण्डी महादेव तथा रुद्रपुर, किलपुड़ी, झारही, मुक्तेश्वर, कैलाश एवं चकरपुर के शिव मन्दिरों में लगने वाले मेले अधिक महत्वपूर्ण हैं. चकरपुर के मेले में थारु भी सम्मिलित होते हैं.
होली
हिन्दू पंचांग के अनुसार उत्तराखण्डवासियों का होली अन्तिम त्यौहार है, जो फाल्गुन मास के अन्तिम दिन मनाया
जाता है. यह सर्वाधिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का पर्व है. इस अवसर पर सड़क के चौराहों पर होली जलाई जाती है।
तथा एक-दूसरे पर गीला रंग फेंका जाता है एवं नाचते गाते तथा खाते-पीते हुए यह उत्सव मनाया जाता है. यह आनन्दोत्सव होली के कुछ दिन पहले से ही प्रारम्भ हो जाता है तथा होली के पश्चात् वहुत दिनों तक रहता है. थारुओं के लिए सभी त्यौहारों में यह सबसे महत्वपूर्ण है. यह लोग इसके प्रारम्भ होने के एक महीने पहले से ही आनन्दोत्सव मनाना प्रारम्भ कर देते हैं तथा यह आमोद-प्रमोद होली के आठ दिन वाद तक चलता रहता है, इस अवधि में प्रीतिभोज, मदिरा- पान, नृत्य एवं गायन स्वतन्त्र रूप से होता है. वहुत से हिन्दू विशेषतया अनुसूचित तथा पिछड़ी जातियों के तथा थारु एवं भुक्सा कुछ पीरों के उर्स उत्सवों में भाग लेते हैं; जैसे- काशीपुर एवं टांडा उज्जैन का जहर औलिया मेला, कुदासी का वूढ़े वाबा का मेला तथा विजटी में बालेमियाँ का मेला.
उत्तराखण्ड के अन्य त्यौहार
उत्तराखण्ड के उपर्युक्त त्यौहारों के अतिरिक्त कुछ अन्य त्यौहार भी हैं, जो इस प्रकार हैं-
नृसिंह चतुदर्शी
वैशाख शुक्ल चतुदर्शी के दिन भगवान नृसिंह जी का जन्म हुआ था. कहते हैं जो मनुष्य इस दिन व्रत रखता है उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं.
बट सावित्री
जेठ के कृष्ण पक्ष में अमावस्या के दिन सुहाग के लिए महाव्रत माना जाता है. एक धागे पर वारह गाँठें बाँधते हैं, बरगद के पास पूजा करते हैं और इसे पहन लेते हैं.
गंगा दशहरा
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गंगा स्नान किया जाता है. ब्राह्मण लोग 'अगस्त्यस्य पुलतस्य' मन्त्र लिखकर इन्द्र के वज से सुरक्षा के लिए गृह द्वार पर लगा देते हैं.
हरिशयनी एकादशी
इसे चतुर्मास का व्रत माना जाता है, क्योंकि विष्णु भगवान इस दिन क्षीर सागर में सो जाते हैं.
सिंहपुत संक्रान्ति
इस त्यौहार के दिन शुद्ध घी से पकवान वनाए जाते हैं और वच्चों को पेटभर घी खाने को दिया जाता है.
संकट चतुर्थी
भादों वदी चार को मनाया जाता है. तिल के मोदक बनाए जाते हैं, चन्द्रमा के उदय होने तक व्रत रखा जाता है.
स्त्रियों का उत्तम व्रत है.
हस्ताली ब्रत
तेवाड़ी व्राह्मण इस दिन जनेऊ पहनते हैं.
गणगौर
भादों सुदी सात को उमा-महेश्वर की पूजा करके स्त्रियाँ हाथ में धागा पहनती हैं.
दुर्बाष्टमी
दुर्वाष्टमी भादों सुदी आठ को मनाई जाती है.
नन्दाष्टमी
नन्दा देवी की पूजा करते हैं. यह उत्तराखण्ड की राष्ट्र देवी है.
हरियाला
(जुलाई 15') हरियाला त्यौहार से 9 व 10 दिन पूर्व अन्न वोया जाता है. यह 9 अनाजों का सम्मिश्रण अंधेरे में उगाने पर पीला रंग का हो जाता है. नवे-दसवें दिन इसे काटकर देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है. इसे वालकों को भी चढ़ाकर आशीर्वाद दिया जाता है-जीरये, जागिरये, दूब कस, जड़ पनपे, श्याव कसी बृद्धि, हो स्यू कस तराण हो.
अनन्त चौदस
भादों शुदी चीदह को शिवजी की पूजा की जाती है.
डरिबोधनी
कार्तिक सुदी 11 को मनाई जाती है. इस रोज भगवान शिव को जगाया जाता है.
भैरवाष्टमी
मंगसिर यदी 8 को काल भैरव की पूजा की जाती है.
संकट हर व्रत
माघ वदी 4 को गणेश पूजा करके संकट निवारण की पूजा की जाती है.
खतडुवा
आश्विन संक्रान्ति को कुमाऊँ में खतडुवा का त्यौहार मनाया जाता है. ग्वाल-वाल लम्बे इंडों में विविध प्रकार के फूल सजाकर गाते हुए खतडुवा के प्रतीक को जलाते हैं तथा पत्थरों को गाय-भैंस मानकर उनके सामने घास रखी जाती है. इस अवसर पर ककड़ी, चूड़ा तथा अखरोट वाँटे व खाए जाते हैं.
फूल देली त्यौहार
चैत की संक्रान्ति को वसंत के स्वागत में फूल देली त्योहार मनाया जाता है, छोटे वच्चे प्रातः काल तरह-तरह के
फूलों को गाँव की सभी दहलीजों पर रखे जाते हैं, जिसका अर्थ है यह द्वार सदैव फलता-फूलता रहे.
कुम्भ पर्व
कुम्भ प्रत्येक 12वें वर्ष में पूर्ण कुम्भ तथा छठे वर्ष में अर्द्ध के पर्व पर हरिद्वार एवं उसके आस-पास के गंगा तटों पर आयोजित इस विश्व के सबसे बड़े धार्मिक मेले में लोग पावन गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं.
झण्डा पर्व
देहरादून स्थित झण्डा मेला चैत्र-बद्री की पंचम तिथि को इस मेले का आयोजन सिखों द्वारा किया जाता है. मेले में
ध्वज की पूजा की जाती है. जिसे हर तीसरे वर्ष बदल दिया जाता है. मान्यता है कि पूजा के साथ ही गुरु राम राय का देहरादून में पर्दापण होता है.
राजजात यात्रा
आध्यात्मिक चेतना तथा सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक नंदा देवी राजजात एशिया महाद्वीप में सबसे लम्बी व मध्य हिमालय में स्थित बुग्यालों तथा हिमाच्छादित पर्वत भृंखलाओं को चूमने वाली धार्मिक यात्रा है प्रत्येक 12 वर्षों के बाद हिन्दू धर्म की अपारश्रद्धा व विश्वास के प्रतिरूप में इस विशाल यात्रा का आयोजन किया जाता है. गढ़वाल व कुमायूँ में स्थित विभिन्न ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों का इतिहास इस यात्रा से जुड़ा है. इस यात्रा का पहले कोई निश्चित समय नहीं था, लेकिन अब इसे लोकप्रिय बनाने के लिए कुम्भ की तरह इसका भी आयोजन 12 वर्ष वाद होने लगा है, बीसवीं सदी के अभिलेखों के अनुसार 1905 में इस सदी की पहली, 1925 में दूसरी, 1951 में तीसरी, 1968 में चौथी तथा 1987 में पाँचवीं राजजात आयोजित हुई थी. 1968 में मौसम खराब होने के कारण जातयात्रा पूरी नहीं हो सकी. 2000 में 21 अगस्त से 9 सितम्बर तक राजजात का आयोजन किया गया था. कुम्भ के पश्चात् उत्तराखण्ड का यह सबसे वडा धार्मिक समागम है. उत्तराखण्ड की आराध्य देवी नंदा को त्रिशूल पर्वत की तलहट्टी पर स्थित होमकुण्ड तक लगभग 280 किलोमीटर लम्बी साहसिक यात्रा के द्वारा देवी नंदा को मायके से ससुराल पहुँचाया जाता है. राजजात के आयोजन की प्रक्रिया राजवंशी कुँवरों और राज पुरोहितों द्वारा कुरुड़ एवं नौटी में स्थित राज राजेश्वरी नंदादेवी के मंदिरों में मनौती की रस्में पूरी की जाती हैं. राजजात यात्रा दुनिया की सबसे लम्बी यात्रा है जो प्रकृति एवं मानव की श्रद्धा का समन्वित स्वरूप है.
देवीधुरा का मेला
यह सम्पूर्ण कुमाऊँ मण्डल का एक विशिष्ट मेला है. श्रावण माह में पूर्णिमा के दिन से यह मेला प्रारम्भ होता है. मन्दिर के मैदान में ही 'बग्बाल' होती है. इस बग्वाल में भाग लेने वाले दो दल होते हैं जिन्हें 'धोक' कहा जाता है. वग्वाल के दो भाग होते हैं. पहले भाग में अलग-अलग दल एक-दूसरे पर पत्थरों की वर्षा की जाती है. थोड़े ही समय में यह पत्थर युद्ध पुजारी द्वारा मध्यस्थता व शांति पाठ से समाप्त हो जाता है. इसके आयोजन में प्रशासन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, पारस्परिक वैमनस्य को भुलाकर यह मेला सौहार्द की संरचना करता है. लाखों दर्शक व पर्यटक इस मेले को देखने दूर-दूर क्षेत्रों से यहाँ आते हैं.
मानेश्वर का मेला
मानेश्वर मायावती और चम्पावत के निकट स्थित है. इस मेले के विषय में मान्यता है कि पुराने समय में मानेश्वर में एक ऐसा पत्थर था जिसके आस-पास जाने पर दुधारू पशुओं का दूध स्वयं ही निःसृत हो जाता था. उस पत्थर पर
सब पशु अपने दूध की धारा बहाकर घर लौट आते थे. पशु स्वामियों को जब यह विदित हुआ, तो उन्होंने दुधारू पशुओं को उस क्षेत्र में जाने से रोक दिया. जिसके कारण पशुओं का दूध स्वयं ही सूख गया. उन्होंने दूध देना बंद कर दिया और पशु मरने लगे, परेशान गाँववासियों ने एकजुट होकर पूजा अर्चना की, पशुओं को उस पत्थर के पास जाने दिया जिससे सभी पशु तत्काल स्वस्थ हो गए, तभी से मानेश्वर की पूजा होने लगी और वहाँ इस अवसर पर मेले का आयोजन होने लगा.
गुढ़केदार का मेला
यह मेला कार्तिक माह में आयोजित होता है, तला चौकोर में गुढ़केदार के मन्दिर में यह मेला प्रारम्भ होता है. निःसंतान स्त्रियाँ रातभर हाथ में दिया लेकर शिव पूजन करते हैं. मनोकामना पूर्ति के लिए यह मन्दिर समस्त क्षेत्र में
विख्यात है.
गिर का मेला
तल्ला सल्ट में आयोजित होने वाला यह मेला बहुत ही आकर्षित करने वाला मेला है. यह उत्तरायणी के दिन होता
है. इस मेले में चनूली गाँव के लोग और सरपट गाँव के लोग आमने-सामने आकर गिर (गेंद) खेलते हैं. खेल के मैदान में हार-जीत पर ही खेल समाप्त होता है. गाँव के अन्य लोग दर्शक होते हैं.
नंदा देवी का मेला
कुमाऊँ में सबसे महत्वपूर्ण मेला नंदा देवी का मेला है. नन्दा देवी गढ़वाल व कुमाऊँ की इष्ट देवी है. अल्मोड़ा की
नन्दा देवी के दर्शन करने सुदूर भागों से लोग वर्ष भर आते रहते हैं. नैनीताल में यह नन्दादेवी नैनादेवी के नाम से पूजी जाती है. भाद्रपद की अष्टमी को अल्मोड़ा और नैनीताल में एक साथ नन्दा देवी का मेला प्रारम्भ होता है. यह मेला तीन दिन तक चलता है. यहाँ पर लोकगीत व संगीत की छटा देखते व सुनते ही बनती है.
मियां का मेला
कुमाऊँ में कुछ मुसलमान संतों के नाम पर भी मेलों का आयोजन किया जाता है. किल्लपुरी में लगने वाला मियां का मेला इसी कोटि का है. स्थानीय जनता व मुस्लिम धर्म को मानने वालों के परस्पर भाईचारे के प्रतीक के रूप में इस मेले का विशेष महत्व है. गदरपुर में 'सरवरपीर' का मेला, जसपुर में 'जाहर औलिया' का मेला इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है. ये जेठ व क्वांर के महीने में लगते हैं.
चैती का मेला
यह मेला चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर दस दिनों तक समारोहपूर्वक मनाया जाता है. काशीपुर में लगने वाला यह मेला इस क्षेत्र में आस-पास के सब मेलों से सबसे बड़ा है. वोक्सा जाति के लोग इस मेले में बढ-चढ़कर भाग लेते हैं. यह मान्यता है कि बोक्सा जाति के नवदम्पत्ति को देवी का आशीर्वाद लेने अवश्य आना चाहिए.
गेंदी का खकोटी
वसंत पंचमी के आगमन पर उत्तराखण्ड में लोकोत्सव सनाने की परम्परा सदियों से चली आा रही है. इस प्रकार का लोकोत्सव पौड़ी नगर के पास स्थित ग्राम 'च्चींचा में 'गेड़ी की खकोटी उत्सव' प्रसिद्ध है. यह उत्सव वसन्त पंचमी से शुरू होकर बैशाखी तक चलता है. प्रचलित कथानुसार महाभारत काल में राजा पाण्डु के श्राद्ध तर्पण हेतु यक्ष करवाया जाता है. जिसमें विधान क अनुसार गेंदी (मादा गेंडा) की खकोटी (खाल) खींचने की प्रथा है. पाँचों पाण्डव इसे प्राप्त करने के लिए हरियाली नामक स्थान पर एक ताल के निकट जाते हैं, जहाँ वड़ी संख्या में गेंदी झुण्ड में विचरण कर रही होती हैं. इसकी देखभाल के लिए नागमल और नागमती रात-दिन उसके पास घूमते रहते हैं. गेंदी को पाने के लिए पाण्डवों को कई दिन तक नागमल से युद्ध करना पड़ता है. नागमल के अथक प्रयासों के वावजूद अर्जुन गेंदी पर अपने गाण्डीव से प्रहार कर उसे मारने में सफल हो जाते हैं. अन्ततः पाण्डु के श्राद्ध तर्पण का विधिवत् समापन होता है. इसी परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए गाँव के लोगों द्वारा यह उत्सव प्रत्येक वर्ष पारम्परिक ढंग से मनाया जाता है. जिसमें पाँच युवक पाण्डव और एक युवक व युवती नागमती की भूमिका निभाती है. पारम्परिक लोकवाय्यों के बीच नृत्य करते हुए ये कलाकार गाँव के बीच में स्थित देवी भगवती के मन्दिर में एकत्र होते हैं. काफी देर तक नृत्य के माध्यम से युद्ध की भाव भंगिमाएँ प्रस्तुत की जाती हैं. नागमती वनी युवती की गोद में गेंडी का प्रतीक होता है जिसे कद्दू (सीताफल) व लौकी आदि से बनाया जाता है. नागमती गेंदी को पाँचों पाण्डवों से वचाने का प्रयास करती है और पाण्डव उस पर अपने-अपने अस्त्रों से प्रहार करने का अभिनय करते हैं. पाण्डवों के प्रहार के साथ ही नृत्योत्सव का समापन होता है. इस उत्सव के आयोजन से तीन दिन पहले रात को देवी देवताओं का मंडाण रखा जाता है. ढोल दमाऊ की ताल पर गाँव के लोग रात भर थड़िया, चौफला व झुमैला नृत्य भी करते हैं. इस उत्सव के अंतिम दिन वैशाखी को दिन भर घर- घर जाकर पारम्परिक गीत गाए जाते हैं.
भद्रराज देवता का मेला
भद्रराज देवता का प्राचीन व प्रसिद्ध मन्दिर मसूरी से लगभग 15 किलोमीटर दूर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है. सड़क
से सात किलोमीटर की यात्रा पैदल घने जंगल के बीच दुर्गम पहाड़ी रास्ते से तय करना पड़ता है. हरियाली और नयनाभिराम दृश्यों के बीच स्थित प्राचीन मन्दिर में स्थित भद्रराज देवता की मूर्ति पर भक्तगण दूध चढ़ाते हैं. मेले में पहुँची सांस्कृतिक टोलियाँ अपनी-अपनी लोक संस्कृति के नृत्य प्रस्तुत करती हैं. पिछले कुछ वर्षों से पर्यटन विभाग तथा मसूरी नगरपालिका के सहयोग से विकास मेले के रूप में इस मेले का आयोजन किया जाता है.
गोचर का मेला
उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा यह औद्योगिक एवं विकास मेला अपनी एक अलग पहचान रखता है. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिन पर शुरू होने वाले इस ऐतिहासिक मेले में उत्तराखण्ड के विकास से जुड़ी विभिन्न संस्कृतियों का इस मेले में खुलकर प्रदर्शन किया जाता है. साथ ही कृषि, वागवानी, फलोद्यान, रेशम कीटपालन, साक्षरता, हथकरघा उद्योग, नवीन वैज्ञानिक तकनीकियों का प्रदर्शन, महिला उत्थान योजनाएँ, ऊनी वस्त्रं का प्रदर्शन एवं गढ़वाल मण्डल विकास निगम द्वारा उत्पादित विभिन्न प्रकार की सामग्री भी इस मेले के माध्यम से प्रत्येक जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास करती है. ढोलक की थाप पर विरकती बालाएँ गढ़वाली व कुमाऊँनी गीतों के माध्यम से जन-जन तक संस्कृति के विकास का संदेश देते कलाकार, कवि सम्मेलन विकास की यात्रा से जनमानस को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं. सन् 1943 में गढ़वाल के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर बर्नेडी ने इस मेले का शुभारम्भ किया था. उस समय इसका उद्देश्य सीमान्त क्षेत्रवासियों को क्रय-विक्रय का एक मंच उपलब्ध कराना था. तिब्वत के व्यापारी अनेक व्यापारिक वस्तुएँ यथा नमक, ऊन, सुहागा, जड़ी-वूटी, कस्तूरी व शिलाजीत लाकर बेचते थे. साठ के दशक में भारत-चीन सम्बन्ध विगड़ने के कारण यह व्यापार भी प्रभावित हुआ. गोचर चमोली जिले का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक केन्द्र रहा है. यहाँ प्रकृति द्वारा प्रदत्त विशाल मैदान है. जहाँ लाखों की संख्या में लोग भाग ले सकते हैं. सन् 1935-1938 तक दिल्ली की एक संस्था 'हिमालयन एयरवेज लिमिटेड' द्वारा गोचर तक यात्री वायु सेवा संचालित की जाती थी. जनश्रुति के अनुसार पहले गोचर मैदान की भूमि आबाद थी. बद्रीनाथ यात्रा से लौटकर तत्कालीन महारानी ने भू-स्वामियों को उनकी भूमि का मूल्य देकर उक्त मैदान को चरागाह रूप में प्रयुक्त करने की स्वीकृति दी. इसलिए इस स्थान को गोचर के रूप में जाना जाता है, आज यह मेले के रूप में बदल गया है,
बैकुण्ठ चतुर्दशी का मेला
गढ़वाल की केन्द्र स्थली श्रीनगर में कमलेश्वर मन्दिर में कार्तिक मास की शुक्ल चतुर्दशी को वैकण्ठ चतुर्दशी मेले का आयोजन किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि 'खड़े दीए' की पूजा करने से निःसन्तान दम्पत्तियों को पुत्र प्राप्त होता है. निःसन्तान दम्पत्तियों को पुत्र प्राप्ति के लिए रात्रि को पूरे समय हाथों में दीपक लेकर खड़ा होना होता है जिसे सुबह अलकनंदा में प्रवाहित कर दिया जाता है. दिन के समय मन्दिर परिसर में मेले की भीड़ जमा होती है और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वाजार भी लगता है.
उत्तराखण्ड के मेले
देहरादून- अम्बिका देवी का मेला राजापुर के पास धार्मिक मेलों के लिए प्रसिद्ध है.
पीड़ी गढ़वाल-1, वसन्त पंचमी को 'देबप्रयाग' में बहुत वड़ा मेला लगता है.
2. श्रीनगर-विषुवत संक्रान्ति को श्रीनगर में गंगा स्नान का उत्तम पर्व माना जाता है. दूर-दूर से लोग यहाँ स्नान
करने पहुँचते हैं. इसी दिन चट्टी चण्डीघाट पर बड़ा मेला लगता है. देवगढ़ व खुड़ेश्वर में वैशाखी का बहुत बड़ा मेला लगता है.
3. जेठ महीने में भुड़ेश्वर व कांडा में मेला लगता है.
4. जन्माष्टमी को क्यू कालेश्वर में बहुत बड़ा मेला लगता है,
5. विदेश्वर महादेव में कार्तिक की वैकुण्ठ चतु्दर्शी व पूर्णमासी का मेला देखने योग्य होता है.
चमोली
1. विषुवत् संक्रान्ति को थराली, कर्णप्रयाग तथा अगस्त्यमुनि में मेले लगते हैं.
२ वघाण में नन्दाष्टमी के दिन माता नन्दा देवी की पूजा वड़ी धूमधाम से की जाती है.
3. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को रुद्रप्रयाग, नागनाथ, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग, गोपेश्वर, विष्णुप्रयाग, देवाल में मेला लगता
है.
4. कर्णप्रयाग तथा कोटेश्वर में उत्तरायणी तथा वैकुण्ठ चतुदर्शी को मेला लगता है.
5. कालीमठ में नवरात्रि की सप्तमी को वहुत वड़ा मेला लगता है,
कूर्माचल (नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़)
1. रानीवाग में जजियारानी की याद में मेला लगता है. यह स्थान पवित्र माना जाता है.
2. झाड़ी स्थान किच्छा तहसील में सितारगंज के पास है. यहाँ पर शिवजी का बड़ा मन्दिर है, यहाँ शिवरात्रि के दिन बड़ा मेला लगता है,
3. खटीमा का रामडोला का मेला प्रसिद्ध है,
अल्मोड़ा
1. अल्मोड़ा में नन्दाष्टमी को वहुत वड़ा धार्मिक मेला लगता है.
2. वागेश्वर में मकर संक्रान्ति के दिन मेला लगता है. यहाँ ऊनी वस्त्र, कम्बल, पसमीन, चटाइयाँ इत्यादि मिलते हैं.
3. द्वारहाट में वैशाख के आरम्म में वैशाखी का स्याल्दे, विखौती का ऐतिहासिक मेला लगता है.
4. मांसी में वैशाख के अन्तिम सोमवार को सोमनाथ का ऐतिहासिक मेला लगता है. यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र
व काष्ठ कला की वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं.
5. द्रोणगिरि में द्वारहाट से 8 मील की दूरी पर एक उच्च पर्वत श्रृंखला पर पौराणिक मन्दिर है. इस पर्वत श्रेणी को संजीवनी बूटी मिलने का श्रेय प्राप्त है.
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