भरतु की ब्वारी उस दिन फूल कर कुप्पा ही गयी थी जब उसके लड़के ने अंग्रेजी पोयम poem प्रतियोगिता में तृतीय पुरुस्कार प्राप्त किया था । देहरादून के सेंट फर्राटा इंटरनेशनल स्कूल में अध्ययनरत बच्चों के मुखारबिंद से जब भी वो अंग्रेजी भाषा के शब्द स्फुटित होते हुए देखती तो बड़ी गौरवान्वित होती थी ।
पिछली बार जून की छुट्टियों में बच्चों को गाँव लेकर गयी तो एक महीने में ही बच्चे , अनाप शनाप गढ़वाली भी सीख गए , बच्चे ठहरे , किसी भी चीज को जल्दी पकड़ लेते हैं । गाँव में जब बच्चो ने भरतु की ब्वारी के किसी जेठ जी को.... अन्य बच्चो की देखा देखी में... *बौड़ा जी* बोला ...,, वो चिढ़ गयी ... बोली-- अरे बेवकूफो ... अंकल नही बोल सकते क्या ? बच्चे गाँव के माहौल में इतना मगन हो गए कि ... सेंट फर्राटा स्कूल की अंग्रेजी ... गाँव के माहौल में खर्राटा मारने लगी । बच्चों की हिंदी में भी पहाड़ी टँग आने लगी । बच्चे बोलने लगे कि.... ममी ममी... हम पुंगडों में बांदर हकाने जा रे , कभी बोलने लगे कि.... हम दादी के साथ गोरु चराने जा रे , कभी कहने लगे कि...हम ...लुक्की - खोजी का खेल खेलने जा रे ।
भरतु की ब्वारी ये सब शब्द सुनकर कहने लगती कि-- तभी तो नही लाती, मैं इनको गाँव में, दो दिन में हवा लग जाती है गाँव की, बिगड़ गए साले ।
बच्चे कभी मल्ली खोला, कभी मुल्ली खोला, कभी पल्ली खोला, कभी पदान खोला ,सुबह से शाम धमाचौकड़ी मचाते , ।। गाँव मे आकर पहली बार उन्होंने सजीव पारिस्तिथितन्त्र देखा था , जहाँ गाँव के कुंवे की मिट्टी वाली गूल में उन्होंने डोके( तोडरपोल) , जॉज , उकसे , गोबर में केंचुवे , साक्षात साँप , देखे थे । उन्होंने सेंट फर्राटा स्कूल में सिर्फ किताबो में ये पढा था ,पर प्रयोगात्मक अनुभव उनको गाँव मे मिला । उनको गाँव भाने लगा था , गाँव की हर एक विषय वस्तु में ज्ञान का पिटारा था ,दरअसल गाँव ही जीवन की प्रयोगशाला था । पर गाँव मे अंग्रेजी नही थी । अंग्रेजी शराब तो बहुत थी पर भाषा नही थी , जिस वजह से लोग बच्चों की अंग्रेजी दुरुस्त करने के लिए नजदीकी कस्बो के अंग्रेजी स्कूलों में रख रे थे ।
भरतु की ब्वारी भी चाहती थी कि उसके बच्चे, घुघुती बसूती...क्या खांदी? ... न सीखकर .... जॉनी जॉनी ...यस पापा ...जैसा कुछ सीखें ।
गाँव में बीरू ,जोकि उस जमाने में 8 पास था ,पर रात को अंग्रेजी पीकर , ऐसी अंग्रेजी फूंकता था कि सामने वाले श्यामू को भी आग लग जाती थी । गढ़वाली गालियाँ , अंग्रेजी स्टाइल में देना पूरे गाँव में सिर्फ बीरू ही जानता था , इसलिए उससे हर कोई डरता भी था ।
भरतु की ब्वारी को न तो गाँव पसन्द था ,न गाँव के लोग, न गाँव की बोली भाषा । देहरादून जाकर वो एक्सक्यूजमी , प्लीज, एक्चुली , कल्चर , पल्चर जैसे शब्द सीखती रहती थी , उसे अब हिंदी भी नही भाती थी , जबकि उसकी हिंदी में अभी भी पहाड़ी टँग साफ नजर आती थी । देहरादून राजवाला की गली में
सब्जी वाले ठेले को भी आवाज लगाते हुए कहती-- ओ भैय्या, टिमाटर की कोस्ट क्या है बल ? चींचींडे का प्राइज क्या चल रा बल ? जब वो भाव बताता तो .. कहती-- सही लगाओ ब्रो ।। हम तो डेली के कस्टमर ठहरे ।
source:- https://www.facebook.com/bhartukibvaari/
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