माँ नंदा देवी की मूर्ति |
एक बेटी को उसके ससुराल विदा करने की तैयारी की जा रही है। शिव के कैलाश जाने के लिए भगवती को सुसज्जित किया जा रहा है। भक्तों द्वारा झाल की ककड़ी , मुंगरी , आड़ू आदि वस्तुएं मायके वालों द्वारा ससुराल पक्ष के लिए भेजी जा रही हैं।
गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में गढ़वाल-कुमाऊँ की ईष्टदेवी माँ नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा सिद्धपीठ कुरुड मंदिर से शुरू होती है। यहाँ से प्रस्थान कर कुरुड दशोली की नंदा डोली बालपाटा बुग्याल , राजराजेश्वरी बधाण की नंदा डोली बेदनी बुग्याल में, और कुरुड बंड भुमियाल की छ्न्तोली नरेला बुग्याल में नंदा सप्तमी/ अष्टमी के दिन पूजा अर्चना कर, नंदा को समौण भेंट कर वार्षिक लोकजात संपन्न होती है।
माँ नंदा देवी की डोलियां
माँ नंदा के मायके कुरूड धाम से श्रद्धालु पौराणिक लोकगीतों और जागर गाकर हिमालय की अधिष्टात्री देवी माँ नंदा को हिमालय के लिये विदा करते है। जैसे लोकगीतों और जागरों के द्वारा अपनी ध्याण को विदा करते समय महिलाओं की आंखे अश्रुओं से छलछला जाती है खासतौर पर ध्याणियां मां नंदा की डोली को कैलाश विदा करते समय फफककर रो पड़ती है। इस दौरान श्रद्धालु अपने साथ लाये खाजा- चूडा, बिंदी, चूडी, ककड़ी, मुंगरी भी समौण के रूप में माँ नंदा को अर्पित किये जाते है जो की उत्तराखंड की एक पौराणिक प्रथा है. आज भी लोग गावों में अपनी ध्याणियों को समोंड भेजती है जिसमे मुख्यतय खाजा- चूडा, बिंदी, चूडी, ककड़ी, मुंगरी होती है ।
श्रद्धालुओ के द्वारा गाये जाने वाले पौराणिक लोकगीत और जागर गाकर कुछ इस प्रकार होते है.
जा म्येरी गवरा तू, शिवा का कैलाश
जा म्येरी गवरा तू, चौखम्भी ऊकाळे
त्येरा संग चलला वौ छ्वोटो भुला लाटू
त्येरा संग चलला वौ त्यूणा रजाकोटी
त्येरा संग जाला रिंगाल छंतोली..
मेरी मैत की धियाणी तेरू बाटू हेरदु रौलू..
इन्हीं जागरों के साथ सिद्ध पीठ कुरुड़ से मां नंदा देवी को कैलाश के लिए विदा किया जाता है।
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