अगर दुनिया का झुकाव आयुर्वेद की ओर इसी तरह बढ़ता रहा और प्राचीनकाल में क्रषि मुनियों द्वारा किए गए
अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाया जाता रहा, तो उत्तराखण्ड अपनी विलक्षण पादप विविधता के कारण भारत का जड़ी-बूटी राज्य तो बनेगा ही साथ ही यह जीवनदायिनी औषधियों के स्रोत के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और मुद्रा भी अर्जित करेगा.
भारत विश्व के विशाल जैविक विविधता (मेगा बायो डाइवर्सिटी) वाले 12 देशों में शामिल है और उत्तराखण्ड
जैविक विविधता के लिहाज से सर्वाधिक सम्पन्न चार क्षेत्रों (हाट स्पा्स) में से एक क्षेत्र में स्थित है. जैविक विविधता
में भी जीव विविधता (फोनल डाइवर्सिटी) मुख्यतः पादप या वनस्पति (फ्लोरल डाइवर्सिटी) पर निर्भर करती है, क्योंकि सूक्ष्म या अदृश्य कीटों से लेकर विशाल हाथी तक अधिकतर जीव भोजन के लिए वनस्पति पर निर्भर रहते हैं तथा इन पर ही मांस भक्षी या उभय भकषी जीव निर्भर होते हैं. इसलिए जितने प्रकार के जीव एवं वनस्पतियाँ होंगी उनकी उतनी ही अधिक विशेषताएँ होंगी. इस विलक्षणता को देखते हुए भी मानव के हित में उत्तराखण्ड भविष्य का वैज्ञानिक शोध केन्द्र बनने जा रहा है.
तराई भवर से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र के शीत मरुस्थल की शुरूआत तक जलवायु, भौगोलिक और मिट्टी आदि की विविधताओं के कारण वनस्पतियों की हजारों प्रजातियाँ उत्तराखण्ड में मौजूद हैं. अकेली फूलों की छोटी सी घाटी में लगभग 521 वनस्पति प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं. ये जितनी तरह की प्रजातियोँ हैं उनके उतनी तरह के महत्व भी हैं. प्रकृति की इस विलक्षण एवं अपार सम्पदा का संरक्षण एवं मानवता के हित में युक्ति संगत दोहन नीति नियंताओं के विचार मंथन का विषय बन गया है.
वास्तव में विभिन्न प्रकार की जलवायु में जीवित रहने
के लिए प्रकृति अपने पेड़-पौधों को खास किस्म के विभिन्न रसायन उपलब्ध कराती है. वनस्पतियों के यही रसायन औषधीय महत्व के होते हैं. यही रसायन जड़ी-बूटी, छाल, फल एवं फूलों में मिलते हैं. इसके साथ ही मिट्टी के खनिज जब वनस्पतियाँ भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं, तो ये खनिज भी औषधीय महत्व के होते हैं, इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि प्रकृति से बड़ा कोई डॉक्टर नहीं हो सकता है और उस प्रकृति की जड़ी-बूटियों के रूप में अपनी एक प्राकृतिक चिकित्सा व्यवस्था है और भारत में हजारों वर्षों पूर्व इस व्यवस्था की जानकारी त्राषि-मुनियों को थी. भारत में रोग निवारण के लिए पौधों के प्रयोग का सर्वप्रथम वर्णन रिग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के पश्चात् चर तथा सुश्रुत के भारतीय वनोपधि पर दो अत्यन्त महत्वपार्ण ग्रन्थ चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में इन जड़ी-बृटियों के वर्णन मिलता है, चरक के समय से लेकर आज तक अनेक आयुर्वेदाचार्यों एवं अनुसंधानकर्ताओं के सहयोग से भारतीय वनोषधियों की संख्या लगातार वढ़ती गई और आज देश में आयुर्वेद के लिए लगभग 2500 से अधिक वनस्पति प्रजातियों का उपयोग हो रहा है. उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली वनस्पतियों का आयुर्वेदिक तथा यूनानी दवाओं के अतिरिक्त सौन्दर्य प्रसाधन, खाद्य रंग, पाचक चूर्ण, केश तेल, धूप. अगरवत्ती एवं टेलकम पॉउडर के निर्माण में प्रयोग किया जाता है, कहा जाता है कि राम के भाई लक्ष्मण को जब शक्ति लगी थी, तो उनकी जान बचाने के लिए सुसैन वैद्य ने इसी क्षेत्र के दूनागिरी पर्वत से संजीवनी बूटी मँगाई थी.
उत्तराखण्ड में वनस्पतियों के वितरण में ऊँचाई, मिट्टी की मातृ चट्टान एवं सूर्य किरणों के कोण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. समुद्रतल से 2000 मीटर से ऊँचाई वाले छेत्रों प्रमुख रूप से कुथ, वनककड़ी, महामेंदा, कुटकी, गेंठी, अतीस, गन्द्रायण, जम्बू, सालम पंजा (हाथजड़ी) डोलू. चोख, जटामासी, फरण, अंगूर सेफा, वन तुलसी एवं अम्मी मजस जैसी औषधीय वनस्पतियाँ पाई जाती हैं. समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर की ऊँचाई तक मासी, अम्मी-विस्नागा, कीट पुष्पी, बच सुगनधवाला थुनेर, चिरायता, खुरासानी एवं अजवायन जैसी प्रजातियाँ मिलती हैं. समुद्रतल से 800 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों एवं नदी घाटियों में पीपली, अश्वगन्धा, चन्द्रसूर, मेन्था, जापानी पुदीना, सर्पगन्धा एवं ब्राह्मी आदिऔषधीय प्रजातियाँ पाई जाती हैं.
जड़ी बूटियों के दोहन का मामला बेहद संवेदनशील भी है, बेतहासा दोहन के कारण कई प्रजातियों विलुप्त होती जा रही हैं, उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक तंत्र में अगर एक वनस्पति प्रजाति लुप्त हो गई है, तो उस पर निर्भर कम-से -कम 15 जीव प्रजातियों की शृंखला प्रभावित हो सकती है जोकि पर्यावरण सन्तुलन के लिए वहुत घातक हो सकता है. यही नहीं एक प्रजाति के लुप्त होने से सदा के लिए एक जीन और उसका खास ज्म पलाज्म भी नष्ट हो सकता है, जाकि मनुष्य के लिए भी बहुत उपयोगी हो सकता है.
पेड़-पौधों के आनुवंशिकी, पर्यावरणीय एवं औषधीय महत्व को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने सुविचारित काम योजना के तहत जड़ी-बूटी अनुसंधान एवं विकास कार्य को तेज करने तथा वनों से वनस्पतियों का दोहन रोकने के लिए जड़ी-बूटी का कृषिकरण करने की योजना बनाई है सरकार ने गोपेश्वर, मण्डल स्थित जड़ी-बूटी शोध संस्थान को सुदृढ़ कर दिया है तथा आयुर्वेदिक महाविद्यालयों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. जड़ी-वृटियों के कृषिकरण की दिशा में कदम उठाते हुए राज्य सरकार ने कुथ (सौसुरिया लापा) के कृषिकरण की
छूट तथा इसके नि्यात के लाइसेन्स की व्यवस्था कर दी है. यह औषधि दमा, खाँसी, श्वास नली की सूजन, अफरा,
उदरशूल तथा हृदय रोगों के निदान के अलावा एन्टीसेप्टिक के रूप में भी काम आती है.
वन विभाग ने जड़ी-बूटी का एक्शन प्लान बनाया है जिसके अन्तर्गत इस वर्ष 358 हेक्टेअर वन क्षेत्र जड़ी-बूटी उगाने के लिए चिह्नित किया गया है. औषधीय पादपों के संरक्षण के लिए राज्य सरकार ने 4.45 करोड़ की योजना शुरू की है. उद्यान विभाग को पुनर्गठित कर इसमें जड़ी-बूटी कार्य भी शामिल किया गया है. राज्य के कुछ सरकारी उद्यानों को जड़ी-बूटियों के कृषिकरण के लिए डावर जैसे प्रतिष्ठित निजी प्रतिष्ठानों को लीज पर देने का निर्णय लिया गया है.
उत्तराखण्ड सरकार राज्य के समग्र विकास के लिए भारतीय उद्योग महासंघ के साथ संयुक्त रूप से विभिन्न क्षेत्रों
में कार्य करेगी. राज्य का आधारभूत ढाँचा तैयार करने, कृषि वागवानी, जलविद्युत, पर्यटन, वायोटेक्नोलॉजी फॉरेस्ट्री, सूचना प्रौद्योगिकी और उद्योग के क्षेत्र में एक विशेष कार्य योजना तैयार करने के लिए महासंघ और उत्तराखण्ड सरकार के बीच समझीता हुआ.
बैठक में विभिन्न देशों के राजदूत शामिल हुए. वैठक में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कहा कि इस नए राज्य में विभिन्न सेक्टरों की योजनाओं में व्यापक रूप से पूँजी निवेश की आवश्यकता है. इसके लिए यहाँ प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक सम्भावनाएँ और वातावरण व आधार दोनों ही हैं. मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड के आर्थिक विकास के साथ ही साझा टेक्नोलॉजी पर वल दिया. राज्य में नई औद्योगिक नीति के मार्फत मध्यमवर्ग के उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए पूँजी निवेश होना चाहिए, जिससे राज्य को भारी लाभ होगा. पर्यटन के क्षेत्र में विभिन्न देश हमारे साझीदार हो सकते हैं. रोप वे बनाने में भी पूँजी निवेश कर सहयोग किया जा सकता है. बैठक में टास्क फोर्स का गठन किया गया, जो राज्य के आर्थिक विकास के लिए कार्ययोजना को अंतिम रूप देगी.
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