बीरांगना कर्णावती
मुगल सेना के छक्के छुड़ा देने वाली वीरांगना कर्णावती का विवाह गढ़वाल राज्य के राजकुमार महीपतिशाह के साथ हुआ. महीपतिशाह अपनी पराक्रम गाथाओं के कारण बाद में महाराजा गर्वभंजन महीपतिशाह के नाम से विख्यात हुए. जुलाई 1631 में अल्मोड़ा के युद्ध में महीपतिशाह की के मृत्यु पश्चात् उनके पुत्र युवराज सात वर्षीय पृथ्वीपतिशाह का राजतिलक किया गया, लेकिन उनके वयस्क होने तक सारा राज्य का दायित्व माता कर्णावती ने सँभाला.
राज्य का दायित्व अपने कंधों पर लेने के उपरान्त शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुदृढ़ किया, अपने राज्य में रास्ता सुगम बनाने के लिए सड़कें बनवाई तथा खेतों की उन्नति के लिए पानी का समुचित प्रबन्ध किया, गढ़वाल के प्राचीन ग्रन्थों एवं गीतों में कण्णावती की प्रशस्ति में उनकी निर्माण की हुई बावलियों, तालाबों तथा पीने के लिए कुओं का वर्णन किया गया है. निर्माण कार्यों के अतिरिक्त राजमाता ने गढ़वाली सेना को भी पुनर्गठित तया सुसंगठित किया. मुख्य सेनाध्यक्ष श्री माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में सेना को सुव्ययस्थित करने में इन्हें अच्छी सफलता मिली. राजमाता ने विद्रोहियों तथा आतताइयों को कठौर दण्ड देना शुरू किया तथा अपनी आज्ञा का उलंघन करने वालों की नाक कटवा देने की प्रथा चलाई, इसी कारण से वे 'नाक काटने वाली रानी' के नाम से विख्यात हो गई. गनी कर्णावती के शासनकाल के समय दिल्ली तख्त पर मगल सम्राट् शाहजहाँ आसीन थे. जब तक महाराज सरीपतिशाह पदासीन थे, तब तक मुगल आक्रमण करने के नय में सोचते नहीं थे, लेकिन कर्णावती के शासनकाल में मन्होंने आक्रमण कर राज्य को हस्तगत करने का प्रयास करने तगे. रानी ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए तथा सम्पूर्ण दून धाटी को गढ़वाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया तथा गढ़वाल राज्य की विजय पताका फहरा दी. राजमाता कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रूप में 1640 ई. तक शासनारूढ़ रहने के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन शासन के परामर्शदात्री के रूप में कार्य करती रही.
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